विविधा - 5 Yashvant Kothari द्वारा कुछ भी में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
  • My Wife is Student ? - 25

    वो दोनो जैसे ही अंडर जाते हैं.. वैसे ही हैरान हो जाते है ......

  • एग्जाम ड्यूटी - 3

    दूसरे दिन की परीक्षा: जिम्मेदारी और लापरवाही का द्वंद्वपरीक्...

  • आई कैन सी यू - 52

    अब तक कहानी में हम ने देखा के लूसी को बड़ी मुश्किल से बचाया...

  • All We Imagine As Light - Film Review

                           फिल्म रिव्यु  All We Imagine As Light...

  • दर्द दिलों के - 12

    तो हमने अभी तक देखा धनंजय और शेर सिंह अपने रुतबे को बचाने के...

श्रेणी
शेयर करे

विविधा - 5

5-साहित्य के शत्रु हैं

सत्ता, सम्पत्ति और संस्था डॉ. प्रभाकर माचवे 

डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने डॉ. माचवे के लिए लिखा है- ‘ श्री प्रभाकर मचवे हिन्दी के उन गिने चुने लेखकों में हैं, जिनकी सरसता ज्ञान की आंच से सूख नहीं गयी।’

 वास्तव में डॉ. माचवे सहज-सरल हैं, गुरू गंभीर नहीं। वे एक बहुमुखी भारतीय साहित्कार हैं, केन्द्रीय साहित्य अकादमी के वे सचिव रह चुके हैं। रेडियो, भारतीय भाशा परिशद आदि से जुडे रहे हैं। संप्रति वे इंदौर से प्रकाशित हो रहे दैनिक पत्र चौथा संसार के प्रधान सम्पादक हैं उन्होंने हिन्दी, अंग्रेजी तथा मराठी में लगभग 80 पुस्तकें लिखी हैं उनकी प्रमुख पुस्तकें- परन्तु, एकतारा, द्वाभा, खरगोश के सींग, तेल की पकोड़ियॉं आदि हैं। ग्वालियर में जन्में मराठी भाशी साहित्यकार डॉ. माचवे एक कार्यक्रम के सिलसिले में पिछले दिनों जयपुर पधारे तो साहित्य के विभिन्न पहलुओं पर चर्चा हुई। डॉ. माचवे को सोवियत लैण्ड पुरस्कार, उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, हिन्दी अकादमी आदि के पुरस्कार मिले हैं। वे 27 देशों की यात्रा कर चुके हैं। 

 आपने लिखना कब शुरू किया ?

 1934 में मेरी पहली कविता ‘कर्मवीर’ में छपी। उसी साल प्रथम मराठी कविता काव्य रत्नावली में छपी और सिलसिला चल निकला। बाद में तार सप्तक में छपा और चर्चित हुआ। माखनलाल चतुर्वेदी का स्नेह मुझे प्राप्त था। 

 साहित्य का उन दोनों का माहौल कैसा था ? आज के माहौल से तुलना करें। 

 साहित्य में उन दिनों का माहौल आज के माहौल से बेहतर था। लेखक कम थे। लम्बे समय तक लेखक लिखता था। अब स्तर गिर गर गया है, लिखने की मात्रा बढ़ गयी है। 

 उन दिनों लेखकों और सुपादकों के आपसी संबंध बहुत अच्छे और घरेलू हुआ करते थे। अब तो कहीं-कहीं संपादक अफसर हैं और सब कुछ यांत्रिक है। सहृदयता कम हो गयी है। साहित्य के प्रति आदर कम हो गया है। लेखक-लेखक से घृणा करता है। अब गली गली में लेखक है। उन निों साहित्य राश्टीय आन्दोलन तथा राश्टीय धारा में जुड़ने का अस्त्र था। अब सब कुछ बदल गया है। 

 साहित्यकार की सामाजिक उपयोगिता क्या है ? 

 मोर की सुन्दरता की सामाजिक उपयोगिता क्या है ? सूर्योदय या चंद्रमा की चादनी की सामाजिक उपयोगिता क्या है ? इन चीजों से मानसिक स्वास्थ्य की खुराक मिलती है। यही साहित्य और साहित्यकार की सामाजिक उपयोगिता हैं। वास्तव में साहित्य जीवन के प्रति आस्था जगाता हैं। 

 इसी क्रम में डॉ. माचवे ने पत्रकार की सामाजिक उपयोगतिा पर भी अपनी बात कही। उनके अनुसार पत्र पत्रिकाओं का इतिहास 150-200 वर्श पुराना ही है। जबकि साहित्य का इतिहास हजारों वर्शो का है। पत्रकारिता अब शुद्ध व्यवसाय है। सत्ता, सम्पति, और संस्था साहित्य के शत्रु हैं। इन चीजों से स्वतंत्र चिन्तन कुंठित होता है। 

 आप लम्बे समय तक केन्द्रीय अकादमी से जुडे़ रहे हैं और यह संस्था हमेशा ही विवादों के घेरे में रही है। खसकर पंरस्कारों के मामले में । आपके अनुभव इस संस्था के साथ कैसे रहे हैं ?

