ढाला :
ढाला शब्द शायद बहुत से लोगों को समझ न आए और खासकर आज की नई पीढी इस प्रकार के शब्दों से परिचित न हो। ढाला कहा जाता था रेलवे फाटक को। अक्सर जब कोई ट्रैन काढ़ागोला की मुख्य गंगा दार्जीलिंग मार्ग को क्रॉस करती हुई गुजरती थी तो इस ढाला के दोनों फाटक बंद होते थे ताकि किसी प्रकार की कोई दुर्घटना ना हो। लेकिन ये ढालाअपने अंदर बहुत सी घटना और दुर्घटनाओं को समेटे हुए थी। सड़क के ऊंचाई पर बने इस ढाला को पार किये बिना आप काढ़ागोला के किसी भी दिशा का भ्रमण नहीं कर सक्ते।
ये वही ढाला है जहाँ रात के अँधेरे में कभी व्यापारियों को बदमाशों द्वारा लूट लिया जाता था तो दिन के उजाले में तेज गति से आने वाले वाहन यदा कदा साईकिल या रिक्शा से टकरा जाते थे। एक मशहूर डाक्टर इसी ढाले के पास चलती ट्रैन में घसीटते हुए परलोक सिधार गए जब रेलवे स्टेशन में ट्रैन पर चढ़ने के बाद उनका संतुलन बिगड़ गया था। हाई स्कूल से लौटते वक्त एक दोपहर में अवध असम एक्सप्रेस से एक व्यक्ति हमारी आँखों के सामने ही ट्रैन से गिर पड़ा , गनीमत है की उसकी जान बचाई जा सकी। ढाला पर खड़े होकर ट्रैन के गुजरने का इंतजार भी बड़ा रोचक होता था , परन्तु कभी दोनों और से ट्रैन आने के कारन इंतजार लम्बा होता था जो मन को क्षुब्ध भी कर देता था। अक्सर ढाला पर खड़े लोग एक दूसरे से वार्तालाप में मगन हो जाते थे। बच्चों के लिए साईकिल लेकर ढाला पर चढ़ना और फिर तीव्र गति में उतरना किसी पर्वतारोहण से कम रोचक नहीं था। हमारे एक मित्र की किस्मत ऐसी थी कि अक्सर ढाला से गुजरते हुए उसे सड़क पर पैसे पड़े मिल जाते थे , जो बाद में हमें 10 पैसे की बर्फ , 10 पैसे की 10 छोटी कैंडी या लाल धारी वाली दो बड़ी कैंडी अथवा 25 पैसे की झालमुढी खाने के काम आती थी। हम बाजार में रहनेवाले लड़के स्कूल जाते समय अक्सर बाजार से निकलकर मालगोदाम से रेलवे पटरी पर चढ़ जाते थे और ट्रैक के साथ ही ढाला तक जाते थे । वहां से बाएं मुड़कर स्कूल की और रवाना होते थे। इस क्रम में रौनिया , सिवाना तथा काढ़ागोला घाट से आनेवाले हमारे मित्र अक्सर ढाला पर ही मिल जाया करते थे। वस्तुतः ढाला हमारे लिए मीटिंग पॉइंट का काम करता था तो वापसी में इसी ढाला तक साथ आकर हम सब मित्र अपने दिशा की ओर चल देते थे।
हमारे समय में ये ढाला गरीब हुआ करता था इसलिए इसे ज्यादातर साईकिल रिक्शा या पैदल लोगों के ही दर्शन होते थे । बाइक कम लोगों के पास थी और कार तो बहुत ही कम । हाँ केले की खेती के समय इस ढाले को अच्छी संख्या में ट्रक के दर्शन होते थे वर्ना बड़ी गाड़ियों के नाम पर दो चार बसें थी और पिक्कू भैया के ट्रक जो अक्सर इस ढाला से गुजरा करते थे। मंगत सिंह जी की टाटा 407 भी थी जो अक्सर इस ढाले को चूमती हुई निकलती थी। बाहर से आने वाले बारातियों का स्वागत ये ढाला बड़े शान से करता था । एक ओर तो ये सीधे काढ़ागोला हाट होते हुए भैंसदीरा आदि पार करके फुलवरिया होते हुए राष्ट्रिय राजमार्ग को जाता था तो दूसरी ओर सीधे गंगा मैया की गोद में। कुल मिलाकर इस ढाला ने एक लम्बे अरसे से काढ़ागोला के लोगों की सेवा की तथा उनको सुरक्षा भी प्रदान किया है।
