एक था ठुनठुनिया - 21 Prakash Manu द्वारा बाल कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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एक था ठुनठुनिया - 21

21

नाच-नाच री कठपुतली

एक दिन ठुनठुनिया रग्घू खिलौने वाले के यहाँ से घर आ रहा था कि रास्ते में एक जगह उसे उसे भीड़ दिखाई पड़ी। पास जाकर उसने पूछा तो किसी ने बताया, “अरे भई, अभी यहाँ कठपुतली का खेल होगा। जयपुर का जाना-माना कठपुतली वाला मानिकलाल जो आया है। ऐसे प्यारे ढंग से कठपुतलियाँ नचाता है कि आँखें बँध जाती हैं। जादू-सा हो जाता है।...”

सुनकर ठुनठुनिया अचंभे में पड़ गया। कई साल पहले एक बार उसने कठपुतली का खेल देखा था। उसकी हलकी-सी याद थी। सोचने लगा, ‘क्यों न आज जमकर कठपुतली के खेल का आनंद लिया जाए!’

और सचमुच जब मानिकलाल की सारी तैयारी हो गई और कठपुतली का खेल शुरू हुआ, तो ठुनठुनिया पर जैसे नशा-सा हो गया था। खेल इतना रोमांचक था और कठपुतलियों के नाच में ऐसी गजब की लय थी कि लोग बार-बार तालियाँ बजाते थे। इनमें ठुनठुनिया की तालियों की आवाज अलग से और दूर तक सुनाई देती थी।

दर्शकों का उत्साह देखा तो गुलाबी फूलदार पगड़ी पहने, बड़ी-बड़ी काली मूँछों वाला मानिकलाल भी जोश में आ गया। वह ऐसे-ऐसे कमाल के खेल दिखाने लगा, जिन्हें वह बस कभी-कभार बड़े-बड़े लोगों के आगे ही दिखाया करता था। इनमें राजा लक्खू शाह और अपने रूप पर गर्व करने वाली रानी मानवती की कथा तो बड़ी ही अनोखी थी। सतखंडे महल में रहने वाली भोली-भाली राजकुमारी चंपावती और उसकी सात सहेलियों की कथा भी कमाल की थी। हर कथा में कठपुतलियों का अलग-अलग तरह का नाच था।

इसी तरह राजा रज्जब अली और दुष्ट मंत्री दुर्जन की कथा में तलवारों की ‘झन-झन, झन-झन’ दूर तक गूँज रही थी और उनकी लड़ाई देखकर सब ‘वाह! वाह!’ कर रहे थे। रुनक-झुनक नाचती कठपुतलियाँ नाच-नाच में चुपके से ऐसे अपना हाव-भाव, प्यार और गुस्सा प्रकट करती थीं कि जैसे ये कठपुतलियाँ नहीं, जिंदा इनसान हों। बीच-बीच में मानिकलाल कभी-कभी दो ऐसे सुरीले बोल बोल देता कि पूरे खेल में जान पड़ जाती।

ठुनठुनिया ने कठपुतली का यह अनोखा खेल देखा, तो रग्घू चाचा के खिलौने और उनकी रंग-बिरंगी दुनिया एकदम भूल गया। वे खिलौने चाहे कितने ही सुंदर हों, पर चलते तो न थे। पर ये कठपुतलियाँ तो ऐसे रुनक-झुनक नाचती हैं कि देखकर पत्थरदिल आदमी भी ‘वाह! वाह!’ कर उठे। सो ललचाकर बोला, “भाई मानिकलाल, तुम्हारी उँगलियों में तो जादू है। मुझे भी सिखा दो यह अनोखा खेल!”

मानिकलाल अपनी बड़ी-बड़ी मूँछों में हँसकर बोला, “क्यों नहीं ठुनठुनिया! पर यह कोई दो-एक दिन का काम तो है नहीं। महीनों साथ रहना पड़ेगा। साथ रहते-रहते खुद ही सीख जाओगे। और फिर हमारे साथ-साथ पूरे देश की यात्रा भी कर लोगे, क्योंकि हमारा तो यह हिसाब है, आज दिल्ली, तो कल बनारस, परसों कलकत्ता...!”

