मौं ढांकेँ फरिया में-राज गोस्वामी राजनारायण बोहरे द्वारा पुस्तक समीक्षाएं में हिंदी पीडीएफ

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मौं ढांकेँ फरिया में-राज गोस्वामी

मौं ढांकेँ फरिया में
राज गोस्वामी

बुन्देली की आधुनिक कविता

समीक्षक-
राज बोहरे
राज गोस्वामी बुंदेली की रस भीनी कविताओं के सृजक हैं । श्रंगार उनका विशेष प्रिय विषय है। बीच-बीच में बाल कविताएं, राजनैतिक कटाक्ष से भरी कविताएं, हास्य कविताएं और नैतिकतावादी कविताएं भी लिखते रहे हैं । अब तक उनके कुल 18 संग्रह सामने आए हैं । इनमें बाल कहानी संग्रह , बाल कविताएं, बुंदेली कविता संग्रह ,अनुवाद, हाइकु और हिंदी की परिनिष्ठित भाषा में लिखी गई कविताएं हैं। राज गोस्वामी का नया संग्रह "मौ ढा के फ़रिया में " संदर्भ प्रकाशन
से प्रकाशित होकर आया है इसमें उनकी 70 कविताएं शामिल हैं। यद्यपि इस संग्रह में डॉक्टर किशन तिवारी, डॉ गोपेश बाजपेई, सजल मालवीय की संस्तुति या भूमिकाएं हैं ,जो ना भी होती तो भी पाठक इस संग्रह की सशक्त कविताओं से प्रभावित हो जाता । मनोज जैन मधुर का ब्लर्ब पर छापा गया संक्षिप्त लेख तो कवि और इस संग्रह की कविताओं के बारे में संक्षेप में बहुत कुछ कह जाता है। मनोज जैन खुद एक समर्थ गीतकार हैं जो बुंदेलखंड से ही आते हैँ, उनके द्वारा गीत विधा के मानक पर परखते हुए शानदार लेख लिखा गया है ।
इस संग्रह में राज गोस्वामी ने जिस बुंदेली भाषा का प्रयोग किया है, वह न केवल दतियावी बुंदेली है, बल्कि मऊ, छतरपुर, टीकमगढ़ व सागर की बुंदेलीयों के रूप शब्द भी इसमें क्रिया पदों के साथ शामिल हो गए हैं। बुंदेली समाज की हंसी ठिठोली की आदतें , घुमा फिरा कर उलाहना देने के तरीके, एक दूसरे पर किए जाने वाले कटाक्ष और बात बात में नीति परक वाक्य बोल देना जैसे प्रचलन इस कविता संग्रह में अनेक स्थानों पर मिलते हैं।
एक कविता "बात करत हम साँच" में राज गोस्वामी ने लिखा है-
खोल न काऊ के पोथन्ना अपनी पोथी वाच ।
बुरी लगे तो एंन लगे पर बात करत हम साँच।
कोऊ बड़ो नईयाँ न जनता से
जनता है भगवान
जनता जी पे हाथ धरे सो
हो बई को कल्याण।।
खूब नचाए मचा चमचा खुदई परौ अब नाच।
बुरी लगे तो ऐन लगे पर बात करत हम साँच ।। (पृष्ठ 17)
ऐसी ही एक अन्य कविता "रैने है सच्चे" में वे तथाकथित स्व पुरस्कृत कवियों को दुत्कार ते हुए लिखते हैं-
हमको नहीं पुरस्कृत होने हम ऐसेई ही अच्छे ।
का लिखने झूठो पोथन्ना रैने है सच्चे"
बई की मर्जी से सब होने
का लगाएं अर्जी ।
इतनी कृपा रहे प्रभु की बस
काम न हो फर्जी ।।
करो धरो सब फल जै सोई खाने नई है गच्चे
का लिखने झूठो पोथन्ना रैने है सच्चे।।
(पृष्ठ 21)
कविता में बुंदेली समाज की एक दूसरे से की गई अपेक्षाएं और मीठी शिकायतें बहुत खूबसूरती से राज गोस्वामी ने "कविता ककयांवतै कका" लिखी हैं ,वे कहते हैं-
तुम्हरोई है सब कछु ना होन दें ढंका।
ऐसे का काम के ककयांवते कका।।
बोलन में मीठे हैं
मन के हैं खारे ।
सोंज रहे खीर में
महेरी में न्यारे ।।
चुपके चकील खोल छोड़ दें चका।
ऐसे का काम के ककयांवते कका।।
खुद खावे रेवड़ी
बुसे बेर बांटे ।
औरन पग चाटें वे
अपनिन खों डांटे।।
गांव के पटेल हैं न गांठ में टका।
ऐसे का काम के ककयांवते कका।।
(पृष्ठ 25)
फुफ्याते,ककयाते,ममयाते रिश्ते बुन्देली अंचल की मधुरता है जिन्हें याद करते राज गोस्वामीजी ने दूसरों की मदद न करबे वालो पर तंज कसा है।इस कविता को पढ़ते हुए रहीम कवि का यह दोहा याद आता है- बड़ा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर
पंछी को छाया नहीं फल लागे अति दूर।
पानी नीचे को भगता है, उसी प्रकार समाज की रीति अनुसार योग्यता अनुकूल काम दिया जाता है,अयोग्य को काम नही दिया जाता, इस आशय की एक अन्य कविता " मगरो नई चढ़त" (पृष्ठ 34) में राज गोस्वामी लिखते हैं -
कितनोई चाहो गलियारे में गंगा नहीं कड़त।
उरर्वतिया को पानी जैसे मगरों नहीं चढ़त।
इतनोई गर तुम समझत होते
बन जाती सब बात।
अपने चना पराई पौर में
नई चबाए जात।।
खुदई करत हैं गलत काम और दूजिन दोष मढ़त।
उरर्वतिया को पानी जैसे मगरों नहीं चढ़त।

