चलो, कहीं सैर हो जाए... - 14 राज कुमार कांदु द्वारा यात्रा विशेष में हिंदी पीडीएफ

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चलो, कहीं सैर हो जाए... - 14

थोड़ी देर तक हम लोग नदी के किनारे किनारे चलते रहे। वह एक पहाड़ी नदी थी जिसमें पत्थर और छिटपुट झाड़ियों के अलावा कहीं कहीं ठहरा हुआ पानी तो कहीं से पानी की पतली धारा अपनी राह बनाकर आगे बढ़ती हुई नजर आ रही थी। रास्ते के शुरुआत से ही हलकी चढ़ाई का अहसास हो रहा था।

कुछ आगे बढ़ने पर हम नदी को लगभग भूल ही गए और अपने सामने बिखरे हुए कुदरत के अनुपम सौन्दर्य में खो से गए। भरी दोपहरी और तेज धूप के बावजूद यह आश्चर्यजनक ही था कि हमें नाम मात्र का भी पसीना नहीं हो रहा था।

अब हम लगभग डेढ़ किलोमीटर का सफर तय कर चुके थे। रास्ते के एक किनारे एक कमरा बना हुआ था जहाँ दो आदमी बैठे हुए थे और आगे जानेवाले सभी यात्रियों से टिकट खरीदने का आग्रह कर रहे थे। मैंने उनसे आठ टिकट देने के लिए कहा। टिकट लेकर आश्चर्य हुआ। मात्र दो रुपये प्रति व्यक्ति का यात्रा शुल्क शिवखोडी संस्थान की तरफ से वसूला जा रहा था फिर भी कुछ यात्री उन्हें नजरंदाज कर दो रुपये बचाने के जुगत में लगे हुए थे।


यात्रा पर्ची लेकर हम लोग आगे बढे।

हम जैसे जैसे आगे बढ़ रहे थे वातावरण में नमी बढ़ती जा रही थी । लगभग एक किलोमीटर चलने के बाद रास्ते के बायीं तरफ हमें एक निर्माणाधीन मंदिर दिखाई पड़ा। नजदीक ही दो तीन दुकानें भी दिखीं जिनमे बैठे दुकानदार यात्रियों से जुते चप्पल वगैरह रखने और प्रसाद खरीदने का आग्रह कर रहे थे।

मंदिर के बराबर में वही सूखी नदी थी जिसमें कहीं कहीं गड्ढों में पानी जमा हुआ दिख रहा था। उन्हीं गड्ढों के बीच पानी की पतली धारा अनवरत बह रही थी। उत्सुकता वश हम रास्ता छोड़कर नदी में उतर गए। उस बहते पानी में पैर डालते ही हमें तुरंत पैर पानी से बाहर निकालना पड़ा। पानी उम्मीद से कहीं ज्यादा ठंडा था, बिल्कुल बर्फ की तरह जबकि हमसे थोड़ी ही दुरी पर एक शख्स जो शायद स्थानीय ही था एक गड्ढे में जमा पानी में बड़े आराम से मजे लेकर नहाते हुए दिख रहा था।

हम वहाँ से आगे बढे। पता नहीं और कितनी दूर जाना है इससे अंजान होने की वजह से हमने कोई सामान वगैरह नहीं लिया था और न ही जुते वगैरह निकाले थे। अब रास्ता यहाँ से दायीं तरफ घूम गया था। यहाँ से चढ़ाई अब पहले की अपेक्षा कुछ ज्यादा लग रही थी और रास्ता भी थोडा संकरा हो गया था।

थोड़ी देर चलने के बाद हमने पीछे की तरफ देखा। पीछे रास्ता कहीं नजर नहीं आ रहा था। यहाँ से अपने चारों तरफ ऊँची ऊँची पहाड़ की चोटियाँ ही नजर आ रही थीं। भरी दुपहरी में ऐसा लग रहा था जैसे शाम बस गहराने ही वाली हो। ऐसा लग रहा था जैसे हम पहाड़ों से बने किसी कटोरे में उतर गए हों। बड़ा ही सुन्दर दृश्य नजर आ रहा था जिसे देखकर ही अनुभव किया जा सकता है। ऊँचे पहाड़ों पर फैले घने जंगल उसकी सुन्दरता में चार चाँद लगा रहे थे। ऐसा लग रहा था मानो प्रकृति ने पर्वत रूपी किसी नवयौवना को घने जंगलों से आच्छादित हरियाली रूपी हरी साडी पहना कर उसे सजा संवार दिया हो।