“अरे वाह! तब तो मुझे और भी अच्छा लगेगा। मैं घूमने-घामने का तो बहुत शौकीन हूँ। मानिक भाई, मैं जरूर चलूँगा तुम्हारे साथ।” ठुनठुनिया की आँखों में चमक उमड़ आई।

ठुनठुनिया ने कह तो दिया, पर अंदर-अंदर सोच रहा था, ‘रग्घू चाचा को मेरा कितना सहारा है! इस तरह अधर में छोड़ देने पर उन्हें कितना दु:ख होगा। और फिर माँ! क्या माँ मुझे घर छोड़कर शहर-शहर भटकने की इजाजत देती? वह तो यही कहेगी कि कठपुतली का खेल दिखाना है तो यहीं रहकर सीख और दिखा। इसके लिए घर छोड़ने की भला क्या दरकार?’

माँ की उदासी की कल्पना करके ठुनठुनिया का दिल बैठने लगा।

घर आकर उसने माँ से डरते-डरते कहा, “माँ, माँ, जयपुर का मशहूर कठपुतली वाला मानिकलाल अपनी कठपुतलियाँ लेकर आया है। ऐसे नचाता है कठपुतलियों को कि आँखें बस वहीं बँध जाती हैं।”

“अच्छा बेटा, तो तू भी देख आ एक बार जाकर।” गोमती ने लाड़ से भरकर कहा।

“देख तो लिया माँ! आज देखकर ही तो आ रहा हूँ।” कहकर ठुनठुनिया एक बार फिर देखे हुए खेल के बारे में माँ को बताने लगा।

“अच्छा, अच्छा! चल, अब तुझे भूख लगी होगी। हाथ-मुँह धो। मैं अभी खाना तैयार करती हूँ।” गोमती ने बड़े दुलार से कहा।

ठुनठुनिया हाथ-मुँह धोकर खाना खाने लगा, पर आज खाने में उसका मन नहीं लग रहा था। सोच रहा था, कैसे माँ से कहूँ कि मैं मानिकलाल कठपुतली वाले के साथ जाना चाहता हूँ। सुनकर उसे कितना दु:ख होगा? माँ तो एक दिन मेरे बगैर नहीं रह सकती। फिर जब चला जाऊँगा तो पीछे...?

आखिर हिम्मत करके ठुनठुनिया ने माँ से कह ही दिया, “माँ...माँ, मेरी इच्छा है कि मैं भी कुछ दिन मानिकलाल कठपुतली वाले के साथ-साथ शहर-शहर घूमूँ। नए-नए लोगों से मिलना हो जाएगा। कठपुतली नचाने का खेल भी सीख जाऊँगा।”

सुनकर गोमती एक पल के लिए बिल्कुल खामोश हो गई। जानती थी, ठुनठुनिया चंचल स्वभाव का है। पर वह उसे छोड़कर यहाँ-वहाँ कठपुतली का खेल दिखाते हुए भटकता रहेगा, इस कल्पना से ही उसे दु:ख हुआ।

“बेटा, छोड़ इन चक्करों को! जरा तू ढंग से पढ़-लिख लेता तो...!” गोमती ने कहा तो उसके अंदर का सारा दु:ख और निराशा उसके शब्दों में ढलकर बाहर आ रही थी। एक गहरी साँस लेकर बोली, “सच पूछो तो मुझे यह भी पसंद नहीं था कि तू पढ़ाई छोड़कर रग्घू चाचा के साथ ख्लिौने बनाने के काम में लग जाए। पर इतनी तो तसल्ली थी कि तू आँख के आगे था। रोज कम-से-कम तुझे देख तो लेती थी। और अब...! चल...तेरी मर्जी!” कहते-कहते गोमती की आँखें भर आईं और आवाज भर्रा गई।

“माँ, तू चिंता न कर। मैं कुछ-न-कुछ ऐसा सीखकर आऊँगा कि हमारे दिन खुशी-खुशी बीतेंगे। सारी मुश्किलें खत्म हो जाएँगीं।” कहकर ठुनठुनिया ने माँ को ढाढ़स बँधाया।

सुनकर माँ के मुख से काफी देर तक कोई बोल न निकला। फिर बोली, “अच्छा बेटे, तू जहाँ भी हो, वहाँ से चिट्ठी लिखते रहना। उसी के सहारे जीती रहूँगी।”

