काढ़ागोला : एक यात्रा - भाग - 2 rajeshdaniel द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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काढ़ागोला : एक यात्रा - भाग - 2

काढ़ागोला : एक यात्रा - भाग - 2

काढ़ागोला की आत्मा :

कू कूक कू की आवाज़ के साथ ही हम सिंघेश्वर साह जी की दुकान से उठकर स्टेशन की ओर चल पड़े। ये सुबह 8 बजे कटिहार जानेवाली पार्सल गाड़ी की आवाज़ थी। अक्सर रोज़ का यही दृश्य था काढ़ागोला में। सुबह दानापुर एक्सप्रेस का किराया ज्यादा होने के कारन पार्सल ही हम सब की पसंदीदा गाड़ी थी। अक्सर कटिहार से आनेवाली जनता एक्सप्रेस की क्रासिंग यहीं होती थी। हम चंद बुद्धिमान लोग जनता एक्सप्रेस का बेसब्री से इंतजार करते थे। कारन जो जनता एक्सप्रेस से सवारियां आती थी उनसे हम रिटर्न टिकट मांग लेते थे जिससे हमारा 3 रु बच जाता था।

शिवजी, फ़टकन, आदि रिक्शा चालक प्रातः काल ही स्टेशन का रुख कर लेते थे। सिकंदर  जी की हलवाई की दुकान सुबह सबसे पहले खुलनेवालों में से था, जबकि सरदार जी की भुज्जा और अंडे की दुकान रात देर तक चलती थी। मदिरापान करनेवालों के लिए ये उपयुक्त जगह थी। उमेश जी के दुकान का सफ़ेद रसगुल्ला हॉट डेजर्ट था तो सिवान साह जी की बर्फी और पेड़े सबकी पसंदीदा मिठाइयां थी। रसकदम भी हमारे समय में मशहूर मिठाई थी। स्टेशन के पास प्रदीप भैया की पान दुकान ट्रैन पकड़ने से पहले आखिरी हॉल्ट थी।

खेल शुरुआत से ही काढ़ागोला की आत्मा रही थी। खेल हमारे समय में एक ऐसी धारा थी जो धर्म और जाती के परे हम सब को एक सूत्र में बाँध कर रखती थी। दरअसल देखा जाये तो खेल एक व्यायाम है मगर उसकी आत्मा प्रेम एकता और भाईचारे  का प्रतीक है। मरघिया अवं बैसाखहा घाट से आये मुस्लिम खिलाडियों का वालीवॉल में हमेशा से दबदबा रहा तो झा पट्टी से त्रिभुवन हमारे समय का सबसे तेज धावक हुआ करता था । उछला स्टेट से सरदार शम्मी सिंह क्रिकेट के जबरदस्त आल राउंडर थे तो प्रवेश डेविड आल टाइम फेवरेट ओपनर बल्लेबाज थे । गाँधी स्मृति भवन में शाम की बैडमिंटन प्रैक्टिस के बाद मेरे मित्र मुकेश की दुकान में बैठना मेरी रोज़ की दिनचर्या में शामिल थी। कड़ी मेहनत के बाद मुकेश हमारे लिए मलाई और ब्रेड तैयार रखता था। बैडमिंटन की शुरुआत काढ़ागोला में निट्टू भैया की लगन और अथक परिश्रम की देन थी। यूँ तो गुड्डू आलम ने सिन्हा बंधू के साथ मिलकर फुटबॉल की उन्नति की लिए प्रयास किया था मगर फुटबॉल कभी बरारी में पसंदीदा खेल नहीं बन पायी। क्रिकेट ही यहाँ की आत्मा थी। क्रिकेट का प्रादुर्भाव भी यहाँ काम दिलचस्प नहीं था। उस दिलचस्प मैच को मैं आज तक नहीं भुला पाया।

एक स्मरणीय मैच :

