ममता की परीक्षा - 19 राज कुमार कांदु द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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ममता की परीक्षा - 19



डॉक्टर सुमन की केबिन से बाहर आकर जमनादास उसी बेंच पर बैठ गए जहाँ वह कुछ देर पहले तक बैठे हुए थे। उन्होंने जानबूझकर किसी को खबर नहीं किया था नहीं तो मिलने आनेवालों का तांता लग गया होता। उन्होंने अपना फोन भी बंद रखा हुआ था।

जब से वह रजनी के साथ घर से निकले थे लगातार उसी का निरीक्षण करते जा रहे थे। उसके हर हावभाव का वह बारीकी से अध्ययन कर रहे थे। अमर के प्रति उसकी दीवानगी को महसूस कर रहे थे। रजनी और अमर की दीवानगी के बारे में सोचते व मनन करते हुए कब साधना और गोपाल की प्रेम कहानी ने उनकी यादों में दस्तक दे दिया उन्हें पता ही नहीं चला !

उनके जेहन में दोनों की यादें फिर ताजा हो गईं। एक एक कर तस्वीरें साफ होकर उनकी आँखो के सामने चलने लगीं मानो वह कोई फिल्म देख रहे हों ........ यादों का कारवां एक बार फिर चल पड़ा था .....

उस दिन साधना को कॉलेज तक लिफ्ट देकर गोपाल खुद ही खुद पर इतरा रहा था। उसे लग रहा था अब दिल्ली दूर नहीं। कॉलेज की सबसे शालीन व होशियार , समझदार समझी जानेवाली लड़की साधना अब उसकी मित्रता के लिए तरसेगी। उसके साथ बार बार कार की सवारी के लिए बहाने बनाकर अवसरों के ताक में रहेगी, लेकिन अफसोस ! ऐसा कुछ भी तो नहीं हुआ था। उस मुलाकात के बाद आज चार दिन हो गए थे लेकिन वह उन्हें दिखाई नहीं पड़ी थी। गोपाल के साथ ही जमनादास ने भी उसे कॉलेज में हर संभव ठिकानों पर खोजने का प्रयास किया, लेकिन निराशा ही उनके हाथ लगी थी।

वह लड़की इस कदर गोपाल के दिलोदिमाग में घुस गई थी कि अब उसको हर जगह उसका खिलखिलाता हुआ चेहरा ही नजर आ रहा था। वह समझ नहीं पा रहा था ऐसा क्यों महसूस हो रहा है उसे ? प्यार व्यार , कसमें वादे तो इन दोनों दोस्तों के लिए मजाक के विषय थे। फिर ये उसके मन में उस लड़की के लिए इतनी कसक क्यों पैदा हो गई थी ? क्यों वह बार बार उसके ख्यालों में आकर उसे उकसा रही थी ? क्यों उसका मन कह रहा था काश ! वह मासूम चेहरा खिलखिलाते हुए हरदम उसके सामने रहता और वह उसे यूँही दीवानों की तरह निहारते रहता। पहले भी तो कई बार उसने उसका दिदार किया था, लेकिन तब वह इतना बेचैन क्यों नहीं हुआ था ?
अब जबकि वह थोड़ा और करीब आ गई थी, हंसकर बात कर ली थी, उसकी बात पर ठहाके लगा पड़ी थी, क्या बस इसीलिए वह उसके दिलोदिमाग में घुस गई थी ?

कारण चाहे जो रहा हो, उस लड़की ने अब उसके दिल के किसी कोने में अपने लिए घर बना लिया था। वह खुद हैरत में था कि उसे ऐसा क्यों महसूस हो रहा है और फिर वह उसके जवाब तलाशने की कोशिश भी करता। कहीं ऐसा तो नहीं कि उसकी यह हालत शायद उसके अचानक गायब हो जाने की वजह से हुई हो ?
यही तो मानव मन की खूबी है। उसे जिस चीज की कमी महसूस होती है उसके प्रति उसका आकर्षण और बढ़ता जाता है। तभी तो जिस झोंपड़ी को देख देख कर गरीब अपने नसीब व अपने कर्मों को कोसते हैं रईसों को उस झोंपड़े में एक विशेष आकर्षण की अनुभूति होती है। इसी आकर्षण की अनुभति कराने के लिए अपने रेस्टोरेंट में रेस्टोरेंट वाले झोंपड़ों की प्रतिकृतियाँ बनवाते हैं, और मजे की बात है कि रईस इन झोंपड़ों में बैठकर चाय पीने या नाश्ता करने के लिए अधिक से अधिक खर्च भी करने को तैयार रहते हैं। लोगों की इसी मनासिकता का फायदा उठाने के लिए ऐसे होटल मालिक ऐसी जगहों का नामकरण भी एक खास अंदाज में करते हैं।'