हमारे समय में काढ़ागोला को रूढ़िवादी विचारधारा का समय कहना अतिशयोक्ति न होगी। पांचवी कक्षा के बाद सह शिक्षा की व्यवस्था नहीं थी इसलिए लड़के और लड़कियों के स्कूल अलग हुआ करते थे । आज के हिसाब से देखें तो ये बड़ी ज्यादिति थी हमारे समय के युवाओं के लिए । लड़के लड़की पब्लिक प्लेस में एक दूसरे से बात भी नहीं कर सकते थे । छेड़ना तो बहुत दूर की बात थी अगर आपने किसी लड़की को रस्ते में टोक भी दिया तो बात खून खराबे तक पहुँच जाती थी। समाज इतना मिलनसार था की लगभग सब लोग एक दूसरे को जानते थे इसलिए युवा पीढ़ी भी कोई रिस्क लेना नहीं चाहती थी। इज्जत की खातिर मरना और मारना काढ़ागोला की प्रथा रही है। तो क्या आप ये सोच रहें है की हमारे समय में युवाओं के पास भावना नहीं थी । कदापि ऐसा कहना गलत होगा। भावनाएं तो थी मगर उसे व्यक्त नहीं कर सकते थे । फेसबुक तो थी नहीं हाँ राह चलते अगर फेस दिख गया तो वहीँ हमारा फेसबुक खुल जाता था। अगर नहीं दिखा तो नेटवर्क डाउन था। ढाला एक ऐसी जगह थी जहाँ उस समय के फेसबुक का नेटवर्क बड़ा तगड़ा रहता था। आज के फेसबुक में उस समय के फेसबुक जैसी गहराई नहीं है और न ही भावनाओं का वो समंदर है। सेल्फी के लिए हमारी आँखें ही काफी थी। उतनी एच डी क़्वालिटी तो आज की मोबाइल कैमरा भी नहीं देती। ढाला उन बातों का गवाह है , मगर वो हमेशा खामोश रहता था। दुःख इस बात का है की कभी वो हमारी भावनाओं को सामने वाले तक नहीं पहुंचा पाया। हमारे दिल की पीड़ा को समझ नहीं पाया। लेकिन शायद ढाला इसके परिणाम जनता था , इसलिए उसने सदा के लिए अपने मुख पर चुप्पी साध ली। सामाजिक सौहार्द बिगड़ने से बेहतर उसने युवाओं को ही दगा देना ठीक समझा। आज पीछे मुड़कर सोचता हूँ तो लगता है की ये ढाला कितना समझदार था। काश की इंसान भी सामाजिक सौहार्द बनाये रखने में इस ढाला जैसा समझदार बन पाए।
उस पार में स्थित मुन्ना भगत भइया द्वारा संचालित काढ़ागोला के प्रथम सिनेमा हॉल में मूवी देखकर देर रात लौटते ये ढाला सुनसान अवं डरावना सा दिखाई पड़ता था। कई लोगों ने तो रात में अघौड़ देखने का भी दावा किया। कुछ एक बार इसी ढाले के पास ट्रैन से कटी लाश भी दिखी तो कई बार हत्या कर छोड़ी गयी मृत शरीर। ढाला सबकुछ देखता रहा सुनता रहा मगर कभी प्रतिक्रिया नहीं दे पाया। कई बार सोचता हूँ की अच्छा ही है की ये ढाला इंसान से बातें नहीं कर सकता। और अगर ऐसा हो पता तो निश्चय ये कहता की अच्छा ही है की मैं इंसान नहीं हूँ। जिस प्रकार इंसानों में इंसानियत का हनन होता जा रहा है ये अत्यंत दुखद है। इंसान में इतना फर्क क्यों है? आमिर गरीब, बड़ा छोटा, ऊंच नीच, जात पात, छुवा छूत क्या इन सब बातों ने इंसान को स्वार्थी, अहंकारी एवं हेय दृष्टक नहीं बना दिया? यूँ तो काढ़ागोला में इन बातों का विशेष स्थान कभी नहीं रहा और ये बात ढाला भी अच्छी तरह जानता है, मगर समय के साथ इंसानियत ने काढ़ागोला में जाती, धर्म और राजनीती का मुखौटा पहन लिया। नीटू भैय्या, गिरधारी भैय्या, अनिल भैय्या, प्रेम भैय्या, दिलशाद भैय्या, राजू एवं संजू भैय्या बाजार में मिलने पर कभी भी हमें खाने पीने का बिल चुकाने नहीं देते थे। कभी कोई शिक्षक बाजार में मिल जाये तो प्रणाम करते हम उनके चरणों में लोट ही पड़ते थे। मैंने अपने समय में पूरे बरारी प्रखंड में कभी किसी को भूख से तड़पते नहीं देखा। सहायता करने वाले हाथ सदा यहाँ खुले रहते थे। किसी की मृत्यु पर तो ऐसा लगता था की पूरा बाजार ही काढ़ागोला घाट तक शव दहन हेतु पैदल चल पड़ता था। डॉक्टर गुप्ता की क्लिनिक मेरे घर के पास हो थी, कितने ही गरीब व्यक्तियों का उन्होंने अपने क्लिनिक में निःशुल्क इलाज किया तो हमारे समय के एकमात्र मिलन होटल भी कई गरीबों को मुफ्त खाना दे दिया करते थे। स्व सुनील चौधरी भैय्या वीसीआर और कैसेट लाकर देर रात तक हमें मूवीज दिखते थे। संतराम सिंह मुखिया जी का द्वार हमेश जरूरतमंदों के लिए खुला रहता था।