प्रकृति की सुन्दरता को नज़रों के रास्ते दिल से होकर अपनी यादों के पिटारे में सहेजते थोड़ा तेज चलने का प्रयास करते हम लोग आगे बढ़ रहे थे।
हमें लगभग डेढ़ घंटे चलते हुए हो गया था। कुछ वापस आनेवाले यात्रियों से पूछने पर पता चला कि हम लगभग पहुँच चुके थे। अब रास्ता समतल न होकर सीढियों में तब्दील हो चुका था।

शीघ्र ही हम लोग गुफा के नजदीक जा पहुँचे। नीचे रस्ते के किनारे पानी की व्यवस्था की गयी थी लेकिन उस समय दुर्भाग्य से वहाँ पानी उपलब्ध नहीं था। उस कक्ष के सामने ही एक छोटा सा मैदान था जिसमें उबड़ खाबड़ लादियाँ लगी हुयी थीं।

बायीं तरफ ऊपर चढने के लिए सीढियाँ बनी हुयी थी जिसपर लोगों की कतार लगी हुयी थी। वहीँ सीढियों के करीब अपने जुते चप्पलें रखकर हम लोग भी कतार में खड़े हो गए। वहाँ से गुफा सामने ही ऊंचाई पर दिख रही थी।

कतार से लगभग अस्सी सीढियाँ चढ़ने के बाद हम गुफा के मुहाने पर पहुँच गए। सामने बैठे सुरक्षा अधिकारी ने हमारी जाँच करके यात्रा पर्ची की माँग की। यात्रा पर्ची उन्हें देकर हम कतार में ही आगे बढे। अब हम एक बड़ी गुफा में प्रवेश कर चुके थे।यह गुफा एक बड़ी अंडाकार दालान जैसी थी। लगभग पचास या साठ फीट आगे उस गुफा में ही एक बहुत ही छोटी सी एक दूसरी गुफा का प्रवेश द्वार दिख रहा था। लोग एक एक कर कतार में ही वहाँ तक पहुँचते और उस छोटे से प्रवेश द्वार में बैठकर उस गुफा में प्रवेश करते। थोड़ी देर में हमने भी कतार में ही गुफा में प्रवेश किया।

गुफा का प्रवेश द्वार भले ही छोटा था लेकिन उसके बाद अन्दर पर्याप्त जगह थी चलने लायक। आगे बढ़ने पर रास्ता अत्यंत दुर्गम हो गया । पथरीली चट्टान पर थोडा चढ़ने के बाद अचानक आगे रास्ता दो चट्टानों के बीच से तिरछा होकर निकलने जितना ही था। यात्रियों की सुविधा के लिए जंजीर चट्टानों से लगी हुयी थी जिसके सहारे लोग खड़े होकर बगल से सरकते हुए आगे बढ़ रहे थे। रोशनी की भी पर्याप्त व्यवस्था थी।

लगभग बीस पचीस फीट के इस दुर्गम रास्ते को तय करने के बाद हम लोग एक बहुत बड़े दालान में पहुँच गए। यहाँ गुफा की दीवारों पर वेद और पुराणों से सम्बंधित कथाएं चित्र रूप में उकेरी गयी थीं। अद्भुत अनुपम दृश्य नजर आ रहा था। एक तरफ पंडितजी यात्रियों के समूह को उन भित्तिचित्रों व वहाँ स्थित शिवलिंग की महत्ता के बारे में समझा रहे थे। उनके द्वारा ही हमें ज्ञात हुआ कि अभी शिवलिंग पर जो पानी की बूंदे गिर रही हैं वही बूंदें शिवरात्रि के दिन दूध की बूंदों के रूप में शिवलिंग पर गिरती हैं, अर्थात शिवरात्रि के दिन कुदरत स्वयं दूध से शिवजी का अभिषेक करती है। पंडितजी के मुताबिक यही चमत्कार प्रत्यक्ष देखने के लिए श्रद्धालु शिवरात्रि से एक दिन पहले से ही गुफा में प्रवेश के लिए कतारों में लग जाते हैं।

