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विविधा - 31

31-भारत के प्राचीन खेल

 भारतीय सभ्यता और संस्कृति ने हमेशा से ही व्यायाम, खेलकूद, कसरत आदि को पूरा महत्व दिया है। शरीर को स्वस्थ रखने के लिए आयुर्वेद में व्याम तथा खेलों के अलावा योगाभ्यास पर भी बल दिया गया है। वास्तव में प्राचीन भारत में कई ऐसे खेल प्रचलित थे, जिनसे मानव का बौद्धिक एवं शारीरिक विकास होता था। लेकिन देखते देखते हमारे ये खेल पश्चिम की चकाचौंध में नप्ट हो गये। 

 व्दों, उपनिपदों तथा पुराणों में इन खेलों का विशद वर्णन किया गया है। राजप्रासादों में राजकुमार तथा गुरुकुलों में सामान्य बालक इन खेलों से अपने शरीर का विकास करता था। 

 कोटिल्य के अर्थ शास्त्र में व्यायाम, कुश्ती, जलविहार, तेराकी, शस्त्र प्रतियोगिता आदि का विस्तृत वर्णन किया गया है। काम सूत्र की 64 कलाओं में भी विभिन्न प्रकार की कलाओं का वर्णन करते समय खेलों का वर्णन किया गया है। 

 प्रत्येक राजा के राज्य में रहने वाले नागरिक अपने आमोद- प्रमोद तथा मनोरंजन के लिए इन खेलों में भाग लेते थे या फिर दर्शक के रुप में जाते थे। राजा की ओर से उत्सव की सूचना डोंडी या शंख बजाकर दी जाती थी। प्रत्येक नागरिक दोपहर से पहले अपना व्यवसाय करता था। दोपहर के बाद मनोविनोद करता था। दिल बहलाव के लिए नागरिक पक्षियों से खेलता था। सायंकाल नागरिक वाटिका, उद्यान में भ्रमण हेतु जाता था। झूले झूलता था या जल क्रीड़ा करता था। सायंकाल से रात्रि तक नृत्य, थियेटर, बाघों से अपना मनोरंजन करता था। इस नित्य कर्म के अलावा नागरिक लम्बी यात्राओं पर जाता था। मलों उत्सवों में भाग लेता था। कुछ नागरिक वन विहार हेतु घोड़े पर सवार होकर निकल जाते थे। वे बाग में मुर्गे की लड़ाई, जुआ या नाच गाने का कार्यक्रम देखते थे। सच पूछा जाये तो हमारी खेल परम्परा बहुत ही समृद्ध रही है। आइये कुछ प्राचीन भारतीय खेलों की जानकारी करे। 

गदा-प्रदर्शन

 गदा का निर्माण पत्थरों को काट छांटकर या लोहे सीमेंट से किया जाता था। जब गोलाकार स्वरुप तैयार ही जाता है, तब बीच में एक डेढ़ मीटर लम्बी लाठी गाड दी जाती है। इस लाठी को पकड़कर गदा भांजी जाती है। इस गदा का वनज 50 से 70 किलो तक होता है। जो ज्यादा वनज की गदा भांज लेता है अर्थात् घुमा लेता है वही विजयी घोपित किया जाता हे। गदाओं की प्रतियोगिताएं बनारस में अब भी होती है। बनारस के पहलवान विप्णुराम यादव ने 1938 में 90 किलों की गदा भाजी थी जो आज भी एक रिर्काउ है। लेकिन गदा से पहलवानों ने अपना ध्यान जोड़ी की ओर लगा दिया।

जोड़ी 

 गदा और जोड़ी में बहुत ज्यादा फर्क नहीं है, दोनों ही बाजुओं की ताकत के विकास के लिए है। जोड़ी में दो बराबर वनज के खम्बो को हाथों में उठाकर घुमाया जाता है। जोड़ियों का वनज अलग अलग होता है। इनके आकार प्रकार में भी भेद होता है। मूठिये तथा खम्भे का आकार प्रकार अलग अलग होता है। इन्हें लकड़ी का भी बनाया जाता है। जोड़ी के क्षेत्र में बनारस के भरतसिंह का नाम                                                     प्रसिद्ध रहा हे। इन्होंने एक जोड़ी को 30 बार फिरा दिया था।बनारस के ही कन्नू महाराज भी इस क्षेत्र में अग्रणी रहे हैं। 

