जीवन का गणित - भाग-11 Seema Singh द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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जीवन का गणित - भाग-11


भाग- 11

एग्ज़ाम खत्म होते ही आयुषी के चाचू उसे लेने आ गए थे। वह उसी दिन उनके साथ शादी में शामिल होने निकल गई।

जाने से पहले आयुषी ने वैभव को भी कहा था कि हफ़्ते का ब्रेक मिल रहा है, वह भी चाहे तो अपनी मॉम से मिल आए। पर वैभव का अभी बागपत जाने का दिल नहीं था, सो उसने लखनऊ ही रुकने फैसला लिया।

जिस पर अब उसे पछतावा हो रहा। बिना आयुषी के वैभव का दिल बिल्कुल नहीं लग रहा था लखनऊ में।

मोहित का साथ भी उसे बुरी तरह पका रहा था। मन कितनी जल्दी बदल जाता है! यह वही मोहित था जिसके साथ वैभव देहरादून से लेकर लखनऊ तक एक ही रूम शेयर करता चला आ रहा था। ऐसा नहीं था कि उसमें कोई खराबी हो या वह अचानक बदल गया हो। बदला तो वैभव था, आयुषी को लेकर उसकी फीलिंग्स थी, जो उसे आयुषी के सिवाय कुछ और सोचने, करने नहीं दे रही थीं।

ऊपर से आयुषी से बात तक नहीं हो सकती थी, जो कि उसने पहले ही बताया था। उसके दादा जी के गांव में बुनियादी सुविधाएं तक भी उपलब्ध नहीं है, मोबाइल फोन कॉल तो भूल ही जाओ। वापस बनारस जब आएगी तब उसे वीडियो कॉल करने का वादा किया था।

वह हर वक्त सिर्फ़ आयुषी के बारे में सोचना चाहता था, मगर मोहित था उसे दो मिनट भी अकेले न रहने देता। आते-जाते छेड़ता, “मियाँ मजनू! हम भी हैं यहाँ! कम से कम अब तो हमें अटेंशन मिलनी चाहिए, जब आयुषी शहर से ही बाहर है!”

एक ही दिन में वैभव की बुरी हालत हो गई थी। अभी तो आयुषी कम से कम चार दिन और लगाने वाली थी।

वैभव ने भलाई इसी में समझी कि वह भी चुपके से निकल ले वहां से। छुट्टियों में लखनऊ रुकने का आइडिया निहायत ही वकबास सिद्ध हुआ। लखनऊ शताब्दी ट्रेन पकड़कर सीधे दिल्ली का रुख करने का प्लान बनाया। वैसे भी पिछली बार मां के पास गया था तो इस बार डैडी के पास जाना ही बनता था।

तुरंत ही डैड को कॉल मिलाया, "हैलो, डैड .."

"यस! वैभव कैसे हो यंग मैन? यकीन करोगे,अभी मैं तुमको ही याद कर रहा था!" उधर से आती आवाज से मानो खुशी छलकी जा रही थी।

"अरे वाह, ऐसा क्या?" वैभव ने डैड की खुशी में खुश होकर पूछा।

"अपनी कंपनी एक नया ब्रांड लॉन्च करने वाली थी ना...याद है?"

"यस, ऑफ कोर्स डैड, बनारसी साड़ी एक्सपोर्ट वाला?" वैभव ने पूछा। उधर उसके डैड की प्रसन्नता की थाह न थी।

“तुम्हे तो सच में याद है!” उनके स्वर की प्रसन्नता वैभव की मुस्कान बढ़ाए जा रही थी।

“और बताओ तुमने कैसे कॉल किया सब ठीक है ना?” अपनी खुशी में जैसे ही उन्हे याद आया कि कॉल वैभव ने किया है तो तुरंत पूछा।

" मैं ठीक हूं। क्लासेज चार पांच दिन के लिए ऑफ है। सोच रहा था आपके पास आ जाऊं?" वैभव ने अटकते हुए स्वर में पूछा।

"कम ऑन बेटा, अब घर आने के लिए पूछोगे?"