जी रये सबरे भाग्य भरोसे
जागृत कोऊ सोत।
टूटी धरी कमाने जिनकी
बाण धरे का होत।।
औज फौज कछुअई तो नईयां बिरथा आन लड़त।
उरर्वतिया को पानी जैसे मगरों नहीं चढ़त।

एक प्रेम कविता "रौब दिखाहो तो " में अपनी खुद्दारी को प्रकट करते हुए नायक कहता है कि प्रेम से सब सपर्पित कर देंगे, लेकिन धौंस नहीँ सह सकते। कवि लिखते हैं -
दै दें अपनी जान तैईसो प्रेम से आहो तो।
चिरी उँगरिया पे न मूत हें रौब दिखाहो तो।।
पूरा पड़ोसी सब जानत हैं
दगाबाज हो तुम।
वैसे धरे जरे कुचरे से
तोउ हिला रहे दुम।
अबे सुधर लो कछु ना बिगरो सुधरन चाहो तो
चिरी उँगरिया पे न मूत हें रौब दिखाहो तो।।
घर कौ छोड़ अगर बाहर कौ
बने तनक सियानो ।।
तुरतई घिची मसक दें बाकी
कर दें हैं कानो।।
हम भी तुम्हें खूब सराहैं खूबई तुम हमे सराहो तो।
चिरी उँगरिया पे न मूत हें रौब दिखाहो तो।।
(पृष्ठ 38)
कवि अपनी कविता "कैसे हो भइया"(पृष्ठ 39) कहते है कि दुख में कोई किसी को नहीं पूछता सुख के सब साथी होते हैं। गोपी फिल्म का गाना सुख के सब साथी रे भैया दुख में ना कोई की तरह बुंदेली में अलग तरीके से गोस्वामी लिखते हैं-
सुख खों सबई छीनवे बैठे
दुख को नहीं पुछैया।
कोऊ नहीं है पूछन वारो
कैसे हो भईया ।।
इतनी अंधी हुई है दुनियां
हम ना जानतते
खुल गई हमरी बंद किवरिया अपनी ठानतते।
का कर पेहैं धर्म युधिष्ठिर
बिगरो बहुत रवैया।
कोऊ नहीं है पूछन वारो
कैसे हो भईया ।।
जो जुग है छीना झपटी कौ
लूटा पाटी कौ ।
भलो आदमी लगतई पुतला
कागद माटी को।।
जाकी लठिया भैंस है बई की
बई की है दैया।
कोऊ नहीं है पूछन वारो
कैसे हो भईया ।।
(पृष्ठ 39)
बुंदेली के कई मुहावरे राज गोस्वामी बड़े सहज रूप से प्रयोग करते हैं। जो गुस्सा करता हैउसके गाल और गरदन की नसें फूलने लगती हैं,बुंदेलखंड में उसे सीधा कह दिया जाता है कि काहे गलसुआ फुलाए बैठे हैं? कवि कहता है-
खूब ही तौ खाए हैं हराम के पुआ। फिर रहे हौ काए अब फुलाएँ गलसुआ ।।
(पृष्ठ 41)
कवि की बहुत सहज दुआ-प्रार्थना हैं कि उन्हें कुछ नहीं चाहिए, एक कविता "मांगत यही दुआ" में वे लिखते हैं -
रोटी दाल मिलत रए हमको भलै न मालपुआ।
भुनसारे से उठ के एकई मांगत जोई दुआ।।
पईसन में सब काम चलत हैँ
पईसन मिलतई ठाँव।
पईसा नई तो कछुअई नईयाँ
