ममता की परीक्षा - 37 राज कुमार कांदु द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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ममता की परीक्षा - 37



गोपाल के खामोश होते ही मास्टर रामकिशुन ने कहना शुरू किया, " जितनी आसानी से तुम ये बातें कह रहे हो न बेटा उतनी आसान नहीं हैं ये बातें! समाज की धारा को मोड़ना इतना आसान नहीं, लेकिन अगर तुम जैसे युवा आगे आएं और हम बुजुर्गों का उन्हें सहयोग मिले तो बात कुछ बन सकती है।" कहने के बाद मास्टर रामकिशुन कुछ पल को रुके और गोपाल की तरफ देखा जिसके बुझते चेहरे पर आशा की किरणें झिलमिलाने लगी थीं।

"गोपाल, तुम पढ़े लिखे हो, समझदार हो ! मुझे तुम्हारे प्रस्ताव से इंकार नहीं है, लेकिन क्या तुम उसके बाद की परिस्थितियों को झेलने के लिए तैयार हो ?" कुछ पल की खामोशी के बाद मास्टर ने बात आगे बढ़ाई।

" परिस्थितियाँ ? झेलना ? म.. मैं...कुछ समझा नहीं बाबूजी !" ख़ुशी के अतिरेक से गोपाल की हड़बड़ाहट बढ़ गई थी।

मास्टर रामकिशुन की स्पष्ट स्वीकारोक्ति के बाद उनके उठाये प्रश्नों से वह और हड़बड़ा उठा था। अब ये क्या नई बला है ? और कुछ न समझ पाने की स्थिति में उसने जवाबी सवाल ही दाग दिया।

उसकी स्थिति पर नजर रखे हुए मास्टर रामकिशुन की अनुभवी नजरें उसकी हड़बड़ाहट को देखकर बरबस ही मुस्कुरा उठीं। फिर भी खुद को संयत करते हुए बोले, "बेटा, सुनो ! तुमने बहुत सी कहावतें सुनी होंगी, और उन सभी की सत्यता से भी भलीभाँति परिचित होंगे। उनमें से ही एक है ' शादी ब्याह गुड्डे गुड्डियों का खेल नहीं ' जैसे कि सभी कहावतों का प्रचलन उन्हें यथार्थ की कसौटी पर परखकर शुरू हुआ है , यह कहावत भी उतना ही सही है। आज की इस बदलती दुनिया में ऐसा लग रहा है जैसे समय बड़ी तेजी से भाग रहा हो और आज का युवा उसके साथ कदम से कदम मिलाकर चलने के लिए या यूँ कहो उसके साथ घिसटने के लिए मजबूर हो गया है। किसी भी विषय पर कुछ भी चिंतन करने की बजाय चटपट फैसले लेने लगा है। तुम्हारा यह शादी ब्याह का फैसला भी मेरे इसी बात की तस्दीक करती है। वाकई शादी ब्याह हँसी खेल नहीं और न ऐसे फैसले रोज किये जाते हैं। रोज शादी नहीं करनी होती है कि चलो , इस बार गलती हो गई अगली बार सुधार लेंगे। इसमें ऐसा कोई मौका नहीं मिलता ,इसलिए बुजुर्गों ने यह फैसला अपने हाथों में सुरक्षित रखा था ताकि वो अपनी संतानों के लिए बेहतर फैसले ले सकें , अपने अनुभवों का फायदा उन्हें पहुँचा सकें, लेकिन अब युग बदल चुका है। लोग समझदार हो रहे हैं और उसीके साथ थोड़े अधीर भी। आत्मविश्वास होना अच्छी बात है बेटा लेकिन अति आत्मविश्वास ही कहीं न कहीं डूबने का कारण साबित होता है। मुझे तुम्हारे अंदर आत्मविश्वास झलक रहा है। दिल से चाहता हूँ कि वह अति आत्मविश्वास में न बदले। अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है। मैं चाहता हूँ कि तुम एक बार साधना को परे हटाकर अपने भावी जीवन के बारे में शांति से मंथन करो , उन चुनौतियों का अहसास करो जो भविष्य में तुम्हारे सामने आनेवाली हैं। अनुमान लगाओ अपने सामर्थ्य का कि क्या तुम उन चुनौतियों का सामना कर पाने में सक्षम हो ? और उसके बाद बेटा तुम जैसा कहोगे, वैसा ही होगा। बहुत सोच समझकर निर्णय लेना क्योंकि ये वो निर्णय होता है जिससे पूरे जीवन की दिशा निर्धारित होती है। ऐसे महत्वपूर्ण फैसले लेने से पहले मैं चाहता हूँ कि तुम इससे सम्बंधित सभी पहलुओं पर भली भाँति विचार कर लो , एक एक बात सोच समझ लो। कोई जल्दबाजी नहीं है।" कहने के बाद मास्टर रामकिशुन उस पत्थर पर से उठते हुए बोले, " चलो ! कहीं देर न हो जाय! पोस्ट ऑफिस बंद हो गई तो फिर बात भी न हो सकेगी तुम्हारी अपनी माताजी से।"