डुम्मर और बरारी का मैच चरम पर था। तुलनात्मक द्रिष्टि से डुम्मर की टीम में अतुल जैसे फिरकी गेंदबाज़ और अजय बम्पर जैसे ओपनर बल्लेबाज़ की वजह से ये टीम बरारी पर भारी थी। ओपनर ललित और प्रवेश डेविड की सलामी जोड़ी के अलावा बरारी टीम का बल्लेबाज़ी बेहतर नहीं होने के कारन  टीम सस्ते में ही निपट गयी थी। मैच रेफरी रविंदर जी का बरारी टीम से लगाव तो था मगर कर्तव्य के प्रति के प्रति उनकी ईमानदारी विख्यात थी। खेल निर्णय के प्रति उनकी ईमानदारी अक्सर कुछ  स्थनीय खिलाडियों को खटकती थी । जगजीत सिंह अवं नीरज गुप्ता के साथ मैं स्कोरर था। भैंसदीरा से बरारी को सपोर्ट करने  आये पाठक बंधू काफी निराश नजर आ रहे थे। भैंसदीरा की टीम को पिछले मैच में डुम्मर के हाथों पराजय का सामना करना पड़ा था। डुम्मर के टीम की मजबूती उनके कुछ व्यावसायिक खिलाडी रहे थे।

प्रवीण झा और बलराम भैया की ओपनिंग चार ओवर कुछ विशेष नहीं कर पायी। ऐसा लग रहा था की अजय बम्पर की तूफानी पारी जल्द ही बरारी को धराशाही कर देगी । कप्तान  ललित गेंदबाज़ी का क्रम बदलना चाहते थे लेकिन कोई विशेष फायदा होते नहीं दिख रहा था। दर्शकों समेत हम सभी के चेहरे पर हार की उम्मीद साफ़ झलक रही थी। मैदान पर प्रवीण झा और ललित के बीच कहा सुनी शुरू हो गयी। ललित के न चाहते हुए भी प्रवीण झा गेंदबाज़ी की और चल पड़े। प्रवीण झा की पहली ही गेंद पर चौका जड़कर अजय बम्पर काफी कॉंफिडेंट नजर आ रहे थे। प्रवीण झा ने अपना रन अप काम किया और छोटी गेंद डाली।  इस बार अजय संभल नहीं पाए और उनका विकेट धराशाही हो गया । फिर क्या था लगातार तीन विकेट लेकर प्रवीण झा ने टूर्नामेंट का पहला हैटट्रिक लिया। दर्शक झूम उठे। जल्द ही बरारी की टीम ने डुम्मर को नौक आउट कर दिया। ये एक शानदार जीत थी। यही वो मैच था जिसने प्रवीण झा की गेंदबाज़ी का खौफ पैदा किया था। इस मैच में उन्होंने सात विकेट झटके थे। काढ़ागोला में अपने समय के एक स्टार खिलाडी का जन्म हुआ था। फाइनल स्कोरिंग करने के बाद मैं, जगजीत सिंह और नीरज गुप्ता भी जीत की जश्न में शामिल हो गए। ये एक ऐतिहासिक जीत थी। मुख्य अतिथि रहे बरारी थाना प्रभारी भी अपने सम्बोधन में काफी उत्साहित नजर आ रहे थे। ये काढ़ागोला की आत्मा थी।

खेल तो अब भी काढ़ागोला में है मगर पता नहीं की उसकी आत्मा जीवित है या नहीं। काढ़ागोला छोड़ने से पहले अजय मुनका और अमित गाँधी जैसे तरुणो पर हमने खेल की आत्मा को सौंपा था । लम्बे समय से काढ़ागोला से दूर रहने के कारन अभी की ताजा स्तिथि से अवगत नहीं हूँ । सुना है सोशल मीडिया आने के बाद काढ़ागोला की आत्मा खंडित होती जा रही है। धार्मिक और राजनितिक रैलियों का जमावड़ा लगने लगा है। लोगों की आँखे कमजोर पड़ गई है इसलिए धर्म और जातिवाद के चश्में का सहारा लेना पड़ रहा है। बाजार में किसी सीनियर द्वारा नाम पुकारने पर अब दिल में वो अनजाना भय नहीं उठता। काढ़ागोला के आईने पुराने हो चुके है। उनमें चेहरे शायद अब साफ़ दिखाई नहीं देते। लोगों ने अपनी सुविधा और फायदे के अनुसार उन पुराने आईनों को बदल दिया है। किसी इतिहासकार ने कहा था की इतिहास अपने आप को हरेक 25 वर्ष में दोहराता है । तो क्या वो समय आ चुका है? क्या हम सब मिलकर काढ़ागोला की उस पुरानी आत्मा को आधुनिक परिवेश में पुनर्जीवित कर पाएंगे? सोचियेगा जरा !