इस जानकारी से हम लोग अभिभूत थे और यह भी एक रहस्य और चमत्कार ही समझ वहाँ स्थापित सभी देवताओं की मूर्तियों को नमन कर हम लोग आगे बढे। यहाँ कुछ लोग पुरोहितों से अभिषेक व हवन वगैरह भी करवा रहे थे। एक रास्ता यहाँ से बायीं तरफ भी गया जिस पर आगे जाने की मनाही थी। बताते हैं यह रास्ता सीधे अमरनाथ गुफा में निकलता है। इस पवित्र गुफा के सम्बन्ध में भी एक कथा जो धार्मिक ग्रंथों में वर्णित है वह इस प्रकार है।

भगवान शंकर के कई नामों में से एक नाम ‘ भोले बाबा ‘ ज्यादा प्रचलित है। भगवान शंकर अपने नाम के अनुरूप ही भोले भाले हैं। कोई भी अपनी श्रद्धा लगन और भक्ति से उन्हें प्रसन्न कर मनचाहा वर पा सकता है ऐसी मान्यता है। भोले बाबा अपने भक्तों में देव दानव या मानव का फर्क नहीं करते। वह अपने सभी भक्तों की इच्छा पूरी करने को तत्पर रहते हैं। समस्त देवगण उनके भक्त तो हैं ही बहुत ही सामर्थ्यशाली असुर भी उनके भक्त रहे हैं और इसीलिए उनके कृपापात्र भी रहे हैं। लंका के राजा रावण की शंकर भक्ति भी जग जाहिर है।

देवो और दानवों में हमेशा ही संघर्ष की भावना रही है, लेकिन दानवों ने हमेशा ही देवों के साथ संघर्ष में मात खायी है। इसी भावना के अधीन देवों को हराने के लिए और शक्ति संपन्न होने के लिए उन्हें बाबा भोलेनाथ की शरण में जाने के अलावा और कोई विकल्प नहीं सूझता था।

इसी क्रम में एक असुर ने बाबा भोलेनाथ को अपनी कठोर साधना से प्रसन्न कर दिया। अपने स्वभाव के मुताबिक भोले बाबा उसकी तपस्या और कठिन साधना से प्रसन्न हुए और उसके सम्मुख प्रकट हुए। उसे दर्शन देते हुए बाबा ने आवाज लगायी, "उठो वत्स ! हम तुम्हारी भक्ति और कठोर तप से प्रसन्न हुए। अपनी इस कठोर साधना की वजह बताओ और माँगो क्या माँगना चाहते हो ?"

साक्षात् शंकर भगवान को अपने सम्मुख पाकर वह असुर बड़ा प्रसन्न हुआ और उन्हें दंडवत करते हुए बोला, ”आपके दर्शन की इच्छा मन में थी, इसीलिए इस कठोर तप का प्रयोजन किया था। अब आप अगर मुझे कुछ देना ही चाहते हैं तो मुझे यह वरदान दीजिये कि मैं अमर हो जाऊँ अर्थात मृत्यु मुझे न छू सके।"

भोले बाबा मुस्काए और अपनी विवशता जाहिर की, ” वत्स ! सृष्टि के नियमों के अधीन रहकर ही मैं तुम्हें वरदान दे सकता हूँ, इसीलिए अमरता का वरदान मैं नहीं दे सकता। तुम यह वरदान छोड़कर कुछ और माँग लो क्योंकि जो आया है वह अवश्य जायेगा अर्थात जो पैदा हुआ है उसकी मृत्यु निश्चित है। मैं सृष्टि के इस नियम का लोप नहीं कर सकता। अतः मैं तुम्हें अमरता का वरदान नहीं दे सकता। कुछ और मांग लो ।”

शंकर भगवान की बात सुनकर कुछ सोचते हुए उस असुर के चेहरे पर कुटिल मुस्कान फ़ैल गई।


क्रमशः