अब गोपाल का माथा घूम गया। ' ये क्या ? इतनी सारी बात हुई, पूरी कहानी सुना डाली। फिर भी इनको लग रहा है कि मुझे अभी भी अपने माँ बाप से बात करनी है। ये तो वैसे ही हो गया जैसे स्कूल के दिनों में किसी नासमझ लडके के बारे में यह कहकर चिढ़ाया जाता था कि 'भाई ! पूरी रामायण ख़त्म हो गई , सीता कौन ? पता ही नहीं ? ' क्या कहे इनसे इस बारे में ? पापा तो मिलेंगे नहीं और वैसे भी उनसे कोई मतलब नहीं ,घर परिवार से और माँ का रवैया तो पता ही है। फिर क्या बात करे ? ' विचारों के इसी उहापोह में था गोपाल जब मास्टर रामकिशुन ने उसके कन्धों को पकड़कर झकझोर दिया था और खुद भी पोस्ट ऑफिस की दिशा में बढ़ने लगे।

झकझोरते ही गोपाल की विचार श्रंखला भंग हुई और मास्टर रामकिशुन को आगे बढ़ते देख वह उनके पीछे दौड़ पड़ा ,"बाबूजी ! ......बाबूजी ! ....एक मिनट जरा रुकिए। आपसे कुछ कहना था।"

उसकी बात सुनकर भी अपनी राह बढ़ते हुए मास्टर ने कहा, "बेटा, एक नहीं तुम चाहे जितनी बात करो लेकिन चलते भी रहो ताकि बात भी होती रहे और काम भी होता रहे।"

उनके साथ चलने के प्रयास में सतर्क गोपाल तेज कदमों से चलते हुए किसी तरह इतना ही कह सका ," वो क्या है न बाबूजी कि मैं ........मैं घर पर किसीसे बात नहीं करना चाहता।"

उसकी बात पूरी होते ही मास्टर के कदमों में जैसे अचानक ब्रेक लग गया हो। उनके बढ़ते कदम जहाँ के तहाँ रुक गए और फिर उन्होंने गोपाल को घूर कर देखा। उनके देखते ही गोपाल के बदन में एक सिहरन सी पैदा हुई लेकिन उसने भरसक खुद को सामान्य बनाये रखने की भरपूर चेष्टा की और कामयाब भी रहा।
रुकते ही मास्टर के मुँह से वही गंभीर आवाज निकली, "घर पर किसीसे बात नहीं करना चाहते ? ...............लेकिन क्यों ?"

" वो क्या है न बाबूजी ! पापा बिजनेस के सिलसिले में अक्सर बाहर ही रहते हैं। उनसे तो घर पर रहकर भी कभी कभी बात किये महीनों बीत जाते हैं, और माँ के बारे में तो मैं आपको बता ही चुका हूँ। अब उनसे भी कोई उम्मीद नहीं, तो अब बात किससे करूँ और क्यों करुँ ?" आखिर गोपाल को न चाहते हुए भी अपने पापा के बारे में उन्हें बताना ही पड़ा।

"तो तुम ये जानते थे कि तुम्हें अपने घर किसी से बात नहीं करनी ? फिर मुझसे झूठ क्यों बोला ?"मास्टर ने अपनी नाराजगी जाहिर की।

क्रमशः