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ममता की परीक्षा - 20



अमर की बस को चले हुए लगभग आधा घंटा हो चुका था। बस के बारे में बिना कोई पूछताछ किये ही वह बस में सवार हो गया था। उसे नहीं पता था कि बस कहाँ जानेवाली थी। उसे तो किसी भी तरह वहाँ से निकलना था, रजनी की नजरों का सामना करने से बचना था।

काफी देर के बाद कंडक्टर उसके पास आया टिकट देने के लिए तब उसने पूछ लिया, "बस कहाँ तक जाएगी कंडक्टर साहब ?"
कंडक्टर ने उसे घूरकर तीखी नजरों से देखा और उसे बताते हुए ऐसा जताया मानो बहुत बड़ा अहसान कर रहा हो। कंडक्टर ने बताया, "बाबू साहब ! ये बस आज के तारीख की सुजानपुर के लिए अंतिम बस है। रात यह बस सुजानपुर पहुंचेगी और वहीं रात्रि विश्राम करके सुबह छह बजे शहर को वापसी के लिये निकलेगी।"

अमर के चेहरे पर कुछ सोचने के भाव आते देखकर कंडक्टर मुस्कुराया, "बिना पता किये ही बस में बैठ गए थे क्या ? अगर वहाँ नहीं जाना है तो अब वहाँ से वापसी की कोई बस भी नहीं है रात में। ..क्या करोगे ?"

कुछ सोचते हुए अमर सौ रुपये का एक नोट कंडक्टर को थमाते हुए बोला, "नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है। मुझे सुजानपुर ही जाना था। दरअसल मुझे शंका थी कि यह बस सीधे सुजानपुर तक जाएगी भी कि नहीं। रास्ता खराब होने की वजह से कभी कभी बस बंद कर दिया जाता है न सुजानपुर तक का। ...सुजानपुर तक का एक टिकट दे दो।"

कंडक्टर उसे टिकट और बाकी के बचे हुए पैसे देने के बाद दूसरे यात्रियों की तरफ मुड़ गया।

बस अपनी गति से चलती रही। अमर की बगल में बैठे वृद्ध यात्री ने उसकी तरफ ध्यान से देखते हुए काफी देर तक कुछ याद करने का प्रयास किया और दिमाग पर काफी जोर देने के बाद भी जब उसे कुछ याद नहीं आया तो बेचैनी से पहलू बदलते हुए उससे पूछ ही लिया, "रहने वाले तो शहर के लगते हो ! यहाँ सुजानपुर में किसके यहाँ जाना है ?"

"जी काका, सही कहा आपने। शहर में रहता हूँ और यहाँ चौधरी रामलालजी के घर जाना है।" अमर ने उस वृद्ध को बताया।

"क्या ?.. चौधरी रामलाल जी को कैसे जानते हो ?" किसी शहरी बाबू के मुँह से गाँव के चौधरी का नाम सुनकर उस वृद्ध को हैरानी हुई थी।
"इसलिए कि मैं भी सुजानपुर का ही रहनेवाला हूँ दुलारे काका !" अमर ने अब उस वृद्ध को पहचान लिया था। वह वृद्ध जिसका नाम रामदुलारे था और सुजानपुर का ही रहने वाला था किसी अजनबी के मुँह से अपना नाम सुनकर बुरी तरह चौंक गया।
चौंकते हुए भी दुलारे ने चेहरे पर मुस्कान लाते हुए कहा, "तभी तो मुझे तुम्हारा चेहरा कुछ कुछ जाना पहचाना लग रहा था।.. लेकिन बेटा, माफ करना। नजर भी थोड़ी कमजोर हो गई है न, मैं तुमको पहचान नहीं पाया ! किसके घर के हो ?"
"काका, मास्टर रामकिशुन जी का नाम सुने हो ? मैं उन्हीं का नवासा हूँ !" अमर ने बताया।

" हाँ ! हाँ...उनको क्यों नहीं जानेंगे ? सिर्फ सुजानपुर के ही नहीं आसपास के दस गाँवों के लोग भी उनको जानते थे। इतने सारे गाँव के बीच एक ही तो स्कूल था जिसके वो मुख्य अध्यापक हुआ करते थे। बेचारे बड़े भले आदमी थे। बहुत नाइंसाफी हुई थी उनके साथ !" बताते हुए दुलारे के चेहरे पर दुःख के भाव दिखने लगे।
...लेकिन बेटा ! बुरा नहीं मानना, सारी गलती भी तो मास्टर साहब की ही थी। गाँव वाले उनको बहुत समझाए थे कि लड़की जात है, काम भर का लिख पढ़ गई है सो अब कोई अच्छा सा घर वर देखकर उसके हाथ पीले कर दो.. लेकिन नहीं ! ये तो बाबू सपना देखने लगे थे कि नहीं, बेटी और बेटे में कोई फर्क नहीं है। मैं अपनी बेटी को बेटा बनाकर दिखाऊँगा। मेरी बेटी बेटे से किसी से कम थोड़े न है, और शहर भेज दिए उसको पढ़ने के लिए। उसको पढा लिखा कर बडा अफसर बनानेवाले थे, लेकिन देखो ! ऐसा हो गया कि सदमे ने उनकी जान ही ले ली और ..........! " आगे कुछ कहते कहते दुलारे अचानक खामोश हो गया था।

