गोलू भागा घर से - 20 Prakash Manu द्वारा बाल कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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गोलू भागा घर से - 20

(एक अँधेरी दुनिया में गोलू)

........................

20

काली पैंट, सफेद कमीज वाला आदमी

स्टेशन से बाहर आकर गोलू ने चौकन्नी नजरों से इधर-उधर देखा। सचमुच गेट के आगे ही वह था—काली पैंट, सफेद कमीज वाला आदमी। उसके पास चमड़े का काला बैग भी था। उम्र होगी कोई सत्ताईस-अट्ठाईस साल। साँवला रंग, तीखे नाक-नक्श, थोड़ा मझोला कद। देखने में कुछ बुरा न था। पर गोलू को जाने क्यों वह अच्छा न लगा।

गोलू ने जेब से निकालकर झट उसे नीला लिफाफा पकड़ाया। बोला, “यह रफीक भाई ने आपके लिए दिया है। बताया था, आप यहाँ, गेट के सामने मिलेंगे।”

“अच्छा...!” वह आदमी बोला। और गौर से गोलू को ऊपर से नीचे तक देखने लगा। उसके चेहरे पर अजीब-सी गंभीरता थी। सामने वाले को डरा देने वाली।

फिर उसने नाम पूछा। गोलू ने अपना नाम बताया तो सुनकर वह चुप हो गया। जैसे कोई जरूरी बात सोच रहा हो।

गोलू को यह आदमी कुछ अजीब लगा। खुद को ‘रफीक भाई’ कहने वाला आदमी तो हँसमुख लगता था, लेकिन यह...?

कुछ देर बाद गोलू चलने लगा, तो उस आदमी ने कहा, “ठहरो गोलू, कहाँ जाना है तुम्हें? मैं छोड़ देता हूँ...गाड़ी है मेरे पास।”

“शाहदरा।” गोलू ने कहा, “पर...पर मैं चला जाऊँगा बस से। यहाँ से बहुत बसें जाती हैं। मुझे कोई परेशानी नहीं है अंकल!”

“अरे, मैं तो उधर ही जा रहा हूँ। आ जाओ, शरमाओ मत।” पहली दफा हँसकर उस आदमी ने कहा।

अब गोलू की झिझक थोड़ी कम हो गई थी। वह उस आदमी के साथ जाकर सफेद मारुति कार में बैठ गया। काली पैंट, सफेद कमीज वाले आदमी ने पार्किंग से अपनी कार को निकाला और कार कनॉट प्लेस होती हुई दौड़ पड़ी दिल्ली की सड़कों पर।

उस आदमी ने कहा, “मेरा नाम डिकी है, गोलू। मुझसे दोस्ती करोगे तुम?” और फिर डिकी और गोलू की बातों का सिलसिला शुरू हो गया।

डिकी ने गोलू से उसके घर-परिवार के बारे में पूछा। गोलू ने उसे भी कहानी सुनाई, जो उसने मास्टर गिरीशमोहन शर्मा को सुनाई थी। बोला, “मैं एक अनाथ बालक हूँ। माँ-बाप, भाई-बहन कोई नहीं है। माँ-बाप रेल से कटकर मर गए।...कुछ साल पहले। दोनों रेल की पटरी पार कर रहे थे। अचानक गाड़ी आई और दोनों उसकी लपेट में आ गए। पड़ोसियों ने दाह-संस्कार किया। मैं किसी तरह छोटा-मोटा काम करके गुजारा कर रहा हूँ।”

“अरे, तुम तो इतनी हिम्मत वाले लड़के हो, तो घबराते क्यों हो? चाहोगे तो एक दिन तुम्हारे पास सब कुछ होगा—कोठी, कार, पैसा।...सभी कुछ। तुम अच्छे-खासे समझदार लड़के हो। किस चीज की कमी है तुम्हारे पास?” डिकी ने बड़े प्यार से कहा।

“सच!” गोलू को विश्वास नहीं हो रहा था डिकी की बातों पर। फिर इतनी खूबसूरत कार में बैठने का अपना नशा था। गोलू को लगा, अरे, दिल्ली इतना बुरा शहर तो नहीं है—अगर अपनी गाड़ी हो तो! फिर न बसों में भीड़ के धक्के खाने की जरूरत है और न देर-देर तक बस स्टॉप पर खड़े होकर बसों का इंतजार करने का झंझट।

पर तभी गोलू को अपनी असलियत याद आ गई। कहाँ तो कल की रोटी कमाने की चिंता है—और कहाँ कोठी और कार का सपना!...हद है भई, हद है! क्या कार में बैठने का इतना नशा हो गया?