रोज की तरह आज भी कार पार्किंग में लगाकर जमनादास और गोपाल कार से बाहर निकले। कुछ तलाशती हुई सी गोपाल की नजरें कॉलेज के प्रवेश द्वार पर जाकर टिक गई। वह एक टक उसी तरफ देखता रहा।
पूरे पाँच दिन के बाद आज अचानक वह दिख गई थी। वही पीला कुर्ता आज भी उसके जिस्म पर फब रहा था। पीला कुर्ता और सफेद सलवार के साथ ही दूधिया दुपट्टा उसकी रंगत को और निखार रहा था। हाथों में थमे किताबों को अपने सीने से लगाये वह धीमे कदमों से कॉलेज के प्रवेशद्वार से कॉलेज के इमारत की तरफ बढ़ रही थी।

वह साधना ही थी। उसे देखते ही गोपाल के दिल की धड़कनें बढ़ गईं। उसने वहीं खड़े होकर पहले उसका इंतजार किया और फिर उसके नजदीक आते ही धीमे से उसे पुकारा, "हाय साधना ! कैसी हो ?"

लेकिन उसकी तरफ कोई ध्यान दिए बिना वह चलती रही अपनी सामान्य चाल से कॉलेज की तरफ जैसे उसने कुछ सुना ही न हो।

अपनी उपेक्षा से असहज गोपाल चीख पड़ा, "साधना ! क्या तुम्हें सुनाई नहीं पड़ रहा ?"

"क्या बात है गोपाल ? चीख क्यों रहे हो ?" साधना पलट कर बोली।
"जब तुम्हें धीमे से कहा हुआ नहीं सुनाई पड़ेगा तो चीखना ही पड़ेगा न ?" गोपाल ने सफाई पेश की।

"लेकिन तुम्हें मुझसे कुछ कहने की जरूरत क्यों है ?" साधना ने शांती से जवाब दिया। अब गोपाल की बोलती बंद हो गई। साधना के इस सवाल का भला वह क्या जवाब देता ? बगलें झांकने लगा था वह कि तभी जमनादास ने मोर्चा संभाल लिया, "कैसी बात कर रही हो साधना ? हमारे साथ हमारे कॉलेज में पढ़ती हो। अभी कुछ दिन पहले ही हमारे साथ हमारी ही गाड़ी में कॉलेज तक आई हो और ......"
अभी जमनादास का वाक्य पूरा भी नहीं हुआ था कि साधना बोल पड़ी, "तो क्या उस दिन कार में बैठने का यह मतलब निकाला है तुम लोगों ने ?... कि जब चाहोगे जहाँ चाहोगे मुझसे अपना दिल बहला लोगे ?" उसकी आवाज में अपेक्षाकृत तेजी थी और शायद थोड़ा गुस्सा भी।

"नहीं साधना जी, ऐसी बात नहीं है ! दरअसल उस दिन के बाद से इतने दिनों तक तुम दिखाई नहीं पड़ी तो थोड़ी सी फिक्र हो गई थी... और यही पूछने के लिए आवाज दिया था कि क्या हालचाल है। सब ठीक है न ? बस, और कोई मंशा नहीं थी। फिर भी तुम्हें अगर कुछ बुरा लगा हो तो हमें माफ़ कर दो। हम थोड़ी मजाक मस्ती भले कर लेते हैं लेकिन हम दिल के बुरे नहीं हैं। यह बताने की जरूरत नहीं कि कॉलेज में लड़के हों या लड़कियाँ हमारी दोस्ती से खुद को नसीब वाला समझते हैं। आगे तुम्हारी मर्जी।" गोपाल ने उसे समझाने का प्रयास किया।
"हमें नहीं बनना ऐसा नसीब वाला !.. और हाँ माफ़ी वाफी की कोई जरूरत नहीं है और हमारी फिक्र करने की भी जरुरत नहीं है। मेरे बापू मेरी बहुत अच्छे से फिक्र करते हैं। धन्यवाद !" कहने के बाद साधना तेजी से कॉलेज की तरफ बढ़ गई। शायद लेक्चर्स शुरू होने का समय हो गया था।

क्रमशः