इसके बाद ठुनठुनिया ने रग्घू चाचा के पास जाकर उनसे भी इजाजत माँगी। रग्घू चाचा सुनकर एक क्षण के लिए तो सन्न रह गए। फिर बोले, “ठीक है ठुनठुनिया, जैसी तेरी मर्जी!...वैसे भी मिट्टी के पुरानी चाल के इन खिलौनों से तो कोई कमाई आजकल होती नहीं। प्लास्टिक के और न जाने कहे-काहे के खिलौने चल गए हैं। कोई कह रहा था, चीन के बने ख्लिौने आजकल आने लगे हैं, बाजार उनसे पट गया है। वही लोग बच्चों के लिए खरीद रहे हैं।

“पर कठपुतली का खेल अब भी बाबू लोग चाव से देखते हैं। तू सीख लेगा तो चार पैसे कमाकर किसी तरह गुजर-बसर कर लेगा। और फिर इस खेल में जगह-जगह घूमना-फिरना होगा। अलग-अलग लोग मिलेंगे। अलग-अलग पानी और मिट्टी का स्वाद...! कुछ न कुछ नया सीखकर ही आएगा।”

कहते हुए रग्घू चाचा की आँखें नम थीं। बड़ी मुश्किल से उन्होंने अपने आँसुओं को छिपाया।

“रग्घू चाचा, बुरा न मानो तो एक बात कहूँ!” ठुनठुनिया बोला, “मेरा एक दोस्त है—गंगू। केकापुर का गंगू। एकदम सीधा-सच्चा है। मेहनती भी है। आजकल थोड़ी तंगी में है। पूछ रहा था कि क्या रग्घू चाचा मुझे भी खिलौने बनाना सिखा देंगे? वो आपके पास ही रहेगा! सीखेगा, काम भी करेगा। रग्घू चाचा, अगर आप कहें तो...!”

और रग्घू चाचा की ‘हाँ’ सुनते ही ठुनठुनिया केकापुर की ओर दौड़ पड़ा। वहाँ पहुँचकर उसने गंगू को बताया, “गंगू...ओ गंगू, तेरे लिए काम खोज लिया है!”

गंगू ठुनठुनिया की बात सुनकर इतना खुश हुआ कि उछल पड़ा। अगले दिन ही उसने द्वारकापुरी में रग्घू चाचा के पास जाने का फैसला कर लिया।

और ठुनठुनिया को लगा, उसकी यात्रा का महूर्त तो अब निकला है!

और अगले दिन ठुनठुनिया मानिकलाल के साथ आगरा की यात्रा पर रवाना हो गया। वहाँ राजा की मंडी में एक बड़े सेठ ने अपने पोते के जन्मदिन पर कठपुतली का खेल दिखाने के लिए उसे बुलाया था। ठुनठुनिया साथ गया और रास्ते में मानिकलाल से बात करके उसने इस खेल के खास-खास गुर सीख लिए।

सेठ की कोठी पर पहुँचने से पहले एक खाली मैदान में सेट तैयार करके मानिकलाल ने ठुनठुनिया को कठपुतली नचाना सिखाया। ठुनठुनिया जल्दी ही सीख गया कि किस तरह डोरियाँ खींचने से कठपुतलियाँ आगे-पीछे दौड़ती, उछलती-कूदती हैं। यों जल्दी ही वह कठपुतली के दो-चार खेल सीख गया, बल्कि अपनी ओर से हर खेल में वह कुछ-न-कुछ नया नाटक जोड़ देता। इससे खेल में नया रंग आ जाता।

कभी-कभी वह मुँह से ही घुँघुरुओं की झंकार जैसी आवाज निकालने लगता। ऐसा लगता, जैसे सचमुच के ही घुँघरू बज रहे हैं, बड़ी मीठी झंकार के साथ। कभी पक्षियों की चीं-चीं, चूँ-चूँ, पिहु-पिहु और क्याऊँ-क्याऊँ जैसी आवाज निकालता तो कभी सुरीले ढंग से किसी गाने के बोल निकालता हुआ कुछ नया ही रंग जमा देता।

मानिकलाल ने ठुनठुनिया का यह रंग, यह अंदाज देखा तो खुश होकर बोला, “वाह ठुनठुनिया! तू तो इस खेल में बहुत आगे जाएगा। कहे तो यह मैं तुझे कोरे कागज पर लिखकर दे दूँ।...”

