Raj-Throne--Part(19) books and stories free download online pdf in Hindi

राज-सिंहासन--भाग(१९)

इस घटना के कारणवश उन सभी को आपस में वार्तालाप का समय ही नहीं मिला,ये सब एकाएक हुआ था उन्होंने सोचा ही नहीं कि इस प्रकार बसन्तसेना से उनका मेल होगा,वे सभी विवश थे एकदूसरे से कुछ भी बोलने हेतु,आगें की योजना क्या होगी?बसन्तसेना ने प्रश्न पूछे तो वें किस प्रकार उनका उत्तर देगें?वें सभी ये समझ नहीं पा रहें थे इसलिए मौन रहने में ही सबने अपनी भलाई समझी।।
रात्रि का तीसरा पहर बीतने को था एवं वें सभी बसन्तसेना के निवासस्थान पहुँच चुके थे,जहाँ वो कन्दरा थी जिसमें बसन्तसेना वास करती थी,घना अँधेरा एवं सघन वन के मध्य पहुँचकर वें सभी अत्यधिक भयभीत थे,किन्तु बसन्तसेना की कन्दरा के चहुँ ओर अग्निशालाकाओं (मशाल)का प्रकाश था एवं वें उस प्रकाश में अब सबकुछ देख पा रहे थे ,कितना भी साहस करने के उपरांत भी किन्तु अभी भी भीतर से भय तो था, उस पर उन सभी को ज्ञात था कि बसन्तसेना अत्यन्त मायाविनी है एवं अपनी शक्तियों द्वारा किसी को भी सम्मोहित कर सकती है,उस पर उसकी सुन्दरता के बल पर वो किसी को भी मोहित करके अपने वश में कर लेती है,सबसे अधिक भय तो सोनमयी को था क्योंकि उसके संग तीन पुरूष थे,बसन्तसेना को ना जाने कौन भा जाएं और वो अपनी दृष्टबंधक शक्ति द्वारा किसको अपने वश में कर लें,यदि इनमें से उसने किसी को आपने वश में करके उन सबकी योजना और रहस्य को ज्ञात कर लिया तो ना जाने क्या होगा?
इसी प्रकार के विचार सोनमयी के मस्तिष्क में आवागमन कर रहे थे,तभी बसन्तसेना के सैनिकों के मुखिया ने कहा....
तुम लोंग यहीं प्रतीक्षा करों,मैं रानी बसन्तसेना को लेकर अभी आया......
सभी एक दूसरे का मुँख देखकर प्रतीक्षा कर रहे थें परन्तु उनके मध्य वार्तालाप बंद था,सभी के हृदयों की हृदयगति तीव्र थी,परन्तु साथ में बसन्तसेना को देखने की भी उत्सुकता थी,कुछ ही समय पश्चात बसन्तसेना उन सभी के समक्ष उपस्थित हुई,बसन्तसेना ने सैनिकों के मुखिया से कहा.....
अब विस्तार से कहो कि ये सब कौन हैं एवं इनका इतना साहस कैसें हुआ हमारी निवासस्थान की सीमा लाँघने का?
जी!आपके निवासस्थान की सीमाएं लाँघने का साहस भला कौन कर सकता है देवी! हम तो अपने मार्ग से भटक गए थे ,थके हुए थे इसलिए विश्राम हेतु ठहर गए,ये सब भूलवश हुआ,इसके लिए मैं क्षमा चाहता हूँ,सहस्त्रबाहु बोला।
जो भी हो परन्तु तुम सभी को इस भूल का दण्ड तो भुगतना ही पड़ेगा,बसन्तसेना बोली।।
ये कोई अक्षम्य अपराध तो नहीं देवी! आप जैसी रूप-लावण्य की मूर्ति से मैं ऐसी आशा तो नहीं करता,सहस्त्रबाहु बोला।।
तुम तो अत्यधिक साहसी प्रतीत होते हों,बसन्तसेना बोली।।
ना देवी! आपके रूप को देखकर ऐसा प्रतीत नहीं होता कि आप इतनी क्रूर होगीं तभी तो आपसे इतना सब कहने का साहस कर पाया,सहस्त्रबाहु बोला।।
मुझे तुम्हारी निडरता ने मोह लिया नवयुवक,परिचय क्या है तुम्हारा? बसन्तसेना ने पूछा।।
जी! हर्षवर्धन नाम है मेरा,ये मेरी बहन स्वर्णलता,ये मँझला भाई भालचन्द्र और ये सबसे छोटा चन्द्रसेन,साधारण से परिवार से हूँ,यही परिचय है मेरा,हर्षवर्धन बना सहस्त्रबाहु बोला।।
