14-साहित्य की संवेदना
साहित्य में जब जब भारतीता की बात उठती है तो यह कहा जाता है कि साहित्य में भारतीयता तलाशना साहित्य को एक संकुचित दायरे में कैद करना है, मगर क्या स्वयं की खोज कभी संकीर्ण हो सकती है ? वास्तव में संकीर्णता की बात करना ही संकीर्ण मनोवृत्ति है। सच पूछा जाए तो ‘को अहम्’ अर्थात अपने निज की तलाश ही भारतीयता है और जब यह साहित्य के साथ मिल जाती है तो एक सम्पूर्णता पा जाती है। पश्चिमी साहित्य से आक्रांत होकर जीने के बजाए हमें अपने साहित्य, अपनी संस्कृति से उर्जा ग्रहण करनी चाहिए। वैसे भी हम तो सम्पूर्ण विश्व को एक नीड़ मानते हैं और ‘वसुधेव कुटुम्बकम्’ हमारा चिरन्तन मन्तव्य रहा है। भारतीयता तो एक पगडंडी है जो हमें जावन तक पहुंचाती है।
देखा जाए तो जब सब कुछ भारतीय ही है तो भारतीय साहित्य में अभारतीय क्या हो सकता है? हमारी हवा, पानी, पर्यावरण,वायुमंडल धर्म, दिशा, दशा, सब कुछ भारतीय है तो फिर भारतीयता की यह तलाश क्यों ? साहित्य क्या है और साहित्य या बाग्डमय के भारतीय सरोकार क्या है ?
जब कविवर रवीन्द्रनाथ टैगोर ‘चित्त जैथा भय शून्य’ जैसी कविता में उद्घोश करते हैं-
‘जहॉं हृदय में निभयता है और मस्तक अन्याय के सामने नहीं झुकता।
जहॉं शान का मूल्य नहीं लगता
जहॉं विवके निर्मल जलधारा पुरातन रूढ़ियों के मरूस्थल में सूखकर लुप्त नहीं हो गयी।
मन तुम्हारे नेतृत्व में सदा उत्तरोत्तर विस्तीर्ण होने वाले विचारों और कर्मो में रत रहता है,
प्रभु! डस दिव्य स्वतंत्रता के प्रकाश में मेरा देश जाग्रत हो ’’ तो लगता है यही भारतीयता है, यही परम्परा है और यही प्रासंगिक भी है।
आखिर साहित्य के जरिये भारतीयता की तलाश को कहां से शुरू किया जाना चाहिए और क्या यह तलाश कहीं जाकर समाप्त होती है ? क्या साहित्य की तलाश भी स्वयं की तलाश नहीं है ? क्या साहित्य भी सर्वजन हिताय की बात नहीं करता ? कहते हैं कि इस देश में द्रविड़ पहले आये, आर्य बाद में आये उसके बाद शक, हूण, नीग्रो, ओसिटक, मुसलमान और अंग्रेज भी आये, लेकिन क्या ये सब मिलकर भारतीय-साहित्य और एक सम्पूर्ण भारतीय ताना बाना बनाते ? शायद बनाते हैं और इस सम्पूर्ण ताने बाने से बुनी हुई चीज ही भारतीयता है।
हमारी संास्कृतिक विरासत को किसी सांचे विशेश में ढालने की कोशिश एक नाकाम कोशिश हैं, क्योंकि सांचों में बंध कर जिन्दगी नहीं चलती। जिन्दगी तो एक सतत प्रवाहमान नदी है, जिसके किनारे पर उजली धूप के कतरे हैं, हवा है, राशनी है। इनकी छाया में पलने वाला साहित्य है, कला है, संस्कृति है और इन सब में छुपकर बैठी हुई भारतीयता है। भारतीयता वैदिक ऋचाओं में है, भारतीयता पौराणिक आख्यानों में है, भारतीयता सूफी सन्तों की बाणी में है और भारतीयता गुरूग्रन्थ साहिब में है, यानी भारतीयता का समग्र आदर्श चिन्तन में है।