आँखों में छलक आये आँसुओं को कंधे पर रखे अंगोछे से साफ करते हुए दुलारे काका ने अमर के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा, " बेटा ! माफ करना ! रामकिशुन जी हमारे आदर्श थे। हम लोग उन्हें काका काका कहते हुए कभी भी उनके घर जा धमकते थे और जो कुछ नहीं आता उनसे पूछ लेते थे। वो भी बड़े स्नेह से किसी से कोई भेदभाव किये बिना बड़े प्रेम से सबकी बात सुनते थे और फिर जो पूछो वह समझाते थे। उनकी याद आते ही उनके साथ होनेवाली नाइंसाफी याद आ जाती है और फिर मन में आक्रोश बढ़ जाता है इन शहरी बाबुओं के खिलाफ।"

दुलारे काका के चेहरे सख्ती से भींचे हुए थे। ऐसा लग रहा था जैसे वह बड़े प्रयास से कुछ छिपाने का प्रयास कर रहे हों।

कुछ देर खामोशी रही। बस चलती रही अपनी मंजिल की तरफ। बाहर घना अंधेरा घिर आया था। बस शहरी क्षेत्र छोड़कर अब ग्रामीण क्षेत्र से गुजर रही थी। खराब रास्ते की वजह से ऐसा लग रहा था जैसे अब बस फुदकते हुए चल रही हो। आगे वाली सीट के पीछे लगे हत्थे को कसकर पकड़े हुए दुलारे काका और अमर भी खुद को उछलने से बचाने का असफल प्रयास कर रहे थे।
कुछ देर की खामोशी के बाद अचानक दुलारे काका ने फिर जुबान खोली, "बेटा, रामकिशुन जी के साथ इन शहरियों ने जो अन्याय किया वह तो अब पुरानी बात हो गई थी और हम लोग अब सब भूलने भी लगे थे कि चौधरी रामलालजी के साथ हुई घटना ने सभी गाँव वालों को यह यकीन दिला दिया कि सभी शहरी बाबू इंसान नहीं बल्कि इंसान के रूप में घूमने वाले दरिंदे होते हैं, भेड़िये होते हैं। तुम्हें शहरी बाबू के लिबास में देखकर मुझे वह घटना याद आ गई थी जिसकी वजह से आज भी कोई शहरी इस तरह शहरी लिबास में सुजानपुर और उसके आसपास के गाँवों में नहीं फटकता। मैंने इसीलिए तुमसे बात चीत शुरू की थी और तुम्हारे बारे में जानना चाहा था , लेकिन ईश्वर की बड़ी मेहरबानी है कि तुम तो गाँव के ही बेटे निकले।"
चौधरी रामलाल जी का नाम सुनकर अमर के कान खड़े हो गए। उसे गाँव छोड़कर गए हुए लगभग दस बरस हो चुके थे, और उसके बाद उसका गाँव से कोई संपर्क नहीं रह गया था। उससे रहा नहीं गया। वह यह जानने को बेताब हो उठा कि आखिर चौधरी रामलालजी के साथ अचानक ऐसा क्या हो गया था कि पूरे गाँव वालों के मन में शहरी लोगों के लिए इतनी नफरत पैदा हो गई है।
अपनी आवाज में कोमलता लाते हुए अमर ने दुलारे से पूछ ही लिया, "ऐसा क्या हो गया था काका, चौधरी रामलालजी के साथ जो ये गाँव वाले शहरी लोगों से इतना खफा हो गए ?"

"चौधरी रामलालजी के साथ क्या होना था बेटा ? हुआ तो उस अभागिन के साथ था जिसका नाम चौधरी रामलालजी ने बड़े अरमानों से बसंती रखा था। बसंती चौधरी रामलालजी की इकलौती कन्या थी। अभी अपनी उम्र के सोलह बसंत भी नहीं देख पाई थी कि ....!" कुछ कहते हुए अचानक दुलारे काका खामोश हो गए।
बस ने अब सुजानपुर गाँव में प्रवेश कर लिया था।

क्रमशः

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