तुम्हारी मधुर वाणी ने तो मुझे मोह लिया,बसन्तसेना बोला।।
क्षमा कीजिएगा देवी! किन्तु मैं विवाहित हूँ,एवं मेरा एक पुत्र भी है,हर्षवर्धन बना सहस्त्रबाहु बोला।।
तुम्हारी आयु देखकर तो ऐसा प्रतीत नहीं होता कि तुम विवाहित होगें,बसन्तसेना बोली।।
हमारे अग्रज अपने स्वास्थ्य और सुन्दरता का अत्यधिक ध्यान रखतें हैं इसलिए उनकी आयु उतनी नहीं दिखती जितनी की है,चन्द्रसेन बना ज्ञानश्रुति बोला।।
मैनें तुमसे तो कुछ नहीं पूछा तो तुम हमारे मध्य हो रहें वार्तालाप के मध्य में कैसें बोल पड़े.?बसन्तसेना चन्द्रसेन बने ज्ञानश्रुति पर क्रोधित होकर बोली।।
क्रोधित ना हो देवी! आपके मुँख पर इस प्रकार के भाव शोभा नहीं देते,आप जैसी कोमालांगी इस प्रकार क्रोध प्रकट करते हुए नहीं भाती,आपकी मधुर वाणी एवं समुद्र की भाँति लोचनों में में एक अद्भुत आकर्षण है जो किसी को भी अपनी ओर आकर्षित कर लें,सहस्त्रबाहु ने बसन्तसेना की प्रशंसा करते हुए कहा....
तुम मेरा उपहास करते हो ना! बसन्तसेना ने पूछा।।
जी!नहीं!आप जिस प्रशंसा के योग्य हैं वही तो कहता हूँ,सहस्त्रबाहु बोला।।
नवयुवक!कहीं तुम मेरा विश्वास जीतने के लिए तो ये नहीं कह रहे हो,बसन्तसेना बोली।।
मेरे द्वारा आपके लिए की गई प्रशंसा पर आपको संदेह है देवी!तो जाइए मैं कुछ नहीं कहता,सहस्त्रबाहु बोला।।
नहीं....नहीं...नवयुवक तुम रूठो नहीं,मेरा वो तात्पर्य नहीं था,बसन्तसेना बोली।।
मैं आपका तात्पर्य भली भाँति समझता हूँ,सहस्त्रबाहु बोला।।
आप कुछ नहीं समझे नवयुवक!बसन्तसेना बोली।।
प्रहेलिका(पहेली)मत बुझाइएं,सहस्त्रबाहु बोला।।
मैं ये कहना चाहती हूँ कि आप मेरी कन्दरा के भीतर चलकर विश्राम करेंगें तो मुझे अत्यधिक प्रसन्नता होगी,बसन्तसेना बोली।।
आपको हम सभी पर इतना विश्वास है,हर्षवर्धन बने सहस्त्रबाहु ने पूछा।।
नवयुवक केवल तुम पर,बसन्तसेना बोली।।
इसका तात्पर्य है कि हम अपने अग्रज हर्षवर्धन के संग कन्दरा में प्रवेश नहीं कर सकते ,स्वर्णलता बनी सोनमयी बोली।।
जी!नहीं! वहाँ तुम सभी का प्रवेश वर्जित है,मैं केवल उसे वहाँ ले जाती हूँ जो मेरा विश्वासपात्र बन जाता है एवं मुझे हर्षवर्धन के अलावा किसी पर विश्वास नहीं,बसन्तसेना बोली।।
क्या मैं पूछ सकता हूँ कि आपकी कृपा मुझ पर ही क्यों बरसी देवी?सहस्त्रबाहु ने पूछा।।
जी! आपका पारदर्शी चरित्र एवं वाक्पटुता मुझे भा गई,बसन्तसेना बोली।।
मेरे तो भाग्य ही खुल गए आपकी प्रतिक्रिया देखकर,सहस्त्रबाहु बोला।
जी!तो बिलम्ब किस बात का तुम मेरे संग कन्दरा के भीतर चलो,बसन्तसेना बोली।।
जी! अत्यधिक आभार आपका किन्तु मैं अपने अनुजो और बहन के बिना कन्दरा के भीतर नहीं जा सकता,सहस्त्रबाहु बोला।।
तो पड़े रहें तुम भी यहीं पर,बसन्तसेना बोली,.
तो अब इनका क्या करना है देवी? सैनिकों के मुखिया ने बसन्तसेना से पूछा।।
एवं इसके उपरान्त बसन्तसेना अपने सैनिकों को आदेश देते हुए बोली...
इन सभी को बंदी बनाकर वृक्ष से बाँध दो और इतना कहकर बसन्तसेना अपनी कन्दरा के भीतर चली गई...
