साहित्य के शहसवार
यशवन्त कोठारी
जनाब को मैं तब से जानता हूं, जब मैंने साहित्य मंे अ, आ पढ़ना शुरू किया था। वे पढ़ने में मन्द बुद्धि थे, अतः दसवीं में फेल होकर जिला स्तर पर साहित्य-सेवा करने लगे।
मैंने अपनी पढ़ाई जारी रखी। उन्हांेने साहित्य के साथ-साथ राजनीति के फटे मंे भी अपनी टांग अड़ानी शुरू की। इसके परिणाम बड़े सुखद रहे। वे कभी साहित्य की मार्फत राजनीति पर अमरबेल की तरह छा जाते, कभी राजनीति के नीम पर चढ़कर साहित्य रूपी करेले बन जाते। वे तेजी से प्रगति की सीढ़िया चढ़ने लग गए, लेकिन उनकी रचनाएं जिले से ऊपर नहीं उठीं। उठती भी कैसे ? उन्हंे रचनाआंे के स्तर के बजाय अपना स्तर ज्यादा प्यारा था, जिसे वे बड़ी तेजी से उठाते जा रहे थे। उनकी राजनीति ने साहित्य मंे भी गुटबन्दी का ऐसा अखाड़ा खोदा कि कई सूरमा रोज तैयार होने लगे।
समय का चक्र चलता रहा। कालान्तर में वे एक पत्र के सम्पादक हुए; हिंदी-सलाहकार समितियांे के सदस्य, उपाध्यक्ष, मन्त्री और अध्यक्ष बने। मैं वहीं पर अड़ा रहा, जैसे देश की प्रगति अड़ी पड़ी है।
वे फिर आगे बढ़े। इस बार उन्हांेने एक लम्बी छलांग लगाई और अकादमी के पदाधिकारी हो गए। मजे की बात यह कि अभी भी उनकी रचनाआंे का स्तर नहीं बढ़ा।
साहित्य के शहसवारों में वे अपना नाम लिखवाकर अमर हो चुके थे। उनकी यह स्थिति देखकर मैं मन-ही-मन दुःखी हो रहा था; क्यांेकि सिवाय दुःखी होने के और मैं कर ही क्या सकता था !
इन्हीं शहसवारांे में से कुछ ने संकलन-सम्पादन का महान् दायित्व अपने हाथ में ले लिया ! अब लेखकांे की हालत यह हो गयी कि वे तेल की शीशी लेकर अंगद का पांव इन संकलन-संपादकों के आंगन में ढूंढ़ने लगे। कुछ लेखक इसमें सफल भी हो गए; लेकिन मैं जन्मजात अभागा, यहां भी असफल रहा। तुलसी बाबा ने सच ही कहा है-
‘‘सकल पदारथ हैं जग माहीं।
करमहीन नर पावत नाहीं।।’’
इन संकलन-संपादकों की सबसे बड़ी विशेषता यह रही है कि जिस विधा का संकलन किया, उसके लेखक/आलोचक ये लोग कभी नहीं रहे।
साहित्य के कुछ शानदार शहसवार विदेश जाकर हिन्दी में पी.एच.डी. कर आए। मेरे एक शहसवार मित्र, रूसी मित्रांे की चिट्ठियांे से, अमेरिकी पैसे से-‘भारतीय हिन्दी साहित्य मंे विदेश-यात्रा’ विषय पर शोध करने हेतु जापान चले गए। वापस आते हुए कुछ अन्य देशांे का भी अध्ययन कर लिया। उनके प्रवासकाल मंे मैंने उनके परिवार की आर्थिक स्थिति का अध्ययन कर समय का सदुपयोग किया। इस अध्ययन से ज्ञात हुआ कि शहसवारांे के लिए विदेश-यात्रा बहुत आवश्यक है; अन्यथा फ्रिज, कार, एयर-कंडीशनर घर मंे लाना नामुमकिन है !
हिन्दी साहित्य के इन मूर्धन्य शहसवारों ने भाषा, साहित्य और लेखन का तर्पण किया और खुद बड़े जागीरदार बन गए। विदेश गए तो अनुवाद साथ लाये, यहां से जाते समय एकाध संकलन लेते गए-दोनांे हाथांे मंे लड्डू !
