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विविधा - 26

26-मध्ययुगीन तहजीब का प्रतीक-हुक्का 

 सामन्तवादी विरासत हुक्का अब बीते दिनों की बात रह गयी है। तम्बाकू का रूप बीड़ी, सिगरेट हो गया है, लेकिन हुक्का महज तम्बाकू पीने का उपकरण नहीं था,एक पूरी जिन्दगी होता था हुक्का हजूर। हूक्का तहजीव, परम्परा और संस्कृति का प्रतिक हुआ करता था। एक कहावत प्रसिद्ध है कि सजा देने के लिए हुक्का पानी बन्द। आज भी किसी व्यक्ति की सबसे बड़ी सजा हूक्कापानी बन्द ही है। वास्तव में हुक्के, हुक्कमरानों, राजों, महाराजों, अमीर उमरावों, रंगीन रानियों बादशाहों की बैठकों और जनानी ड्योढ़ियों से जुड़े रहे हैं। लेकिन साहब वो हुक्का ही क्या जो गरीब तक न पहुंचे, गांव की चौपाल हो या झौपड़ी या जमीदार की हवेली, हुक्के ने सब जगह जगह पाई है। राजस्थान, हरियाणा, पंजाब, में आज भी हुक्के की गुड़-गुड़ाहट की आवाज सुनाई देती है। अलवर के पास मेवाती इलाके में आज भी हुक्का प्रचलित है। हुक्का बातचीत का माध्यम है। हुक्का एक नशा या व्यसन नहीं एक शिप्टाचार है, एक परम्परा है। मेवाती जन आपस में हुक्के के इर्द गिर्द बैठ कर ही बातचीत, शादी व्याह व अन्य रस्में पूरी करते है। समाज विज्ञान के अनुसार हुक्का सामूहिक जीवन शैली का अनुपम उदाहरण है। हुक्का तो समाज को जोड़ने का महत्वपूर्ण काम करता है। हुक्का जीवन में भाई चारे, ममत्व का विकास करता है। वह आपसी कटुता को भुलाता है। हुक्के के सहारे चौपाल में बैठ छोटे मोटे झगड़े सुलझ जाते हैं। सजा के तोर पर आज भी हुक्के का पानी पिलाये जाने का रिवाज है। वास्तव में हुक्का तम्बाकू को पीने की कला है, जिसे एक नली के सहारे खींचा जाता है और नीचे पानी भरा रहता है, इस कारण शरीर को कम से कम नुकसान पहुंचता है। वैसे हुक्के से कफ का नाश होता है, दांत-दाढ़ में आराम मिलता है। वादी का दर्द इससे ठीक होता है। नींद आती है, खाना पचता है। अकबर और जहांगीर तक को हुक्का पसन्द था। रानियां भी हुक्का पीती थी। यदि किसी घर से हुक्के की आवाज नहीं आती थी तो लोग समझते थे शायद घर में केवल नारियां ही हैं। हुक्के के बिना महफिलें सूनी रह जाती हैं। हुक्के के प्रमुख हिस्से नेचा, कुफली, मुंहनाल, गट्टा, पेंदा, तवा तथा चिलम है। 

 हुक्का सब की पसन्द होता था। मजदूर हुक्के को पीकर अपनी थकान मिटाता था, तो अमीर अपने ऐशगाह को हुक्के से आबाद करते थे। 

 हुक्के मिट्टी के, सोने, चांदी, लकड़ी हाथी दांत आदि के बनते थे। मुगल काल में हुक्कों पर नक्काशी का काम होता था। चिलम कांच की बनती थी। सुन्दर हुक्के आज भी कई संग्रहालयों और चित्रों में देखे जा सकते हैं। राजा अपनी पसन्द के अनुसार हुक्के और तम्बाकू का प्रयोग करते थे। कई लोग हुक्के की नली अपनी अलग रखते थे। अवध के नवाब नसीरूद्दीन तथा सआदत अली खां को हुक्का बहुत पसन्द था। नवाब वाजिदअली शाह का एक हुक्का बड़ा सुन्दर था। पूरा गुलाबी कांच का। बेगम हजरत महल के चित्रों में वह हुक्का पीती दिखाई गयी है। हुक्के को गरम करने, तैयार करने के लिए राजमहलों में विशेप नौकर चाकर हुआ करते थे। तम्बाकू में खमीरा, अनानास, सेब, लोंग, जाफरान, अंगूर व खुशबू के लिए चन्दन, गुलाब या केवडे़ के इत्र डाले जाते थे। नाजुक हुक्के की नली ओर गुड़गुड़ाहट की आवाज फिर चारों तरफ फैलती खुशबू। 

 हुक्के का आविप्कार हकीम लुकमान ने किया था। फर्शी का पानी फौड़े,फंुसियों, आंख दुखने पर, हाथ पैरों में पसीना आने पर उपयोगी माना गया है। 

 पुराने मेलों में हुक्के लेकर साकिनें बाजारों में घूमती थी। अवध की साकिनें हुक्के पिलाने में बड़ी चतुर थी। लखनउ में दशहरे के जुलूस में बड़े बड़े हुक्के चलते थे। लेकिन आधुनिक सभ्यता ने हुक्के को लगभग समाप्त कर दिया है। लेकिन किसान -पंचायत में हुक्का फिर दिखाई देने लगा है। हुक्का एक आवश्यकता था। भारतीय हुक्के विदेशों में भी लेाकप्रिय थे। अब पर्यटक आते हैं और दर्शनीय हुक्का लेकर चले जाते हैं। हुक्के से संबंधित कुछ काव्यांश देखिये - 

   हुक्का हर हो लाडलो

   राखों सबरो मान।

   भरी सभा बिच यूं फिरे

   ज्यूं गोप्यां में कान।। 

  और कहा है-

   नीचे जल की गागरी 

   उपर सर के आग। 

   गली बीच को हराम है

   निकला काला नाग।। 

  एक अन्य कवि का कहना है - 

   हुक्का हरका लाडला देख्या ही जीवें।

   कोडो़ न खर्चे गांठ की, माग्यां ही पीवें।। 

  लेकिन हुक्के की दास्तान इस शेर के बिना अधूरी है सो शेर अर्ज है-

   तुम्हारे हुस्न का हुक्का तो बुझ चुका है बेगम, 

   ये हमीं हैं जो गुड़गुड़ाये जा रहे हैं। 

 

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