अपने साहित्य कला और विरासत की किताब के पन्ने पलटने पर स्पश्ट हो जाता है कि साहित्य में कुल तीन क्रांतियां हुइ्र। एक जब लिपि का अविश्कार हुआ, दूसरी जब छापाखाने की सुविधा हुई, और तीसरी क्रंति दृश्य-श्रव्य माध्यम के रूप में हुई। इससे पूर्व साहित्य केवल श्रव्य तथा वाचिक परम्परा से चला। जो लोग इन क्रांतियों के अलावा किसी अन्य क्रांति की चर्चा करते हैं, वे स्वयं को भुलावा देते हैं। भारतीय साहित्य में विचार-धाराओं का अंत नहीं होता। यहॉं पर सतत प्रवाह है, और प्रवाह नपट नहीं होता।
हमें अपनी जमीन पर खड़े होकर विश्व का अभिनंदन करना है। क्षितिज से आने वाली हर किरण से स्वयं को आलाकित करना है। विज्ञान अपनी सीमाओं में बंध गया है, आंतकवाद पैर पसार चुका है। विश्व अगली सदी में पांव रख रहा है, ऐसी विपरीत परिस्थिति में भारतीयता ही हम सब को एक नया आलोक दे सकती है। आदर्श राज्य आदर्श व्यक्ति के बिना स्थाीपत नहीं हो सकता। जो यह सोचते हैं कि राज्य आदर्श हो जाने से रापट आदर्श हो जाता है, वे गलत है, क्योंकि रापट की मूल इकाई राज्य नहीं व्यक्ति है। आदर्श व्यक्ति ही साहित्य रच सकता है, क्योंकि साहित्य सबकेा दर्पण दिखाने की हिम्मत रखता है।
अक्सर यह सवाल पूछा जाता है िकइस संक्रमण काल में साहित्यकार की सामाजिक उपयोगिता क्या है ? लेकिन कुपया मुझे बताइए कि चांद की चांदनी और मोर की नाचने की सामाजिक उपयोगिता क्या है ? और यदि यही प्रश्न भारतीयता के संदर्भो को लेकर गढ़ा जाए तो बात साफ हो जाती है।
सवाल सामाजिक उपयोगिता का नहीं, एक नवीन समाज के निर्माण का है जो केवल भारतीयता के ही वश का है।
जब हम सम्पर्ण विश्वजनिता का अध्ययन करना चाहते हैं तो हमें एक आधार चाहिए और इसके लिए भारतीयता का आधार ही श्रेप्ठ आधार है। किसी क्षण लग सकता है कि हम पर जातीयता या देशीयता हावी है, मगर वास्तव में ऐसा नहीं है। विश्व संस्कृति को समझने का एक झरोखा है भारतीय संस्कृति, भारतीय साहित्य, भारतीय चिन्तन, भारतीय कला और भारतीय निजत्व।
वैदकालीन भारतीय परम्परा का निर्वाह हम नहीं कर पाये, बाद में पुराण, उपनिपद, अर्थ शास्त्र आदि के ग्रन्थों में भारतीय जनमानस का सजीव और सजग चित्रण हुआ। हमारा लोक-साहित्य तो मानवतावाद और भारतीयता से भरा पड़ा है।
आनन्द कुमार स्वामी का चिन्तन, अरविन्द का दर्शन, रवीन्द्रनाथ का काव्य, माखनलाल चतुव्रेदी, सुब्रह्मण्यम् भारती की स्वातंत्रय-चेतना और परावर्ती तथा पूर्ववती भारतीय साहित्यकारों का भारतीय चिन्तन कौन भूल सकता है ? तुलसी के राम हो या भगवत के कृप्ण, गीता के अजु्रन हों या प्रेमचन्द्र का होरी, सब भारतीयता से ओत प्रोत हैं। वे भारतीयता की चेतना का विस्तार हैं, जो हम सबके लिए एक आवश्यकता है, एक अहसास है, जिसके सहारे जिया जा सकता है।