 मैं अकादमी से 21 वर्शो तक जुड़ा रहा। प्रारंभ में जवाहरलाल नेहरू तथा बाद में डॉ. रधाकृश्णन के समय तक माहौल अच्छा था। पुरस्कारों के निर्णय ठीक थे। लेकिन, डॉ. सुनीति कुमार चटर्जी के आने के बाद गड़बड़ियां शुरू हुई। छः नई भाशाओं में पुरस्कार शुरू किये गये और 16 के बजाय 22 पुरस्कार हो गये। गुटबाजियां शुरू हुई और पुरस्कार दिल्ली केन्द्रित हो गये। पिछले वशो्र में दिये गये 35 पुरस्कारों में से आधे से ज्याा दिल्ली के लेखकों को दिये गये हैं। फिर मरणोपरान्त पुरस्कारों का नाटक। दिल्ली में भी राजकमल प्रकाश्न के ही लेखकों को ज्यादा पुरस्कार दिये गये हैं। वास्तव में गुटबाजी ने साहित्य का बडा़ अहित किया है। 

 क्या स्वतंत्र लेखन के बल पर जिया जा सकता है ? 

 मेरी निजी राय में लेखक के बल पर केवल मंचीय कवि यथा सुरेन्द्र शर्मा जैसे ही लोग जीवित रह सकते हैं अन्यथा लेखन की आय बहुत सीमित है। विदेशों जैसी स्थिति हमारे देश में नहीं है।

 साहित्य का भविश्य क्या है ?

 मैं आशावादी हूं और सहित्य के भविश्य के प्रति आश्वस्त हूं। परिवर्तन के साथ लेखक को उसी वर्ग में आना होगा। आराम कुर्सी वाला लेखन रोमांटिक और अविश्वसनीय होता है। शब्द का मूल्य तभी आयेगा जब वर्ग विशेश से लेखक आयेगा अर्थात् किसान वर्ग के बारे में किसान और मजदूर वर्ग के बारे में मजदूर लिखेगा। 

 सार्वदेशिक व्यक्ति के अभाव की चर्चा करते हुए डॉ. माचवे ने बताया कि लेखकों को अधिक परिश्रम करना होगा। सार्वदेशिक लेखक को नोबल पुरस्कार मिलने की संभावना से भी उन्होंने इंकार किया। 

 आप चित्रकार भी हैं, उस पृश्ठीाूमि के बारे में बताइये। 

 हां, मैने इंदौर में बेंद्रे तथा हुसेन के साथ कला की शिक्षा चार वर्श तक ली है। मैं स्केचेज, कैरोकेचर वगैरह बनाता हूं। 

 मुझे साहित्य कला सभी में आनंद आता है। हर काम रूचि से करता हूं। इसी कारण इस उम्र में भी स्वस्थ हूं। 

 नया क्या लिख रहे हैं ? 

 वैसे काफी कुछ लिखता हूं हिन्दी साहित्य निर्माता श्रंृखला में कुछ पुस्तकें आ रही हैं। मराठी में अनुवाद, लेख करता रहता हूं। दैनिक अखबार में भी काफी समच चला जाता है। इसके अलावा एक उपन्यास पर काम कर रहा हूं। बाल साहित्य में भी काम किया है। 

 साहित्य पर संेसरशिप विशेशकर ‘सेटेनिक वर्सेज ’ ‘सेटेनिक वर्सेज’ पर प्रतिबन्ध के बारे में...... ? 

 मैं खुशवन्तसिंह से सहमत हूं। पहले पुस्तकों पर प्रतिबंध राजनीतिक कारणों से लगते थे। स्वराज के बाद ऐसे प्रतिबन्ध नहीं लगे। अश्लीलता के कारण पुस्तकें ‘ बैन’ हुई। 

 नये लेखकों को कोई सुझाव ? 

मुझे सुझाव देना पसन्द नहीं है, पहले प्रामाणिक बनें और अपना रास्ता स्वयं ढूढें। 

     000