अब उसे अपने आप पर ही शर्म आ रही थी।

“क्या सोच रहे हो?” अचानक डिकी ने गोलू की ओर देखकर पूछा।

इस पर गोलू और भी संकुचित हो गया। “कुछ नहीं अंकल...कुछ नहीं।” कहकर गोलू ने गरदन नीची कर ली।

“कहाँ जाओगे...कहाँ घर है तुम्हारा? शाहदरा तो आ गया।” डिकी ने फिर पूछा।

“नवीन शाहदरा...!” गोलू ने कहा, “नवीन शाहदरा में एक पतली-सी गली में मेरा घर है। रास्ता बहुत खराब है। वहाँ आपकी गाड़ी नहीं जा पाएगी। मुझे यहीं सड़क पर उतार दीजिए। मैं घूमता, टहलता हुआ अपने कमरे पर पहुँच जाऊँगा।...आप बिल्कुल कष्ट न करें।”

इतने में डिकी ने एक अजीब-सा सवाल पूछा। बोला, “सच बताओ गोलू, क्या तुम अपने जीवन से संतुष्ट हो? क्या तुम्हारी बिल्कुल इच्छा नहीं होती कि तुम भी कारों में घूमो...कोठी में रहो? ठाटदार जीवन जियो!”

गोलू ने कुछ नहीं कहा। एक नजर भरकर डिकी नाम के उस आदमी को देखा। फिर पहले की तरह गरदन झुका ली।

गोलू सोचने लगा, ‘अरे, यह आदमी तो जादूगर मालूम पड़ता है। वरना जो बात मेरे भीतर चल रही है, इसे कैसे पता चलती!’

गोलू की यह उधेड़बुन भला डिकी को कैसे न पता चलती! उसने कहा, “गोलू, चलो आज मैं तुम्हें अपने घर ले जाता हूँ। वहाँ दो-चार दिन रहो। फिर मैं तुम्हें तुम्हारे कमरे पर छुड़वा दूँगा।...क्यों ठीक है न?”

गोलू इनकार करना चाहता था। पर उसे लगा, वह इस आदमी की बातों के जादू में फँसता जा रहा है। उसके मुख से इनकार का स्वर निकला भी, पर बहुत हलका। जैसे उसका मन कार-कोठी वाली एक नई दुनिया में जाने के लिए मचल रहा हो।

“मैं असल में रेडीमेड गारमेंट्स की एक फैक्टरी में काम करता हूँ। दो दिन काम पर नहीं जाने से वहाँ मुश्किल आ जाएगी। वैसे भी आजकल, आप जानते ही हैं, नौकरियाँ बड़ी मुश्किल से मिलती हैं।” गोलू ने कहा।

“क्या काम करते हो तुम?” डिकी ने पूछा।

“कपड़े सीने का।” गोलू ने कुछ संकोच के साथ बताया।

“नौकरी छूटती है तो छूट जाने दो। उसके बदले तुम्हें कोई और अच्छा काम मिल जाएगा।” वह आदमी हँसा।

गोलू ने पाया कि वह पूरी तरह डिकी नाम के इस आदमी के सम्मोहन में जकड़-सा गया है।

“तुममें कुछ खास बात है, इसीलिए मेरा तुम्हारी तरफ ध्यान गया।” डिकी ने कहा, “यह मत समझ लेना कि मैं तुम पर कोई दया दिखा रहा हूँ या अहसान कर रहा हूँ। तुम योग्य हो, प्रतिभाशाली हो। वरना तो दिल्ली में कितने ही लड़के हैं जो कुछ बनना चाहते हैं और इसके लिए बुरी तरह संघर्ष कर रहे हैं...हाथ-पैर मार रहे हें। पर तुम सबसे अलग हो। तुम्हारे चेहरे पर बुद्धिमत्ता की छाप है। इसीलिए पहली बार तुम्हें देखा, तभी से मुझे लग रहा है, तुम्हें बहुत ऊपर उठना चाहिए।”

इस प्रशंसा से गोलू और अधिक सकुचा गया था। हालाँकि वह महसूस कर रहा था, उसके मन के आँगन में ढेरों गुलाब खिल गए हैं—नई उमंगों और उम्मीदों की कलियाँ चटख रही हैं, चट-चट, चट-चट, चट...! ओह, इतना खुश वह पहले कब था?

गोलू समझ नहीं पा रहा था, इतनी खुशी भला उसके अंदर कैसे समा सकेगी? वह सोच रहा था—क्या सचमुच भाग्य ने उसका जीवन इतने क्रांतिकारी ढंग से बदल दिया है, क्या सचमुच?

और वह सफेद मारुति कार फिर से दिल्ली की सड़कों पर दौड़ पड़ी। दौड़ती रही...दौड़ती रही...दौड़ती रही...!