ममता की परीक्षा - 38 राज कुमार कांदु द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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ममता की परीक्षा - 38



मास्टर रामकिशुन की नाराजगी के अहसास ने ही गोपाल के हाथ पाँव फुला दिए थे। कुछ और न सूझा तो सीधे उनके पैरों में ही गिर पड़ा, " बाबूजी, मुझे माफ़ कर दीजिए। मैं यहाँ पहुँचने के साथ ही आपको सब सच सच बता देना चाहता था। सब कुछ सोच और समझ भी लिया था मैंने तो, बल्कि साधना से यह बात बताया भी था लेकिन पता नहीं क्यों, आपके सामने आते ही मेरी हिम्मत जवाब दे गई। तब उस समय मुझे दिल से महसूस हुआ कि सचमुच कभी कभी सच कहना कितनी बहादुरी का काम होता है, और जब हिम्मत जवाब दे गई तब मुझे झूठ बोलना ही पड़ा। मुझे माफ़ कर दीजिए। आपको अँधेरे में रखने की मेरी कोई मंशा नहीं थी।"

अपने दोनों हाथों से गोपाल के कंधों को पकड़कर उठाते हुए मास्टर रामकिशुन बोले, "बेटा, गलती को स्वीकार कर उसके लिए क्षमाप्रार्थी होना बड़प्पन की निशानी समझी जाती है, और मुझे ख़ुशी हुई कि तुमने बिना किसी लागलपेट के अपनी गलती मान ली। गलतियाँ इंसानों से ही होती हैं बेटा, लेकिन मेरे मुताबिक की गई गलतियों पर पर्दा डालनेवाले खुद को इंसान कहलाने का दर्जा खो देते हैं। जबकि इन गलतियों को स्वीकार कर और उससे सबक लेकर जीवन में आगे बढ़ने वाला इंसान कामयाब होता है अपने जीवन में। कोई बात नहीं, परिस्थिति जन्य मजबूरी के चलते तुमने झूठ बोला लेकिन उसे स्वीकार भी कर लिया। अब प्रण कर लो जीवन में कभी भी किसी भी परिस्थिति में तुम झूठ नहीं बोलोगे। सत्य का हाथ थामकर तुम्हें जीवन में कभी निराश नहीं होना पड़ेगा।"

"मैं वादा करता हूँ बाबूजी ! आज के बाद मैं कभी भी और किसी भी परिस्थिति में सत्य का दामन नहीं छोड़ूँगा। राजा हरिश्चंद्र तो नहीं बन सकता लेकिन एक अच्छा इंसान बनने की कोशिश अवश्य करूँगा।" कहते हुए गोपाल की नजरें झुकी हुई थीं और दोनों हाथ माफ़ी की चाहत में जुड़े हुए।

"सुबह के भूले को भूला नहीं कहा जाता। चलो बेटा,अब घर चलें।" गोपाल की तरफ देखते हुए मास्टर ने उसके हाथों को थामते हुए कहा और खुद घर की तरफ वापसी के सफर पर आगे बढ़ गए।

गोपाल भी उनके पीछे घिसटने के अलावा और क्या कर सकता था ? कुछ ही पल बीते न होंगे कि अचानक जैसे उन्हें कुछ याद आया हो, कुछ कहने के लिए पीछे मुड़े लेकिन गोपाल पीछे कहाँ था ? वह तो बहुत पीछे था। उसे देखकर ऐसा लग रहा था जैसे वह बहुत थक गया हो।

मास्टर को अपनी तरफ देखकर कुछ बोलने का आभास कर वह थोड़ी तेजी से उनकी तरफ लपका और नजदीक पहुँच कर बोला, " जी बाबूजी ! आप कुछ कहना चाहते थे ?"

" हाँ !" मास्टर ने मुस्कुराते हुए उसके चेहरे का निरीक्षण किया जिससे थकान साफ़ जाहिर हो रही थी, "मैं ये याद दिलाना चाहता था कि तुम्हारे पास कल तक का समय है। जैसा कि मैंने पहले भी कहा है , अपना भला बुरा सब अच्छी तरह सोच समझकर सही निर्णय करो और मुझे कल तक अपने फैसले से अवगत करवा दो। वैसे अभी तो थोड़ा ही चले हो बरखुरदार ! यह समझने के लिए काफी है कि गाँव की जिंदगी इतनी भी आसान नहीं है।" और अपनी बात समाप्त कर मास्टर अपने घर की दिशा में आगे बढ़ गए।
गोपाल ख़ामोशी से उनके पीछे पीछे मजबूरी में अपने थके हुए पैरों को लिए घिसटता रहा। सुबह शौच के लिए इतनी दूर जाना भी उसे असह्य लग रहा था लेकिन अपने आसपास खेतों में उमड़ी कुदरत की सुंदरता को महसूस कर उसे थकान रत्ती भर भी महसूस नहीं हुई थी। उसे तो इस बात की हैरानी भी हो रही थी कि वह आज इतना पैदल कैसे चल लिया ? दोपहर तालाब की खोज और फिर नहाकर वापस घर तक पहुँचने में वह पूरी तरह से थक चुका था लेकिन उसने अपने मन का भाव किसी पर जाहिर नहीं होने दिया था।.. और फिर भोजन करने के बाद तुरंत ही दो किलोमीटर का यह नाहक ही चक्कर। वह वाकई थक कर चूर हो चुका था। उसे लग रहा था अचानक उसके जिस्म का बोझ काफी बढ़ गया है ,जिसे उठाने में अब उसके पैर असमर्थ साबित हो रहे थे। जितना वह आज चला था उससे आधा भी कभी उसे चलने का अवसर नहीं मिला था। किसी तरह थका मांदा वह मास्टर के पीछे पीछे उनके घर पहुँचा।

तेज धूप में चलने की वजह से गर्मी व उमस से परेशान गोपाल की कमीज पसीने से भीगकर पूरी तरह उसके जिस्म से चिपक गई थी। खटिये को बरामदे में डालकर उसपर बैठते हुए गोपाल की नजर बरबस ही छत की तरफ चली गई। उसका जी चाह रहा था कि कोई तेजी से पंखा चला दे , लेकिन ऊपर नजर पड़ते ही उसे घोर निराशा हुई। ऊपर पंखा जैसा कुछ था ही नहीं।

तभी साधना अपने हाथों में हाथ से घूमनेवाली दो पंखियाँ लेकर आई और एक गोपाल की खाट पर रखकर दूसरी पंखी वहीँ करीब ही दूसरे खटिये पर लेटे मास्टर रामकिशुन के ऊपर घूमाने लगी। उसको पंखी घूमाते देखकर गोपाल ने भी उसका अनुसरण किया। पंखी से निकली थोड़ी सी हवा भी उसे भली लग रही थी।कुछ देर तक वह यूँ ही बैठा पंखी घूमाते रहा और फिर पता नहीं कब वह खटिये पर लेट गया और उसकी आँख लग गई।

क्रमशः