सच में यह महान देश जिन वस्तुओं से मिलकर बना है, वे सब अनन्त हैं, अक्ष हैं और वासतविक हैं। जब कुम्हार घड़ा बनाता है, चित्रकार चित्र बनाता है, मूर्तिकार मूर्ति बनाता है, किसान हल जातता है या माली अपने पेड़ों को पानी देता है तो वह भारतीयता की ही सेवा करता है। यह यह कोई काल्पनिक बात नहीं है, यह वास्तविक तथ्य है और इसे नकारा नहीं जा सकता हैं भारतीयता की प्रांसंगिकता थी, है और रहेगी। भारतीयता अनेकता में एकता है, मानवता की मूलभूत आवश्यकता है। यह अखंड है। इससे जीने की उर्जा ग्रहण की जाती है। श्रद्धा, आस्था और निप्ठा का नाम है भारतीयता।
भारतीयता मठों, मन्दिरों, राजदरबारों और धर्मो में मिलने वाली चीज नहीं है वह तो हमस ब में समायी हुई है। हमस ब मिलकर भारत बनाते हैं और हमस ब मिलकर ही भारतीयता को बनाते हैं।
भारतीयता कोई राजनीतिक नारा या विचारधारा है, ऐसा मानने का कोई कारण नहीं हैं, और न ही इस लेख का लक्ष्य ऐसा है, मगर जब हम भारतीयता की चर्चा करते हैं तो विचारधाराओं की चर्चा स्वतः आ जाती है। मार्क्सवाद के दुखद निधन के बाद क्या पूंजीवादी सफल हो जाएंगे? शायद नहीं आवश्यकता है एक तृतीय विकल्प की और भारतीयता यह विकल्प पूरे विश्व के सामने प्रस्तुत करती है।
भारतीयता दूध पीते बच्चे की हंसी में है, मां के आंचल में है, हिमालय के सौन्दर्य में है, दक्षिण के मंदिरों में है, सूर्य की उपासना में है, र्प्यावरण की चिन्ता में है, रविशंकर के सितार-वादन में, मं. भीमसेन जोशी गायन में, हुसैन, रजा या बी. प्रभा के चित्रों में है, आर्य भट्ट उपग्रह में है, समुद्र क ेजल में है। कश्मीर के सौन्दर्य में और डॉ. राधाकृप्णन के दर्शन में है भारतीयता। कुल मिलाकर जनमानस की आस्था, निप्ठा का संकल्प है भारतीयता।
एपणाओं की चर्चा में यश एपणा को बड़ा महत्व दिया गया है, भारतीयता इसी एपणा की तलाश का रास्ता खोजती है। तृप्णा और क्रोध दो बड़े ही विकट संकट है और जब वे एपणा से मिल जाते है तो विस्फोट होता है और भारतीयता इस विस्फोट से बचाती है। सामाजिक समरसता, नैतिकता, वाद विवाद और इनसे जुड़ कर मानव तथा प्राणिमात्र का हित चिन्तन करें तो भारतीयता एक सम्पूर्ण आकार ग्रहण करती है। व्यक्ति स्वातन्त्रय की चर्चा करने के बजाए हम समग्र स्वतंत्रता की रक्षा की चिन्ता करते है, हम प्रकृतिमय होने की कोशिश करते है, क्योंकि भारतीयता प्रकृति को केवल र्प्यावरण नहीं, मानती वह तो प्रकृति को जीवन का अंग बल्कि एक सम्पूर्ण जीवन ही मानती है।
भारतीयता अपने अदर्शो का ढिंढोरा नहीं पीटती, वह तो आदशो को जीती है, उनसे उर्जा ग्रहण करके सब को बांटती है, क्योंकि जीवन तो सब के लिए है।
भारतीयता कोई भी चिन्तन विचार या दर्शन हो ऐसा नहीं है बल्कि भारतीयता एक यम्पूर्ण विश्वसनीयता है, आवश्यकता है, अतः हम इसी भारतीयता को साहित्य के सन्दर्भों में तलाशते है। क्योंकि साहित्य भी तो सम्पूर्ण है, और सबको साथ लेकर जीने की कला सिखाता है।
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