सेठ किरोड़ीमल ने पहले भी कई बार मानिकलाल का कठपुतली का खेल देखा था। हर बार खासा इनाम देकर वह अपनी खुशी जाहिर करता था। पर इस बार ठुनठुनिया के आ जाने से खेल में जो नया जोश और रस पैदा हो गया था, उसने सेठ किरोड़ीमल को एकदम रिझा लिया। सेठ जी ने ठुनठुनिया की खूब पीठ ठोंकी और मानिकलाल तथा ठुनठुनिया के आगे अपनी थैली का मुँह खोल दिया।

“यह क्या...!” सौ-सौ के पाँच नोट देखकर ठुनठुनिया हक्का-बक्का।

“ले ले ठुनठुनिया, ले ले। सेठ जी खुश हैं। हम उनकी खुशी में शामिल होंगे, तो उन्हें अच्छा लगेगा।” मानिकलाल ने समझाया तो ठुनठुनिया ने नोट जेब में डाले। तभी एकाएक माँ का चेहरा उसकी आँखों के आगे आया। आँखें छलछला गईं।

अब तो मानिकलाल के कठपुतली के खेल की मशहूरी दिन दूनी, रात चौगुनी होने लगी। मानिकलाल का इतना नाम सुना तो वे सेठ, व्यापारी और जमींदार लोग जिन्होंने बरसों पहले उसका खेल देखा था, अब फिर से बुलाकर खेल देखने की इच्छा प्रकट करने लगे। पहले मानिकलाल को खेल दिखाने के बाद बीच-बीच में दो-चार दिन खाली भी बैठना पड़ता था। पर अब तो हालत यह थी कि उसे एक ही दिन में तीन-तीन, चार-चार खेल दिखाने पड़ते थे। जब बड़े शहरों में नुमाइशें लगतीं, तब भी उसे खेल दिखाने के लिए बाकायदा इज्जत से बुलाया जाता था।

कभी-कभी तो राजधानी में नेता और मंत्री लोग भी अपनी-अपनी कोठियों में मानिकलाल को खेल दिखाने के लिए बुला लेते। ऐसे मौकों पर ठुनठुनिया बात की बात में झट से कोई नया, मजेदार नाटक रच देता और कठपुतली के खेल का ऐसा रंग जमाता कि सभी प्रसन्न हो उठते। कभी-कभी ये कठपुतलियाँ सचमुच की जनता बन जातीं। तब वे नेताओं के काम और चरित्र पर ऐसी फब्तियाँ कसतीं और भ्रष्ट नेताओं को ऐसे फटकारतीं कि लोग हैरान रह जाते।

परदे के पीछे बैठा ठुनठुनिया साथ ही कोई-न-कोई ऐसा गीत छेड़ देता कि जनता के दु:ख की आवाज उसके गीतों में ढल जाती। तब खेल के बाद नेता को कहना पड़ता, “हमें मालूम है कि हमारी जनता दुखी और बेहाल है। ठुनठुनिया ने हमारा ध्यान खींचा। हम जल्दी ही लोगों का दु:ख दूर करने के लिए कुछ करेंगे...!”

ऐसे खेलों में ठुनठुनिया को खास इनाम मिलता। और मानिकलाल का घर-बार तो धन-समृद्धि से छन-छन करने लगा। दिल का वह उदार था। इसलिए जब खूब पैसा मिलता तो वह ठुनठुनिया को उदारता से देता। ठुनठुनिया ने एक अच्छा-सा संदूक खरीद लिया था, जिसमें मानिकलाल और दूसरों से इनाम में मिले रुपए रखता जाता था। आसमानी रंग के उस संदूक पर हमेशा एक बड़ा-सा अलीगढ़ी ताला लटका रहता।

ठुनठुनिया सोचता, ‘जब घर जाऊँगा तो माँ के लिए खूब अच्छे-से कपड़े और दूसरी चीजें ले जाऊँगा। देखकर माँ कितनी खुश होगी!’

पर घर जाने का मुहूर्त अभी आया ही न था। और ठुनठुनिया कठपुतलियों की कला में इतना उलझा कि सब कुछ भूल गया।