डैडी के स्वर में उलाहना था।

“नहीं,मैं तो बस इतना जानना चाहता था कि आपके कोई प्लांस तो नहीं हैं कहीं कोई मीटिंग्स वगैरह आउट ऑफ कंट्री?” वैभव ने जल्दी से अपनी सफाई पेश की।

“नहीं, शहर तक से बाहर जाने का कोई इरादा नहीं है।” पिता ने हंसते हुए कहा।

"फिर ठीक है।"

"कब तक फ्री हो जाओगे? मैं फ्लाइट बुक करवा देता हूं।" पिता बेटे के घर आने की कल्पना भर से उत्साहित हो उठे थे।

"नहीं मैं ट्रेन से आ रहा हूँ। शताब्दी में टिकिट बुक करवा ली है। दोपहर में निकलूंगा रात तक घर आ जाऊंगा।" वैभव ने पिता को तुरंत बताया।

वैभव के पिता के होंठ मुस्कुरा उठे। वे पहले ही जानते थे कि उनका ऑफर हमेशा की तरह बेकार जायेगा। उनको मालूम था,वैभव ट्रेन का सफ़र ही चुनेगा। उसे ट्रेन का सफ़र बहुत पसंद है। बचपन से ही हमेशा ट्रेन में बैठने को उत्सुक रहता था। जिन दिनों देहरादून में रह कर पढ़ रहा था कितनी बार कहा कि गाड़ी भेज देता हूं आराम से आ जाओ घर। मगर उसने हमेशा मना कर दिया और ट्रेन से ही आता जाता था।

" चलो, मैं स्टेशन पर गाड़ी भेज दूंगा! डिनर पर मिलते हैं।” कहकर फोन कट कर दिया।

शहर के जाने-माने व्यवसायी राघवेंद्र चौधरी, छह फुट से भी निकलता कद, भरा हुआ गठीला बदन, गहरी बादामी रंग की बड़ी-बड़ी समंदर की सी गहराई लिए आंखें जिनमें स्थाई रूप से एक उदासी बसी हो जैसे, घनी लंबी भवें, नुकीली सुतवाँ नाक और उसी के साथ चेहरे पर हमेशा ठहरे रहने वाले गंभीरता के स्थाई भाव। चेहरे पर तेज ऐसा कि सामने वाला देखता रह जाए, खनकती हुई रौबदार आवाज़, सब कुछ मिलाकर बनता एक करिश्माई व्यक्तित्व। उनके व्यक्तित्व के जैसी ही विशाल और गरिमामयी, दिल्ली के ग्रेटर कैलाश टू जैसे पॉश इलाके में बनी आलीशान कोठी। अपने आप में ही आधुनिकता और परंपरा का अनूठा संगम। जो उनकी संपन्नता की कहानी आप ही सुनाती सी प्रतीत होती। जहां हर काम के लिए अलग अलग नौकर उपलब्ध, कोठी के विशाल गेट के दोनों ओर सशस्त्र दरबान, बगीचे की देखभाल के लिए दो माली, खाना बनाने के लिए खानसामा, तो ऊपरी कामों के लिए भी अनेक नौकर जो घंटी बजते ही यंत्रचालित से आ खड़े होते,सब कुछ स्वचालित सा किसी से किसी काम को कहने की आवश्यकता भी नहीं पड़ती।

इस घर में वह वैभव के जन्म से पहले शिफ्ट हो गए थे। वैभव का कमरा उन्होंने तब बनवाया था जब वैभव मात्र तीन माह का था। आज भी वह दिन का कोई ना कोई समय वैभव के कमरे में अवश्य बिताते हैं भले ही वैभव घर पर हो या न हो। वैभव के आने की सूचना पाने के साथ हमेशा की तरह आज भी वह वैभव के कमरे में पहुंच गए। कमरा क्या पूरा हॉल था। जिसकी एक दीवार पर बचपन से लेकर आज तक अलग अलग जगह पर अलग अलग पोज़ बनाए वैभव की ढेर सारी फ़ोटो लगी थीं। एक दीवार पर वैभव का गिटार टंगा था। आगे बढ़कर उन्होंने दीवार से गिटार उतारा, हौले से उसपर हाथ फिराया। तारों के बीच उंगली घुमाकर देखा कि कहीं धूल तो नहीं है।

फिर एक नौकर को बुलाकर निर्देश दिए कि,वैभव का सेट कर दे, आज छोटे साहब घर आ रहे हैं।

चौधरी साहब ने बेटे की पढ़ाई में अपने प्यार को कभी रुकावट नहीं डालने दी। कितना भी मिस किया उसे कभी जताया नहीं। उनका बस चलता तो वे कभी भी उसे अपने से दूर होस्टल में रहने न देते … पर सवाल उसके भविष्य का था। उन्हें जब पहली बार पता चला कि उनका बेटा डॉक्टर बनना चाहता है तो समझ ही नहीं आया कि कैसे रिएक्ट करें, उन्हें पूरी आशा थी कि एक न एक दिन उनका बिजनेस वही संभालेगा। शुरू में उन्होंने भी वैभव के डॉक्टर बनने की बात को ज्यादा गंभीरता से नहीं लिया पर जब वैभव का पढ़ने के प्रति समर्पण देखा तो कुछ कहते ही न बना। जिस उम्र में बच्चों को गाड़ी लेकर यार दोस्तों के साथ पार्टी और घूमने का शौक होता है उनका बेटा बड़े-बड़े लेखकों की किताबें दबाए घर के अलग-अलग हिस्सों में खोया हुआ मिलता था।