बसन्तसेना के आदेश पर सहस्त्रबाहु के संग सभी को एक संग वृक्ष के सहारे बाँध दिया गया,सैनिकों के इधरउधर होते ही चन्द्रसेन बने ज्ञानश्रुति ने सहस्त्रबाहु से पूछा...
भ्राता!आप कन्दरा के भीतर क्यों नहीं गए? आपको इस अवसर को खोना नहीं चाहिए था।।
मुझे तुम सभी से वार्तालाप करना था कि अब हमारी अगली योजना क्या होगी?हर्षवर्धन बना सहस्त्रबाहु बोला।।
योजना तो यही होगी कि आपको अब कन्दरा के भीतर जाना चाहिए एवं बसन्तसेना के संग प्रेमभरा वार्तालाप करके उसके रहस्यों को ज्ञात कीजिए,बसन्तसेना तो आप पर पहले से ही आकर्षित है,इसी अवसर का लाभ उठाइए,भालचन्द्र बना वीरप्रताप बोला।।
तुम्हारी बात से मैं सहमत हूँ वीर!किन्तु मैं कन्दरा के भीतर गया तो ऐसा ना हो कि तुम सभी पर कोई संकट आ खड़ा हो,हर्षवर्धन बना सहस्त्रबाहु बोला।।
ऐसा कुछ भी नहीं होगा भ्राता!आप चिन्तित ना हो,स्वर्णलता बनी सोनमयी बोली।।
मुझे बसन्तसेना पर तनिक भी विश्वास नहीं है,हर्षवर्धन बने सहस्त्रबाहु ने बोला।।
हम सभी यहाँ सुरक्षित हैं,आप हमारे विषय में अत्यधिक ना सोचें,आप अपना संकल्प ध्यान करें कि आप यहाँ किस कार्य हेतु आएं हैं,उसे पूर्ण करना आपका धर्म है,आप अपने माता पिता को मुक्त कराने यहाँ आएं हैं एवं आपको अपने लक्ष्य को ध्यान में धरना सर्वोपरि है,चन्द्रसेन बना ज्ञानश्रुति बोला।।
क्या बात है आजकल राजकुमार ज्ञानश्रुति बड़ी बुद्धिमानी वाली बातें करने लगें हैं,स्वर्णलता बनी सोनमयी बोली।।
बस!,देवी!आपकी संगति का असर है,ज्ञानश्रुति बोला।।
परन्तु अब मैं क्या करूँ ?अभी तो बसन्तसेना मुझसे रूष्ट होकर चली गई,सहस्त्रबाहु बोला।।
कोई बात नहीं भ्राता!आप प्रातःकाल तक प्रतीक्षा कर लीजिए,जब बसन्तसेना आपके समक्ष आएं तो उससे मधुभरा वार्तालाप करके पुनः अपनी ओर आकर्षित कर लीजिए,तब आप उसके संग कन्दरा के भीतर प्रस्थान कीजिएगा,भालचन्द्र बना वीरप्रताप बोला।।
ये योजना ही उचित रहेगी,सहस्त्रबाहु बोला।।
परन्तु!भ्राता!हम ऐसे वृक्ष से बँधे रहकर विश्राम कैसें कर सकते हैं?सोनमयी बोली।।
ये कार्य तो आप सैनिकों के मुखिया से करवा सकतीं हैं,वो भी तो आप पर मोहित था देवी सोनमयी!ज्ञानश्रुति बोला।।
राजकुमार ज्ञानश्रुति !मुझे इस प्रकार का परिहास तनिक भी नहीं भाता,सोनमयी क्रोधित होकर बोली।।
अरे!सोनमयी!राजकुमार ज्ञानश्रुति पर क्रोधित मत हो,वें सही कह रहे हैं,इस कठिनाई के क्षणों में हमें चतुरता और साहस के साथ कार्य करना होगा,तभी हम सभी सफल होगें,सहस्त्रबाहु बोला।।
छीः..छीः....वो अभद्र सा दिखने वाला मुखिया,मुझे उससे मधुरतापूर्ण व्यवहार करना होगा,सोनमयी बोली।।
तब तो आपको बड़ी हँसी आती थी जब मुझे कादम्बरी बना कर सुकेतुबाली के समक्ष जाना होता था,कुछ उसी प्रकार का कार्य अब आपको भी करना होगा देवी सोनमयी,ज्ञानश्रुति बोला।।
इतना घृणित कार्य मैं कैसे कर सकूँगी?सोनमयी बोली।।
जैसे मैं करता था उस दंभी के साथ,ज्ञानश्रुति बोला।।
ठीक है....ठीक है,इतना बल मत दीजिए कि आपने सुकेतुबाली को रिझाया था,सोनमयी बोली।।
मैं तो केवल आपको रिझाने का प्रकार बता रहा था,ज्ञानश्रुति बोला।।
मुझे आपसे कुछ भी ज्ञात करने की आवश्यकता नहीं है,मुझे ज्ञात है कि मुझे क्या करना होगा?सोनमयी बोली।।
तो अपना कार्य प्रारम्भ कीजिए,ज्ञानश्रुति बोली।।
और सोनमयी ने झूठ मूठ का चिल्लाना शुरू कर दिया......