सूनौ लगतइ गाँव।।
परवा पाँव बाबा दक्षिणा पाके नोनी दिखे बुआ।
भुनसारे से उठ के एकई मांगत जोई दुआ।।
बड़े आदमी बनने नइयाँ
हम छोटेई अच्छे।
झूठन की जमात में नईयाँ
रैंने हैं सच्चे ।
माँ मो खों सद्बुद्धि दे दै दुख को पुरे कुआ।
भुनसारे से उठ के एकई मांगत जोई दुआ।।
(पृष्ठ 42)
समाज में सब एक से हैं, किसी को गरीब बना दिया गया तो कोई परिस्थितियों बस अमीर बन गया। 'कोउ अमीर गरीब ' कविता में कवि लिखते हैं-
सिरा सिरा के खईएं सबरे नहीं तो जरजै जीभ।
सबरे एक अबा के डबला कोउ अमीर गरीब ।।
कोउ सोना नहीं चबातई
सबरे खातई अन्न।
प्रेम भाव सें अपने घर में
सबरे रहत प्रसन्न।।
ऐसो प्रेम उलीचें हो जाएं और करीब।
सवेरे एक अबा के डबला कोउ अमीर गरीब ।।
(पृष्ठ 49)
कवियों में प्रायः अभिनन्दन और सम्मान की लालसा रहती है। कुछ कवि गण तो स्वयं ही अभिनंदन पत्र लिखवा लेते हैं, खुद ही शॉल खरीद के दे देते हैं और ना मालूम सी संस्थाओं के आयोजन का खर्च खुद उठा कर खुद ही अतिथियों को बुलाकर अपनी चीजें अपने को ही प्रदान करवाते हैं। ऐसे लोगों के बारे में कवि राज गोस्वामी ने "अभिनन्दन सम्मान" में व्यंग करते हुए लिखा है -
लिखें खुदई को मानपत्र वे करवावें सम्मान।
ऐसौ नई करवाने हमखों अभिनंदन सम्मान।
सौ दो सौ 1 तो ले लये उनने
करके खूब जुगाड़।
आधे ठंडी सड़क तरफ के
हड़ा पहाड़ ।।
सुनत नई वे कभउ काऊ की कर लये बहरे कान।
ऐसो नई करवाने हमखों अभिनंदन सम्मान।।
रंग बिरंगे इन कगदन से
का होने जाने ।
इक कोने धरे दिखें हैं
चुखरन खों खाने।।
झूठी खबरें, झूठी बातें झूठी सब तुकतान ।
ऐसो नई करवाने हमखों अभिनंदन सम्मान ।।
(पृष्ठ 57)
संग्रह की शीर्षक कविता मौं ढाके फरिया में ' कवि लिखते हैं-
सांसन में से कोने तक रई बंद किवरिया में ।
धीरें- धीरें दबे पांव मौ ढाके फ़रिया में ।
काल रात कै काँ रै गईती
हमें छुपाती हो।
तनक पूछवे खों होवे हम
मौ लटकाती हो।।
फिर काँ मटक चली हो जू तुम भरी दुफ़रिया में ।
धीरें- धीरें दबे पांव मो ढाके फ़रिया में।।
बंद करो जो आबो जाबो
गली मोहल्लन में ।
हो जै हो बदनाम काऊ दिन
घूमत ठुल्लन में।
कउं जाने ना रैने अपने गांव पथरिया में।
धीरे-धीरे दबे पांव मो ढाके फ़रिया में ।। (पृष्ठ 62)