नाल

 गदा-जोड़ी की तरह ही नाल भी एक प्राचीन ताकत का प्रर्दशन करने वाला खेल है। नाल भारी पत्थर या लोहे का बनाया जाता है। इसे हाथों में उठाकर साधा जाता है तथा सिर के उपर घ माया जाता है। बड़ी साधना और तोत की आवश्यकता पड़ती है। नाल भी दो प्रकार की होती है। 1. सामान्य 2. गरना। हाथों में उठाकर फिराने वाली सामान्य नाल होती है तथा गरनाल को गर्दन में डालकर घुमाने से गरदन मजबूत होती है। गामा पहलवान से व्यायाम करते थे। 

मलखंभ

 मलखंभ जमीन में गड़ा हुआ एक खंभा होता है, जिससे लिपट कर, उलट कर, चढ़कर, उतरकर, संतुलन बना कर पहलवान अपना रियाज कर सकता है। पहलवान अखाड़े में बदन तोड़ने की बजाय मलखंभ से भी बदन की वर्जिश कर सकता है। मलखंभ भी 2 प्रकार के होते हैं। 1. सामान्य मलखंभ 2. बेंत मलखंभ। 

 ये उपकरण यथा गदा, जोड़ी, नाल तथा मलखंभ कुश्ती तथा व्यायामक े बहुत ही महत्वपूर्ण साधन है। बनारस, मथुरा, नाथद्वारा, भरतपुर, बिहार आदि स्थानों में पहलवान इनसे कसरत करते थे, और इनका प्रदर्शन भी किया जाता था इन खेलों को प्रोत्साहन की आवश्यकता है। 

 प्राचीन खेलों की परम्परा में कुछ और भी महत्वपूर्ण खेल है-

शतरंज

 पहले इसे ‘चतुरंग’ के नाम से खेला जाता था। सर विलियम जोन्स के अनुसार भारतीयों को यह खेल काफी समय से ज्ञात था। फिरदोसी के अनुसार शतरंज का जन्म भारत में हुआ तथा बाद में फारस पहुंचा और वहां से अरब देशों में गया और फिर योरेप पहुंचा। इस खेल से मानसिक तथा बौद्धिक व्यायाम होता है तथा यह युद्ध के चक्रव्यूह का निर्माण करता है। 

गंजीका 

 यह मध्ययुगीन खेल है। इस खेल में ताश की तरह 108 पत्ते होते थे। जो गोल होते थे। बाद में चोकोर गंजीफे बने। इनमें देवताओं, दशावतारों, शिकार, पंशुपक्षियों आदि के चित्र होते थे। 

दसखाना

 इस खेल में 2 व्क्ति मिलकर खेलते थे। यह 20 से.मी. चौड़े तथा 60 से.मी. लम्बे कपड़े के टुकडे़ पर खेला जाता था। इस कपड़े पर कसीदाकारी की जाती थी। 2पंक्तियों में दस खाने होते थे। ये बीस खाने गांव कहलाते थे। हर खाने पर दस कोड़िया होती थी। एक बड़ी कोड़ी को कोड़ा या गदहा कहा जाता था। हार जीत का फैसला इन्हीं गांवों से होता था। 

