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विविधा - 38

38-बच्चे और अपराध की दुनिया

 यदि आंकड़े प्रमाण है तो पिछले दो तीन दशकों में बाल अपराधियों और युवा बर्ग में हिंसा और अपराध करने की प्रवृत्ति में बहुत वृद्धि हुई है। 16 वर्प से कम आयु के लगभग 1500 बच्चे जेल में बंद है। बड़े शहरो में युवाओं द्वारा किए जाने वाले अपराधों में निरंतर वृद्धि हो रही है।

 इन अपराधियों में अपराधिक प्रवृत्ति का विकास होने का एक प्रमुख कारण हमारी दूपित शिक्षा पद्धति है। दस जमा दो हो या इससे पूर्व की पद्धति, सभी में अपराधों की रोकथाम या शिक्षार्थी को अपराधों की ओर जाने से रोकने का कोई प्रावधान नहीं है। बढ़ती बेरोजगारी, अनिश्चित भविप्य और शिक्षा की अर्थहीनता स्पप्ट हो जाने पर बालक, किशोर, युवा अपराधों की दुनिया में किस्मत आजमाते है। शुरु की सफलताएं उन्हें और आगे जाने की ओर प्रवृत्त करती है।

समाजशास्त्रियों का मत है कि कानून का उल्लंघन करने वाले बच्चों के अन्दर अपराध के बीज प्रारंभिक वर्पो में स्कूलों में या कालेजों में पड़ जाते है और समय पाकर विकसित होते रहते हैं। 

 लगभग हर अपराधी किसी न किसी मारक परिस्थिति का शिकार होता है। चोरी, चकारी, उठाईगिरी या ऐसे मामूली अपराधों का मूल कारण गरीबी, अशिक्षा और पेट की भूख है। 

 बच्चे चाहे सरकारी स्कूल में हो या पब्लिक स्कूल में या महंगे बोर्डिंग स्कूलों में, अध्यापकों, अभिभावकों की मानसिकता लगभग एक जैसी होती है। यदि किसी कक्षा में 2 छात्र लड़ पड़े तो अध्यापक दोनों छात्रों को डांट फटकार कर भगा देंगे। पैंसिल, पेन, कापी, किताब आदि की चोरियां मामूली बात है, जो हमारी शिक्षा पद्धति के कारण बढ़ती ही चली जा रही है। 

 पिछले कुछ वर्पो में स्कूलों में फिजिकल पनिशमेंट का स्थान डाट, फटकार, धमकी और आर्थिक दण्ड ने ले लिया है, जो छात्रों के कोमल मन को लम्बे समय तक प्रभावित कर उसे अपराधी जीवन की ओर ले जाते है। 

 स्वच्छंद व्यवहार, बढ़ती आर्थिक खाई और बदलते सामाजिक मूल्यों तथा राजनीतिक जागरुकता ने छात्रों व अध्यापकों के बीच की खाई को बहुत बढ़ा दिया है। पाश्चात्य सभ्यता की अंधी नकल, सिनेमा, टी.वी. का प्रसार और डग लेने की प्रवृति भी छात्रों में बढ़ी है। एक स्कूली छात्र ने बताया कि टी.वी. पर लगातार दिखाए जाने वाले धारावाहिकों से उसने डग लेने की सीख पाई। कैसे बचेगी किशोरों की दुनिया। 

 मनोवैज्ञानिकों का विश्वास है कि बालक और किशोर अपने आस पास, घर, स्कूल, आदि के वातावरण से ही सीखता है। बालक का मस्तिप्क अपरिपक्व होने के कारण वह स्वयं अच्छे और बुरे कार्यों में अंतर नहीं समझ पाता। ऐसी स्थिति में गलत रास्तों की ओर बढ़ता है और अपराधों की दुनिया में प्रवेश पा जाता है। 

 वास्तव में 5 से 15 वर्प की आयु के बच्चे के मानसिक विकास की आयु है। वह हर नई वस्तु की और जिज्ञासा से देखता है। ऐसी जिज्ञासाओं की पूर्ति के लिए वह अध्यापक या माता-पिता की ओर देखता है। अध्यापक उपलब्ध नहीं होते, माता-पिता व्यस्त रहते हैं। फलस्वरुप बालक कुंठित हो जाता है और बड़े घर के बच्चों को तो अपने माता-पिता के दर्शन भी हफ्ते में एक बार ही हो पाते है। 

 वस्तुतः जिस सामाजिक परिवेश, देश, काल व परिस्थितियों से हम गुजरते हैं, उनका हमारे बच्चों के दिमाग पर असर होता है और बाल मन पर होने वाले इस असर के लिए अध्यापक और शिक्षा पद्धति जिम्मेदार हैं। शिक्षा पद्धति का विकास करते समय हमें बाल मनोविज्ञान और अपराधों की दुनिया से बच्चों को दूर रखने की कोशिश का भी ध्यान रखना चाहिए। 

 शिक्षा पद्धति बच्चों को किताबी ज्ञान के साथ साथ नैतिक ज्ञान तथा सामयिक दिशा निर्देश भी दे, तभी बाल अपराधों में कमी होगी और देश को अच्छे नागरिक मिल सकेंगे। 

 लेकिन हमारी शिक्षा पद्धति कुछ इस प्रकार की है कि छात्र अध्यापक सम्पर्क बहुत कम होता है। कालेजों में तो यह सम्पर्क नाम मात्र का ही होता है, लेकिन स्कूलों में छात्रों को अध्यापकों के अधिक सम्पर्क में लाए जाने की कोशिश की जा सकती है, ताकि छात्र अध्यापक से कोर्स के अलावा भी बहुत कुछ सीख सकें। 

 यदि बच्चों को शुरु से ही बाल अपराधों तथा उनके परिणामों से अवगत किया जा सके तो बालक व किशोर स्वयं इन अपराधों से दूर रहने की कोशिश करेंगें। 

 

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