लेकिन आधुनिक डिजिटल काढ़ागोला में इन बातों के लिए समय न रहा। बाजार, खेल, सिनेमा हॉल एवं रेलवे प्लेटफार्म की मुलाकातें अब सोशल मीडिया पर होने लगी है। बच्चे और तरुण भी व्हाट्सप्प एवं फेसबुक यूनिवर्सिटी से पढ़कर अब बड़े धर्मरक्षक एवं असहिष्णु होते चले गए। लोगों का असीमित दायरा अब सिमटता गया। बेरोजगार लोग भी अब अत्यंत व्यस्त रहते है। कुछ नहीं तो समाज में लोगों को भड़काने और कड़वाहट के बीज बोने का काम तो मिल ही जाता है। ऐसे हालत को देखकर ढाला बहुत दुखी हो चला था। अब ट्रैन का इंतजार करते लोग गाड़ी के अंदर या बाइक पर सिमित रहते है। बगल में खड़ा व्यक्ति भी ऐसा लगता है की हजारों मील दूर है। इन सब बातों से हमारा प्यारा ढाला घबरा गया। उसे समझ नहीं आ रहा था की जब मैं इतने सालों में नहीं बदला तो इंसान क्यों बदल गए? बेचारा ढाला इंसान की फिदरत नहीं जनता। इंसान तो अब इंसान रहा ही नहीं। वो तो कब का हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, बौद्ध, जैन आदि में बाँट चुका है। बदलाव के नाम पर काढ़ागोला अब विघटित होने लगा था। पूंजीपतियों ने बाहर का रुख कर लिया। पैसेंजर ट्रैन की जगह अब ढाला की पटरियों पर राजधानी एक्सप्रेस दौड़ने लगी थी। जिंदगी ने शायद अब रफ़्तार पकड़ ली थी। जिंदगी की इस रफ़्तार में मानवता पीछे छूटती जा रही थी। शायद कपट की गति निश्छल प्रेम से कहीं अधिक थी। अहंकार तो अब एक आभूषण हो चला था। जिंदगी की रफ़्तार में अब लोगों ने ढाला को भी नजरअंदाज करना शुरू कर दिया था। पैदल, साईकिल यहाँ तक की रिक्शा भी अब ढाला गिरने के बावजूद भी उसके नीचे या अगल बगल से रास्ता बनाकर निकलने लगे। ढाला की चेतावनी और सुरक्षा को लोगों ने ताक पर रखना शुरू कर दिया था। ढाला देखता रहा की अब लोगों के पास समय नहीं है। किसी भी रिश्ते को मजबूत बनाने के लिए समय बिताना बहुत जरुरी है। दूर से देखकर कुछ भी कयास लगाया जा सकता है, मगर स्पस्ट अवलोकन हेतु पास जाना आवश्यक होता है। बदलती पीढ़ी को शायद ये मंजूर नहीं था। जिन रिश्तों को मजबूत करने में ढाला ने अपना महत्वपूर्ण समय बिताया था अब वे तार तार हो चले थे।
तकनीकी युग में बरारी हाट इतना दूर लगने लगा की अब वहां पैदल नहीं जाया जा सकता। विडिओ गेम ने कबड्डी, बुढ़िया कबड्डी, छूर, डेंगा पानी, हाथपकड़वा, कितकित, आदि व्यावहारिक खेलों को पीछे छोड़ दिया था। ये तो अच्छा था की हमारे समय में बर्गर, पिज़्ज़ा, मोमोस, चाउमीन जैसे वायरस हमारे खाने की गुणवत्ता को काम नहीं कर पाए थे। समोसा चाय, सेव बुनिया, झालमुड़ी, कचरी पकोड़े, लिट्टी चोखा तथा काढ़ागोला की स्वादिस्ट मिठाइयों ने इन विदेशी डेलीकेसिस को लम्बे समय तक रोक रखा था। काढ़ागोला के परिवेश का करवट लेना शायद ढाला को अनुचित लग रहा था। इंसान में मरती इंसानियत ढाला से देखा नहीं गया। ढाला अंदर से लगभग टूट ही चूका था। उसे लगा ये परिवर्तन अब वो झेल नहीं पायेगा। कहीं ये दर्द उसका अंत ही न कर दे। उससे अब और देखा नहीं गया। बड़ी पीड़ा के साथ उसने स्टेशन प्रबंधक से विनती की कि उसका स्थानांतरण कर दिया जाये। शायद नई जगह उसे एक नया समाज मिल जाये। सुना है अब वो ढाला वहां नहीं है। अब लोगों को घूमकर जाना पड़ता है। काश हम ढाला कि कहानी समझ पाते, तो शायद न हम बदलते और न ही ढाला। काढ़ागोला कि पुरानी पीढ़ी को नमन और नई पीढ़ी को प्यार और सबक!