इन कालजयी शहसवारांे ने अपनी घटिया पुस्तकांे की सरकारी खरीद करवा दी। कुछ लोग पॉकेट बुक्स के वाम मार्ग से, साहित्य की मंजिलांे से होते हुए अपने मकान की चौथी मंजिल की बालकनी मंे बैठकर साहित्य रचते रहे।
जो ज्यादा होशियार शहसवार थे, उन्होंने अपना सम्पूर्ण समय इस कार्य हेतु खर्च किया कि देखो, कहीं कोई गरीब-बुद्धिजीवी साहित्यकार दम तोड़ रहा है या नहीं ! फलतः स्वाभिमानी साहित्यकार तो बेचारा चौराहे पर भूखा-नंगा ही मर गया; और ये शहसवार उसके मरते ही दाह-संस्कार, अभिनन्दन और सहायता हेतु ऐसे आगे जाए, जैसे उनका रिश्तेदार मर गया हो !
लेखक के मरने की देर है, बस फिर किसी मदिरालय मंे बैठे ये शहसवार पांच सितारा कैबरे देखते, मरने वाले को दुष्यन्त कुमार या धूमिल बनाकर छोड़ते हैं। इसी बहाने शहसवारांे का नाम अखबारांे की सुखियांे मंे आ जाता, और बेचारांे की पुरानी एम्बेसेडर की जगह नयी फियेट आ जाती। बस, इससे अधिक उस स्वाभिमानी मरने वाले लेखक के लिए ये कर ही क्या सकते थे ! वह अगर जीवित रहता तो और ज्यादा कष्ट पाता। मरणोपरान्त महान् बनाने की इस शानदार परम्परा का निर्वाह करने वाले ही शहसवार बन पाते है।
लगे हाथ आपको शहसवारांे की एक और जमात के दर्शन करा दूं। ये वे शहसवार हैं, जो वर्ष मंे केवल एक बार आपकी खिदमत चाहते हैं। एक शानदार, रंगीन वार्षिकी निकाली। लेखक को दस रुपल्ली पकड़ाए और अपना फ्लैट घाटकोपर से मेरीन-ड्राइव पर ले लिया।
अब कवि-सम्मेलन संयोजकांे का क्या कहना ! इनकी मासिक आय राष्ट्रपति के समकक्ष पहुंचती है। इन्हंे तो दूर से ही प्रणाम करने को जी चाहता है। कुछ और लोग हैं जो आपके लिए पुस्तक, आलोचना, अभिनन्दन, गोष्ठी, स्वागत-समारोह और सम्मान-समारोहांे आदि का इन्तजाम कर दंेगे। श्रोता, वक्ता सभी की समुचित व्यवस्था हो जाएगी। एक प्रकाशक ने मुझे लिखा है-आपकी पुस्तक की भूमिका अमुकजी से लिखवा दूंगा, एक सहó मुद्रा लगंेगी ! मैंने प्रत्युत्तर मंे लिखा-पूरी पुस्तक लिखवाने के लिए आप क्या लेंगे ? तब से प्रकाशक महोदय मुझसे सख्त नाराज हैं, और यत्र-तत्र-सर्वत्र नारदीय स्वरांे का पाठ करते रहते हैं।
इधर राजधानियांे मंे साहित्य के नये पण्डे, पुजारी, पटवारी, थानेदार और आबकारी-अधिकारी पैदा हो गए हैं, जो मन्त्रियांे से लेकर चपरासियों तक से सम्बन्ध रखते हैं और यदा-कदा आप की भी मदद कर देंगे।
ये शहसवार मेरे-जैसे लेखकांे का भविष्य संवार/बिगाड़ सकते हैं। कहा भी है कि साहित्य में रहकर शहसवारों से बैर नहीं करना चाहिए !
साहित्य के ऐसे शहसवार आजकल राजधानियांे में ज्यादा पाये जाते हैं। ऐसे राजधानीजीवी शहसवारांे के हाथ में अगर कोई मोटी मुर्गी हमेशा न रहे, तो कैसे काम चले ! कई बार इनके ठाट-बाट देखकर लगता है, मैं भी अपना नाम साहित्य के इन शहसवारांे में लिखवा दूं। क्या ख्याल है आपका ?
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यशवन्त कोठारी
86, लक्ष्मी नगर, ब्रह्मपुरी बाहर, जयपुर-302002 फोनः-9414461207