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मित्रों !
सस्नेह नमस्कार !
हम सब जानते और मानते हैं कि जीवन चंद दिनों का फिर भी ऐसे जीते हैं जैसे हम अमर हैं | सच्ची बात तो यह है कि हम अमर हो सकते हैं लेकिन शरीर से तो नहीं ---हाँ, अपने व्यवहार से, प्यार से, स्नेह से, सरोकार से ! और कुछ है ही कहाँ इंसान के बस में |
कई लोगों को देखकर दुख होता है, जो पास में है उसे जीने के स्थान पर जब हम उसकी याद में घुले जाते हैं जो पास नहीं है अथवा जिसके पास होने का केवल स्वप्न भर है तो सच मन कुंठित हो उठता है |
प्रेम केवल प्रेम ही ऐसी कुंजी है जिससे जीवन की कठिनाइयों के मार्ग के द्वार खुल सकते हैं | वरना रहें परेशान ! कर लें ईर्ष्या, भर लें जलन मन में, कुछ होने वाला नहीं |हम एक अविकसित मस्तिष्क के पंगु बनकर ही रह जाएँगे | बहुमूल्य जीवन को केवल ऐसे ही कैसे गुज़ार सकते हैं ?
जीवन जीने के सरल, सहज तरीके हमें अपने बुज़ुर्गों के अनुभव से मिलते हैं बशर्ते हम उनकी बात सुनें तो सही | हमारे पास तो न उनकी बात सुनने का समय है और न ही सलीका, शिष्टाचार और विवेक !
ये शब्द किसी के ऊपर प्रहार नहीं हैं | ये सोचने के लिए किछ बिन्दु हैं जिन्हें हम अपनी भावी पीढ़ियों को सौंपने के लिए पहले ख़ुद को तैयार करें तब कहीं हम उन्हें गुण सकेंगे, पका सकेंगे जैसे एक कुम्हार मिट्टी के बर्तन को चाक पर घुमा घुमाकर उसकी सुंदर आकृति तैयार करता है फिर उसे आग में पकाकर उसे पक्का करता है फिर अपने ग्राहक को देता है है | इसी प्रकार हम अपने मन में सुंदर विचारों की आकृति बनाकर उन्हें चिंतन की भट्टी में पकाकर अपनी भावी पीढ़ी को भेंट करते हैं | अन्यथा हम चाहे हम कितने ही ढिंढोरे क्यों न पीट लें, हम थोथा चना, बाजे घना ही रहेंगे |
मनुष्य पहनने, ओढ़ने के तरीके से मॉडर्न नहीं होता, अपने विचारों से मॉडर्न होता है | लेकिन यह बात सोचने, समझने की है | बिना विचारों की परिपक्वता से मनुष्य न तो सफल हो पाता है और न ही आनंद प्राप्ति कर सकता है |
सच्ची सफ़लता और आनंद का सबसे बड़ा रहस्य यह है कि मनुष्य अपने किए हुए के बदले में किसीसे कुछ नहीं माँगता | वह केवल ईमानदारी से सबमें प्रेम बाँ टते हुए अपने मार्ग पर चलता रहता है | जीवन में प्रेम सहजता, सरलता से प्रवेश कर जाता है और सबमें बिना किसी भेद-भाव के बाँटता है |
ढाई अक्षर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय !!
बस, इस उपरोक्त स्लोगन को अपना लें तो अपना जीवन आनंद से भर उठे |
सस्नेह
आपकी मित्र
डॉ प्रणव भारती