अपंग - 31 Pranava Bharti द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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अपंग - 31

31

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लाखी यह सब बताते हुए भी बहुत घबराई हुई थी | 

"पता नहीं माँ को यह सब पता था क्या कि वह पंडित के नाम पर बदमाश आदमी है लेकिन अब मुझे लगता है कि पता ही होगा | दुख भी होता है कि कोई भी माँ अपनी बेटी को ऐसे किसी घर में कैसे भेज सकती है ? " घड़ी भर को रुककर उसने कहा;

"माँ की भी मज़बूरी थी ही, उसका पियक्कड़ आदमी !" लाखी बातें करते-करते बार-बार रोने को हो आती थी|  

" फिर एक दिन माँ ने कहा कि उसकी तबियत खराब है और मुझे सदाचारी के यहाँ काम करने जाना पड़ेगा | डरते-डरते मैं उनके घर पहुंची | रसोई का काम निबटाया, उस दिन तो हाथ धोने भी नहीं गई, रसोईघर में ही हाथ धो लिए | जल्दी से काम करके डर के मारे भागने को ही थी कि बुढ्ढे नौकर ने मुझे कुछ दिया कि उसे पंडित जी के बीच वाले कमरे में पहुंचा दूँ| उससे ज़्यादा चला नहीं जाता | बहुत डर लग रहा था दीदी ---कहने लगा, बहू जी कमरे में हैं, ये दे आ बिटिया | डरती-डरती मैं पंडित के कमरे में पहुँची तो वहाँ कोई लेटा हुआ था | घबराहट के मारे हाथ की चीज़ मेज़ पर रखकर भागने को हुई तो उस लेटे हुए ने मुझे पकड़कर दबोच लिया | वो पंडित ही था | मेरी छाती पर हाथ फिराकर कहने लगा, उस दिन तूने क्या देखा ? बोल लाखी | मेरी तो घिघ्घी बंधी हुई थी मेरे मुँह से आवाज़ ही नहीं निकल रही थी | वो मुझे भींचता चला गया ---" लाखी बोलते-बोलते हाँफने लगी थी भानु ने उसका सिर अपनी गोदी में रखकर उसे सांत्वना दी | वह उसका सिर सहलाने लगी जिससे उसको थोड़ी सांत्वना मिली | 

थोड़ी देर में लाखी ने भानु की गोदी से सिर उठाकर फिर कहना शुरू किया;

"दीदी, उन्होंने मुझे भौत बुरी तरह ---मेरा मतलब है ---मुझे और कुछ तो सूझा नहीं दीदी, मैंने अपने दाँत ज़ोर से उनके हाथ में गड़ा दिए | उनकी पकड़ के ज़रा सा ढीला होते ही मैं कमरा खोलकर भाग खड़ी हुई | उनका बुढ्ढा नौकर जो मेरे सामने चल न पाने का नाटक कर रहा था मेरे पीछे मुझे पकड़ने को भागा | पर मैं --पता नहीं उस समय भगवान ने मुझे कितनी ताकत दे दी थी कि मैं वहाँ से निकलकर तेज़ी से भागती चली गई | सड़क पर आई तो कुछ समझ में ही नहीं आ रहा था | वहीं से बदरी अपनी रिक्शा लेकर जा रहा था | मुझे देखा तो उसे लगा कि मैं तकलीफ़ में हूँ, उसने मुझे रिक्षा में बिठा लिया और रिक्षा दौड़ा दी | उसने मुझसे कुछ भी नहीं पूछा दीदी ---" 

"उसके बाद उससे मिलने लगी तू ---" भानु को एक फिल्म की कहानी की तरह सारा चित्रण लग रहा था | पर, उसकी खुद की कहानी क्या कम फ़िल्मी थी | जीवन के सभी फ़िल्मी किरदार वास्तविक जीवन में से ही तो निकलते हैं | भानु ने सोचा | 

"उसके बाद वो मुझे एक लारी पर ले गया और मुँह धोने के लिए पानी दिलवाया, ठंडी लस्सी पिलवाई और घर तक छोड़कर आया | "

"हाँ, पर तेरे माँ-बाप ने कुछ नहीं कहा ?" 

"हाँ, दीदी, कैसे न कहते ?उन्होंने उसे देख लिया था जब मुझे छोड़ने गया था वो ! ऎसी मार पड़ी कि आज तक उसे याद करती हूँ तो रौंगटे खड़े हो जाते हैं | एक बात का इतना अफ़सोस हुआ ---" वह चुप हो गई | 

"किस बात का लाखी ?" 

"किस बात का ?" 

"यही कि माँ ने कहा कि पंडित तुझे खा थोड़े ही जाता ? और ---औरत जात तो होती ही इसके लिए है | सच्ची दीदी ! मुझे माँ पर इतना गुस्सा आया कि उसका मुँह नोंच लूँ ---आप होतीं तो --" 

"मैं होती तो क्या कर लेती " भानुमति ने दुःख से पूछा | 

"आप क्या कर लेतीं ? आपको खुद नहीं पता ?आप कुछ न कुछ तो कर ही लेतीं |"

पता नहीं कितना विश्वास था सबको भानुमति पर | कैसा मज़ाक बन चुकी थी ज़िंदगी उसकी ! जिस भानु ने कभी किसी और के लिए भी कोई अनुचित काम नहीं होने दिया हो, वही अपने लिए बिलकुल मौन थी | 

उसे याद आया एक बार यही पंडित सदाचारी उनके घर कुछ अनुष्ठान आदि के सिलसिले में आए थे | बाबा तैयार हो रहे थे, माँ रसोईघर में महाराज के साथ प्रसाद बनवा रही थीं | उन्होंने उसे पंडित जी के पास भेज दिया था कि उन्हें कोई ज़रुरत हो उसे बता दें और वे अकेलापन भी महसूस न करें | 

पंडित सदाचारी उसके सिर पर हाथ फिराते फिराते ---इतनी छोटी भी नहीं थी वह कि स्पर्श न समझ पाती | होगी पंद्रह एक वर्ष की | पंडित जी सर पर हाथ फिरते हुए जैसे ही उसकी कमर तक पहुँचे बाबा तैयार होकर पहुँच गए | पंडित जी खिसिया गए ;    

"बड़ी प्यारी बिटिया है !"

बाबा को बड़ा अच्छा लगा, वे प्रसन्नता और संतुष्टि से मुस्कुरा उठे | 

"प्यारी तो हूँ पंडित जी पर जब बिटिया माँ के बराबर कद की हो जाती है तब उसके शरीर पर हाथ फेरकर प्यार करने की इजाज़त आपका शास्त्र तो नहीं देता है |" और वहां से उठ खड़ी हुई | 

पंडित जी बहुत बौखला गए थे, बाबा बहुत नाराज़ हुए, माँ शुभ-अशुभ मनाने लगीं परन्तु वह टस से मस तक न हुई | उसके वोइवाह तक पंडित जी घर में आते रहे पर वह उन्हें प्रणाम करने नीचे तक नहीं उतरती थी | उसका सदा यही कहना था ;

'प्रणाम के योग्य लोगों को ही आदर देना उचित होता है | "