टेढी पगडंडियाँ
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सुखानंद में कालेज के निर्माण का काम युद्ध स्तर पर चल रहा था । कई राजमिस्त्री और सैकङों मजदूर काम पर जुटे थे । गुरनैब खुद कई कई चक्कर लगाता हुआ काम की निगरानी कर रहा था । एक से एक बढिया सामान मंगवाता । किसी भी चीज में समझौता उसे मंजूर नहीं था । और आखिर एक दिन कालेज की इमारत बनकर तैयार हो गयी । मुख्य सङक पर ही एक बहुत बङा और भव्य द्वार । उस द्वार पर चमचमाता हुआ कालेज का नाम – निरंजन सिंह सिद्धू कालेज फार वुमैन । नीले रंग की पृष्ठभूमि पर लाल और सफेद रंग के पेंट से उकेरा हुआ । चारों ओर परकोटे जैसी ऊँची चौङी दीवारें । दीवारों के साथ साथ लगे अशोक , सफेदा और पाम के पेङ । दूर दूर तक फैले हरे हरे लान । उन घास के मैदानों को पार करके एडम ब्लाक के चार कमरे । उन चार कमरों के दोनों ओर बने पाँच पाँच कमरे । तीन शौचालय । दूर दूर तक दीखते खेल के मैदान । अभी के लिए इतना काफी था । बाद में जरूरत के हिसाब से और निर्माण किया जा सकता था ।
क्लर्क सुबह आठ बजते ही दफ्तर में आकर बैठ जाते । लोग आते और फार्म ले जाते । चार सौ दाखिला फार्म बिक चुके थे जो अब धीरे धीरे वापिस जमा होने आ रहे थे । लङकियाँ झुंड की झुंड इकट्ठी होकर कालेज में आती और फार्म जमा करवा जाती । अब सब उत्सुकता से उस दिन का इंतजार कर रहे थे जब बाकायदा कक्षाएँ शुरु होने वाली थी । लङकियाँ और उनके माँ बाप हर रोज आ आ कर पूछते – क्यो जी , बाबू जी ,बच्चियों को कब से भेजना शुरु करना है । क्लासें कब से लगनी शुरु होंगी । मास्टरनियाँ कब तक आएंगी ।
क्लर्क हर एक को हाथ जोङकर कहता – बहुत जल्दी जी । बस अगले सप्ताह । और फिर एक दिन आखिर वह शुभ घङी आ ही गयी ।
कालेज का उद्घाटन होना था तो कालेज में तीन दिन का अखंडपाठ रखा गया । गुरबानी के विद्वान पाठी और रागी जत्थे बुलाए गये । आसपास के पूरे बीस गाँवों में न्योता भेजा गया । बीङतलाब में भी ढिंढौरा फेरने वाले गये और हर गली में घूम घूम कर ढोल बजाकर कालेज के खुलने का ऐलान किया । इश्तिहार बाँटे गये । मंगर और भानी ने यह सब सुना । मिले जुले भाव उनके मन में उमङने लगे । उनकी आँखें बार बार भीग जाती ।
जिस समाज में बेटियों के अरमानों की कोई कीमत नहीं , उनके लिए हर छोटा बङा फैसला घर के मर्द लेते आए हों । परिणीता पत्नि की कोई औकात न हो , बङे से बङे घर में भी जहाँ उनके लिए एक कोना तक नसीब न हो । सब्जी दाल क्या बनेगी , यह तक उनकी पसंद से न होता हो । हर बात में पति और फिर बाद में बच्चों की पसंद को सिर झुका कर मान लेना जिसकी नियति हो । जहाँ औरत का सोना , जागना , हँसना , रोना सब परिवार वालों के अनुसार होता हो । उस दुनिया में किरण ने गाँव में लङकियों का कालेज बनवा लिया था । यह किसी परिकता से कम न था ।
भानी और मंगर को किरण की याद रह रह कर सताती । उसका हँसता खिलखिलाता चेहरा आँखों के सामने आ जाता । यह लङकी वाकयी कोई चमत्कार थी । सबसे अलग । कीचङ में खिला कमल का फूल । इस घर में तो गलती से पैदा हो गयी वरना वह तो महलों के लिए ही बनी थी । उनके हाथ अरदास में जुङ जाते – हे परमात्मा , हे सच्चे पातशाह , इस बच्ची के हमेशा अंग संग रहना । हमेशा अपनी मेहर उस पर बनाए रखना । कभी उसे तत्ती हवा न लगे । गुरनैब को बिना देखे ही उन्हें उसका मोह आता । लंबी उम्र दे भगवान उसे ।