बचाओ....बचाओ....यहाँ इस वृक्ष की शाखा पर मैनें इतना बड़ा सर्प देखा।।
सोनमयी का उच्च स्वर सुनकर सभी सैनिक और मुखिया उस ओर भागें और उससे पूछा कि क्या हुआ?
तब सोनमयी बोली.....
मैनें वृक्ष की शाखा पर सर्प देखा,जिसे देखकर मैं भयभीत हो गई,क्या करूँ एक युवती हूँ ना! परन्तु तुम सबके मुखिया मुझ दुखियारी का दर्द समझते ही नहीं,यदि मेरा दर्द समझते होते तो मुझे इस प्रकार वृक्ष से ना बंँधवाते।।
सोनमयी के ऐसे मधुर बोल सुनकर मुखिया के मुँख पर एक कुटिल मुस्कान आ गई एवं वों सोनमयी से बोला....
नहीं!स्वर्णलता!मैं तुम्हारा दुख समझता हूँ,अभी सैनिकों को आदेश देता हूँ कि वें तुम्हें वृक्ष से ना बाँधें केवल तुम पर दृष्टि रखें।।
परन्तु मेरे भाईयों पर कोई संकट आ गया तो,इन्हें कुछ हो गया तो मैं अपने माता पिता को क्या उत्तर दूँगी?स्वर्णलता बनी सोनमयी बोली।।
मैं तुम्हारे भाइयों को भी मुक्त कर देता हूँ,तुम सभी वृक्ष के तले सरलता से लेटकर विश्राम करों,मुझे कोई आपत्ति नहीं,सैनिक तुम सभी पर केवल दृष्टि ही रखेगें अब बंदी नहीं बनाऐगें,मुखिया बोला।।
म़ै आपका आभार किस प्रकार प्रकट करूँ?कुछ समझ नहीं आता,आपकी कृतज्ञता पाकर तो मैं धन्य ही हो गई,आप कितने महान हैं,स्वर्णलता बनी सोनमयी बोली।।
स्वर्णलता!ऐसा मत कहो,ये तो मेरा कर्तव्य है एवं तुम सभी अपराधी तो नहीं हो,मार्ग ही तो भूले हो,तुम सभी को इस बात का इतना बड़ा दण्ड नहीं मिलना चाहिए,मुखिया बोला।।
आपका हृदय कितना विशाल है महानुभाव! स्वर्णलता बोली।।
तुम्हारी दृष्टि ही पारदर्शी है,मैं इतना महान कहाँ?जितना कि तुम समझ रही हो,मुखिया बोला।।
यदि आपका वार्तालाप समाप्त हो गया तो कृपया हम सभी को मुक्त कर दीजिए,ज्ञानश्रुति बोला।।
मैं तो ये भूल ही गया,मुखिया बोला।।
एवं इसके उपरान्त मुखिया ने सैनिकों को आदेश दिया कि सभी को मुक्त कर दिया जाएं एवं वें सभी वृक्ष तले सो भी सकते हैं,मुखिया के आदेश का पालन हुआ और सभी धरती पर विश्राम करने हेतु लेट गए,सैनिकों के उस स्थान से जाने के उपरान्त भालचन्द्र बना वीरप्रताप बोला.....
सोनमयी!क्या अभिनय किया है तुमने?
सच!सोनमयी!कठिनाई को सरल कर दिया तुमने,सहस्त्रबाहु बोला।।
मेरे साथ रहकर देवी सोनमयी को भी अभिनय करना आने लगा है ज्ञानश्रुति बोला।।
राजकुमार! इतनी कुशलता है मुझसे,मुझे आपसे कुछ भी सीखने की आवश्यकता नहीं है,सोनमयी बोली।।
अच्छा!अब वार्तालाप बंद करो,किसी ने सुन लिया तो संकट आन खड़ा होगा,सभी विश्राम करो,कुछ समय पश्चात प्रातः होने वाली है,सहस्त्रबाहु बोला।
और सभी विश्राम करने में लीन हो गए......

क्रमशः.....
सरोज वर्मा....


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