वैभव का अलग-अलग चीज़ें पढ़ने शौक़ उन्हें बहुत प्यारा लगता। उनका भी बेटे को प्यार जताने का अपना अनोखा ही अंदाज़ था। कहीं भी बाहर जाते तो कितना भी कम समय होता पर वैभव के लिए चुनिंदा किताबें लाना कभी न भूलते।

वैभव के आने की सूचना ने उनके तन मन में उल्लास सा भर दिया था। वे अपने बेटे के समय का एक एक लम्हा पूरे उत्साह के साथ महसूस करना चाहते थे। नौकरों की भीड़ में अकेले रहने वाले राघवेंद्र के घर में कोई अपना आ रहा था,उनका नितांत अपना। प्रतीक्षा के क्षण बिताए ना बीत रहे थे।

वैभव की ट्रेन आने से काफ़ी पहले ही उन्होंने ड्राइवर को स्टेशन जाने के निर्देश दे दिए थे । नियत समय पर ट्रेन आ गई और उसी हिसाब से घर में वैभव की प्रतीक्षा शुरू हो गई। नई दिल्ली रेलवे स्टेशन से ग्रेटर कैलाश पहुँचने में यूं तो बीस पच्चीस मिनट ही लगते हैं पर शायद ट्रैफिक के चलते कुछ ज्यादा ही समय लग रहा था। घर पहुँचने-पहुँचने लगभग चालीस पैंतालीस मिनट लग ही गए।

चौधरी साहब की चहल कदमी बढ़ती ही जा रही थी। इंतजार का हर एक पल भारी था उनके लिए। पहले अपने कमरे में इंतजार किया फिर बालकनी में आकर खड़े हो गए वहां से वह मेन रोड भी दिखने लगा था जहां से कट कर रोड, सीधे उनकी कोठी के गेट तक आती है। देर तक खड़े रहने के बाद भी वैभव नज़र ना आया तो उनकी बेचैनी और बढ़ गई। तभी सामने ही सड़क से मुड़ती हुई गाड़ी नज़र आ गई। उत्साहित पिता तेज़ी से सीढ़ियां उतरते हुए हॉल पार कर जब तक दरवाजे तक पहुंचते तब तक कार कोठी के पोर्च में आ रुकी थी।

ड्राइवर ने लपक कर कार का गेट खोला पिछली सीट पर बैठा वैभव दोनों पैरों से कूद कर गाड़ी से बाहर निकल आया। पीछे मुड़ कर ज़रा सा झुक कर,सीट पर पड़ा, अपना बैग घसीट कर निकाला। ड्राइवर के बार बार मांगने पर भी मुस्कुराते हुए इनकार में सिर हिलाते हुए अपना बैगपैक एक कंधे पर लटकाया और सामने खड़े पिता की ओर लगभग दौड़ लगा दी।

पिता ने खुली बाहों से स्वागत किया अपने लाड़ले बेटे का, जिन में वैभव समा गया। भावातिरेक में राघवेंद्र लड़खड़ा गए। उनको थामे वैभव ने, अपनी पकड़ को थोड़ा सा कसकर, उन्हे तुरंत ही साध लिया था। बेटे के लिए मन में उमड़े स्नेह ने आंखों की नमी का रूप ले कर आंखों की चमक बढ़ा दी थी। राघवेंद्र बड़ी सफाई से उसे छुपा गए। पर वैभव उनकी ही संतान था उसने देख लिया था आंखों का भीगना भी और उनका छुपाना भी।

"और ट्रेन में तो बहुत एंजॉय किया होगा तुमने!" मुस्कुराते हुए राघवेंद्र ने पहला प्रश्न वैभव की ओर उछाला।

उनकी बात पर वैभव मुस्कुराने लगा।"ये ट्रेन फास्ट तो हैं पर इनमें वो बात नहीं है जो पहाड़ वाली ट्रेनों में होती है। मगर फिर भी सफर करना अच्छा लगता है।"

पिता ने कुछ कहा नहीं सिर्फ वैभव का चेहरा देखकर मुस्कुराते रहे।

वैभव ने फ्रैश होने की इच्छा जताई और अपने कमरे की ओर बढ़ गया।

मोबाइल में मैसेज चेक करते हुए सीढ़ियां चढ़कर अपने कमरे में चला गया। बाथरूम से टावल में निकला और अलमारी खोल कर पहनने के लिए कुछ तलाशते हुए हाथ में दो पैकिट टकराए। चेहरे पर मुस्कान बिखर गई। डैड ने हमेशा की तरह उसके लिए कुछ लाकर रखा था।