ऊपर से गाँव के लोगों ने यह खबर सुनी तो आते जाते उन्हें बधाई देने जरूर रुकते । -
भई किस्मत वाली है तुम्हारी किरण । हाथ भी पकङा तो बङे जमींदार के बेटे ने और पकङा ही नहीं , पूरी तरह से निभा दिया । वरना तो लोग अपनी फेरों वाली की ही कदर नहीं करते । रूल रही हैं सैकङों औरतें पति की बेरुखी का शिकार होकर पर अश्के इस जट्ट के । अब तक साथ चल रहा है । रानी बन कर ठाट से रहती है तेरी बेटी । इतनी बङी तो कोठी बनवाकर दी है सरदारों ने ।
मंगर कुछ बोल न पाता । बस हाथ जोङ लेता । कुछ लङकों ने भोग पर जाने का मनसूबा बनाया । वे बीरे के पास पहुँचे – तू चलेगा बीरे ।
नहीं, मैं तो नहीं जा सकता । तुम सब जा आओ ।
धूमधाम से पाठ शुरु हुआ । गाँव भर के लोग लंगर में हिस्सा डाल रहे थे । जिसके घर में दूध था वह दूध ला रहा था । कोई छाछ ले आया था । किसी के खेत से सब्जी आ गयी थी । सब लोग सेवा में लगे थे । गाँव की सभी औरतों ने लंगर की सेवा में बारियाँ बाँध ली । दिन रात चाय पकौङे , रोटी सब्जी दाल और खीर का अटूट लंगर चलता । चन्न कौर पाठियों के भोजन की व्यवस्था देखती । उनके लिए शुद्ध देसी घी में बना भोजन गरमागरम परोसा जाता । किरण हर आने वालों को बिना थके लंगर बाँटने में लगी रही । गुरनैब खुद भाग भाग कर सारा इंतजाम देख रहा था । बीच बीच में वह सङक की ओर भी देख लेता । वह जसलीन और उसकी माताजी को स्वयं जाकर इसरार करके आया था कि वे एक बार जरुर आएं । कालेज निरंजन चाचा के नाम पर बन रहा है तो उनका आना बनता है । जसलीन ने तो नहीं पर उनकी माँ ने वादा किया था कि वे जरूर आएंगी । पर पहला दिन सारा बीत गया और न वे दोनों आईं , न सिमरन और ननी की ही कोई खबर थी ।
जीवन के हाथों में बहुत सारा उलझा हुआ मांझा है । सुलझाने की कोशिश करो तो हाथों का लहूलुहान होना तय है । सुलझाए बिना हाथों में लिपटा यह मांझा निकलेगा कैसे । रिश्तों में सब जगह टूटन है । चाचा निरंजन तो स्वर्ग में जाकर बैठ गया । धरती पर रह गया गुरनैब इस गुंझलदार संबंधों के साये में अपनी घुटती हुई सांसों के साथ । जितना इन रिश्तों को पकङने की कोशिश करता है , हाथ से फिसलते ही जाते हैं । और जो हाथ से फिसल रहा होता है , उससे हमें ज्यादा ही ममता हो जाती है । गुरनैब सोच के समुद्र में न जाने कितनी देर डूबता उतराता रहता कि चन्न कौर ने रोटी की थाली ला पकङाई – ले प्रशादा खा । सुबह से ऐसे ही लगा पङा है । दो ग्रास खा ले फिर करते रहना जितना काम करना है ।
जी बीजी
गुरनैब ने थाली पकङ ली और चुपचाप रोटी चबाने लगा । किरण तब तक खीर ले आई थी – ले खीर भी ले ले ।....
चाची और भैनजी को याद कर रहा है न ।
नहीं नहीं ऐसी तो कोई बात नहीं ।
देख मुझ से झूठ तो न ही बोल । मैं जानती हूँ तेरे मन की बात ।
गुरनैब हँस पङा – हाँ पक्का ज्योतिष पढ कर आई है न तू . तो लगे हाथ ये भी बता दे कि वे सब कब तक आ जाएंगे ।
परसों सुबह तक । ठीक अब तू आराम से रोटी खा । इसके बाद पाठियों को चाय भी बनाकर देनी है । किरण उठ कर हाल में बैठ पाठ सुनने लगी थी ।
बाकी कहानी अगली कङी में ...