इसके अलावा चौपड़, पासा, अंगबंग आदि भी प्रसिद्ध खेल थे। 

बाहम् खेलों की भी एक विकसित और लम्बी परम्परा थी। अस्त्र शस्त्रों से संबंधित खेलों का बड़ा महत्व था। धनुप विधा इसी प्रकार का एक प्राचीन खेल हे। धनुप विधा में जीतने वाला बहुत सम्मानित व्यक्ति माना जाता था। आज भी यह खेल जारी है। इसी प्रकार तलवारबाजी, पट्टेबाजी का खेल भी खेला जाता था। प्राचीन काल से लगाकर हाल तक तलवार बाजी का खेल प्रसिद्ध था। सेना में भी इस खेल का प्रचलन था। भले, लाठी आदि का खेल भी शौर्य से परिपूर्ण था। लाठी चलाने में दक्ष हो जाना बड़ी बात मानी जाती थी। देहाती समाज में आज भी लाठी चलाना एक महत्वपूर्ण खेल है जो स्वयं की रक्षा भी करता है। अस्त्र शस्त्र के खेलों के अलावा प्राचीन समय में प्शु पक्षियों से संबंधित खेलों का भी काफी प्रचलन था। कबूतरबाजी, तीतरबाजी, बटेरबाजी, मुर्गे लड़ना आदि खेलों का मुगल काल में काफी विकास हुआ। महिलाएं भी इस लड़ाई का आनन्द लेती थीं। मुर्गो की लड़ाई का वर्णन कई जगहों पर मिलता है। नवाबों के काल में यह मनोरंजन का एक आम साधन था। मुर्गे उछल उछलकर एक दूसरे पर वार करते थे। अक्सर मकजोर मुर्गा भाग जाता था और जीतने वाले मुर्गे के मालिक को सम्मान और ईनाम मिलता था। 

पक्षियों की तरह ही प्शुओं से संबंधित खेल भी खेले जाते थे। हाथियों की लड़ाई, भैसों, बकरों, सांड़ों, उटों की लड़ाई भी काफी प्रसिद्ध थी। नाथद्वारा में साण्डों की लड़ाई होती थी। वहां अभी भी दीपावली के दूसरे दिन गायों को खिलाया जाता है, जिसे खैंखरा कहा जाता है। गायों के अलावा उॅंट दौड़, हाथी पोलो, तथा घुड़ दौछ़ भी प्राचीन प्शु खेल है। पोलो तथा घुड़दौछ़ तो आज भी बहुत ज्यादा लोकप्रिय है। इसी प्रकार बैलगाड़ी की दौड़ भी काफी प्रसिद्ध खेल था। घुड़दौड़ के अलावा अन्य जानवरों की दौड़ों का इंतजाम भी नागरिकों के मनोरंजन के लिए किया जाता था। रथदौड़ भी एक लोकप्रिय खेल था। 

सामान्य खेलों के रुप में मल्लयुद्ध, कुश्ती का प्रदर्शन अक्सर होता रहता था। आज भी कुश्ती एक बेहद लोकप्रिय खेल है। वेदों, महाभारत, रामायण आदि में पहलवानों के मल्लयुद्धों का वर्णन है। भीम-दुर्योधन का युद्ध, बाली-सुग्रीव का युद्ध मल्लयुद्ध ही था। कुश्ती के क्षेत्र में भारतीय पहलवानों ने बहुत नाम कमाया है। गामा, इमामबक्ष, दारासिंह जैसे पहलवानों के साथ साथ ताराबाई तथा हमीदा बानू जैसी स्त्री पहलवान भी हुई है। 

कुश्ती के अलावा कब्बड़ी, गुल्ली डंड़ा, जैसे खेल भी बेहद लोकप्रिय थे। गुल्ली डंडा तो क्रिकेट का पूर्वरुप ही है। इन शारीरिक खेलों के साथ साथ प्राचीन काल में जल क्रीडा़ का भी प्रबन्ध रहता था। तैराकी तथा नौका प्रतियोगिताएं होती थी। महिलाएं भी भाग लेती थी। नौका विहार सम्पन्न लोगों का खेल था। लेकिन तैराकी आम आदमी का खेल था। जल क्रीड़ा के अलावा सम्पन्न लोग धूतक्रीड़ा, नृत्य, संगीत, नाटक, डोला आदि भी खेलते थे। पुप्पों का श्रृंगार, मदनोत्सव, कोमुदी महोत्सव, वसन्तोत्सव, सुवसंतक, आदि उत्सवों पर भी खेलों का आयोजन किया जाता था। पतंगबाजी भी एक लोकप्रिय खेल था। 

 कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि हमारी प्राचीन परम्परा में खेलों का बहुत ज्यादा महत्व था तथा इससे हमारे यहां पर बौद्धिक तथा शारीरिक विकास आसानी से होता था। हमें अपनी इस परम्परा को बनाये रखने के प्रयास करने चाहिये, क्या खेलों से जुड़ी संस्थाएं इन प्राचीन खेलों के प्रति अपनी जिम्मेदारी वहन करेगी।

 

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