वैभव तैयार होकर डाइनिंग टेबल पर पहुंचा तो राघवेंद्र पहले से आ चुके थे। आलीशान तरीके से लगी टेबल देखकर वैभव को अपने होस्टल की मैस याद आ गई जहाँ ज़रा सा चूक जाओ तो मिनटों में खाने पीने का सामान गायब हो जाता है।

आठ लोगों के बैठने की बनी टेबल पर कभी तीन लोगों को भी साथ खाना खाते नहीं देखा था वैभव ने। पिता के दाहिनी ओर से ओर पड़ी तीन कुर्सियों में से पहली हौले से सरका कर वैभव बैठ गया।

प्लेट में बारी-बारी से व्यंजन परोसे जाने लगे, दो आईटम सर्व होते ही वैभव ने मनाकर दिया, “दादा, बस पहले ये खा लूँ, फिर और चीज़ें दीजिएगा।”

खाना सर्व करने वाले नौकर ने लाचारी भरी दृष्टि से राघवेन्द्र की ओर देखा।

“अरे, यह पनीर तो लो, तुम्हारे लिए ही है!” राघवेन्द्र ने जोर देते हुए कहा। वैभव ने पिता की ओर देखा और धीमें से मुस्कुराया।

“अब तो यह ले लिया, बाद में देखता हूँ इन्हें ख़त्म करने के बाद।” अपनी प्लेट में रखी आलू गोभी, और मशरूम मटर की सब्जी की ओर इशारा करते हुए बोला और खाना स्टार्ट कर दिया।

राघवेन्द्र ने अपनी प्लेट में सिर्फ पनीर ही रखवाया था। दोनों ने खाना शुरू कर दिया था। “पढाई तो जोर शोर से चल रही होगी?” राघवेन्द्र ने खाते खाते पूछा।

“अरे, पूछिये ही मत, सुबह से क्लासेस होती हैं, दोपहर बाद से हॉस्पिटल में ड्यूटी रहती शिफ्ट वाईज़… कभी कभी नाईट ड्यूटी फिर उसके बाद सुबह क्लास और दोपहर में वापस हॉस्पिटल।” वैभव ने अपना दर्द पिता के साने उड़ेल दिया साथ ही बिना मांगे सफाई भी देदी थी अपने फोन न कर पाने की।

वैभव की प्लेट ख़ाली देख राघवेन्द्र ने खुद ही उठा कर थोडा सा पनीर डाल दिया। वैभव ने इस बार कोई विरोध नहीं किया। पर चम्मच से पनीर का टुकड़ा प्लेट में इधर से उधर घुमाकर देखने लगा।

“खा कर देखो तुम्हारी मम्मा जैसा तो नहीं बन पाया है पर अच्छा बना है।” वैभव की ओर देखते हुए राघवेन्द्र ने कहा और खुलकर हंस पड़े।

उनके हँसते ही वैभव को जैसे कुछ समझ आया उसने झट से पनीर का पीस मसाले में लपेटा और मुंह में रख लिया. मुंह में घुलते स्वाद को महसूस करने के लिए उसने अपनी दोनों आखें बंद कर ली थीं, उधर राघवेन्द्र टकटकी लगाये प्रतीक्षा कर रहे थे उसकी आँखें खुलने का…

“ये आपने बनाया है?” सुखद आश्चर्य में भरकर वैभव लगभग चिल्लाते हुए बोला।

राघवेन्द्र का चेहरा चमक उठा था। उनकी उदास आंखें भी जैसे हौले से मुस्कुराई थीं, “कैसा लगा?”

वैभव ने अपने बाएँ हाथ की तर्जनी और अंगूठा को मिलाकर गोला बनाकर तीन उँगलियाँ हवा में उठाई और उत्साह से भरे स्वर में बोला, “कमाल!”

राघवेन्द्र ने उसकी आँखों में झाँककर उसके हावभाव की सच्चाई भांपनी चाही, तब तक तो वैभव पनीर का डोंगा हाथ में उठाकर अपनी प्लेट में ढेर सारा सर्व कर चुका था। राघवेन्द्र के चेहरे पर संतोष भरी मुस्कान फ़ैल गई थी।

डिनर के बाद राघवेन्द्र अपनी दवाइयां वगैरह लेने अपने रूम में आ गए। वैभव भी अपना मोबाइल उठाकर बाहर लॉन में चला गया था।