कवि के मन में बुंदेलखंड प्रांत बनवाने की इच्छा हिलोरें मारती है। उन्हें पता है कि अगर बुंदेलखंड बना तो राजधानी झांसी बनेगी, क्योंकि बुंदेलखंड प्रान्त निर्माण के आंदोलनकारी यही मांग कर रहे हैं। कवि होशियारी से बुंदेलखंड प्रांत का नाम नहीं लेते, बल्कि झांसी को राजधानी बनाने की बात करते हुए कविता "है इच्छा मन की" (पृष्ठ 75) लिखते हैं -
जय जय जय बुंदेलखंड की जाकर रजकण की।
बन जावे झांसी रजधानी है इच्छा मंन की।।
महाकवि केशव की नगरी
राम राजा को धाम।
झांसी की रणचंडी रानी
तुझको कोटि प्रणाम
ब्रज की परम सहेली बोली खुशबू चंदन की।
बन जावे झांसी रजधानी है इच्छा मन की।
अस्त्र-शस्त्र में रही सुशोभित
गामा की धरती
बालाजी जू आनन बिराजे
आधि व्याधि हरती।।
पन्ना में अनमोल खदानें हीरा कुंदन की

बुंदेलखंड के दूसरे जिले पन्ना,दतिया और ओरछा के महत्व को प्रकट करते हुए वे बुंदेलखंड के खनिज संपदा दर्शनीय स्थल और आध्यात्मिक महत्व को प्रकट करते हैं । वर्तमान युग में पुरानी सारी प्रथाएं बंद हो चुकी हैं, पुराने रीति रिवाज परंपराएं गायब हो गई हैं, जिनको देखकर कवि सीधे ना कहकर देवताओं की उदासी बताते हुए लिखते हैं -
ना हरछठ संतान सप्तमी नाग पंचमी ग्यास।
रीति रिवाज नाम के रै गए देवता भए उदास ।।
ना वे लिपे चौंतरा दिखतई
चूंन पुरे ना चौक।
ना वो स्वाद मिलत खावे में
ना बघार न छोंक।
अब नईयाँ वे खावे बारे कुंटल गुरु खवास।
रीति रिवाज नाम के रै गए देवता भी उदास ।
ना जल तर्पण घंटी चमची
दीपक कलश गणेश।
अब मंदिर में नहीं पुजारी
ना है नगर नरेश।
सब धंधे से लगे उन्हें ना मिलबे को अवकाश।
रीति रिवाज नाम के रै गए देवता भये उदास। (पृष्ठ 99)
बुंदेली बोली की तारीफ कवि सदा से करते रहे हैं। इस संग्रह की एक कविता में भी उन्होंने "बुंदेली बोली" (पृष्ठ 101) के बारे में लिखा है-
हर बोली में अलग है बोली बुंदेली बोली ।
जा माटी में जन्मे हम तुम की है खूब ठिठोली।
टांटे घिस गई खेलत किल्ली
कुश्ती खूब लड़ी।
आसमान में उड़ा पतंगें
काटी बड़ी-बड़ी ।
जात पात को भेद न जानों का बनिया कोली।
जा माटी में जन्मे हम तुम की है खूब ठिठोली ।
बुंदेलखंड के बुंदेलों की ऐतिहासिक स्मृति को कभी फिर से एक कविता "बुन्देलन ने जानी" (पृष्ठ 107) याद करता है और लिखता है-
पाँच कोस पै बदले पानी बीस कोस पर बानी।
जा बुंदेलखंड की गाथा बुंदेलन ने जानी।।
जगनिक केशव औ पद्माकर
नैं करो ईसुरी गान।
ई से फूली फली बुंदेली
बोली अपनी शान।
जो पुरखा कै गए हैं हमसे बोई हमने मानी ।
जा बुंदेलखंड की गाथा बुंदेलन ने जानी।
खजुराहो की मूर्ति कलाएं
चंदेरी की साड़ी ।
जमुना चंबल और नर्मदा
ऊंची विंध्य पहाड़ी ।।
ऋषि मुनियों की रही तपस्या कुर्बानी दई रानी।
जा बुंदेलखंड की गाथा बुंदेलन ने जानी।
इस संग्रह में राज गोस्वामी एक परिपक्व कवि और स्तरीय कविताओं को संकलित करके एक सशक्त रचनाकार के रूप में उभरे हैं। न तो इस संग्रह में छिछले हास्य की रचनाएं हैं , ना हल्के शृंगारिक झटके हैं ; बल्कि उद्देश्य परक स्तरीय रचनाएं हैं, जिनमें विचार भी है , संदेश भी। कविता के आधुनिक विषय व आधुनिक मुद्दे भी उठ कर आए हैं। यह सँग्रह राज गोस्वामी के यश का विस्तार करेगा और उन्हें सही जगह प्रदान करेगा
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