जीवन का गणित - भाग-7 Seema Singh द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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जीवन का गणित - भाग-7

भाग - 7

कॉलेज में वैभव का नया सेमेस्टर स्टार्ट हो चुका था। उसके आने के अगले ही दिन आयुषी भी आ गई थी।

मगर अब कॉलेज का वर्कलोड अपने चरम पर था। जिस आयुषी को एक हफ़्ते से दिन-रात मिस किया था, दुनिया-जहान भर के प्लांस बनाए थे उनके फिर मिलने पर साथ समय बिताने के, उसकी केवल मुस्कान देख कर ही दिन बीत रहे थे वैभव के। व्यस्तता के चलते उसके साथ बैठकर बात करने का मौका ही नहीं मिल पा रहा था।

आयुषी की बेचैनी भी उसके चेहरे पर साफ़ नजर आती थी। वे दोनों कभी-कभी एक लैब से दूसरी लैब के बीच एक दूसरे को दिखते, वेव करते, मुस्कुराते, और फिर उदास चेहरे और कदमों के साथ फिर अपने-अपने रास्ते निकल जाते। अगर कभी साथ में क्लासेज़ होती, तो ध्यान देने और नोट्स बनाने को इतना कुछ होता कि प्रोफेसर और पेपर के बीच कहीं और देखने तक का मौका न रहता।

वैभव सोचने लग गया था कि उन दोनों को डॉक्टर बनने का जितना चाव है, अगर उससे ज़्यादा एक दूसरे से मिलने का होता, तो शायद पढ़ाई की अनदेखी कर के मिल भी लेते। मगर कैरियर को लेकर जितना फोकस्ड वो खुद था, आयुषी तो उससे भी कहीं अधिक।

दिनचर्या की व्यस्तता के चलते रात को भी वह इतनी बुरी तरह थक जाता, कि अक्सर तो खाना खाए या दिन भर के कपड़े बदले बिना ही सो जाता। जाने कौन होते हैं वे लोग जो रात भर जाग कर किसी से फोन पर बात कर पाते हैं। मेडिकल के स्टूडेंट्स तो नहीं होते होंगे।

इसी सब के बीच लगभग एक महीना गुजरने आया था, और वैभव का मन परेशान के साथ-साथ दुखी भी हो चला था। अभी तो वह और आयुषी केवल दोस्त ही थे।

"और दोस्त ही रह जायेंगे अगर उससे बात करने का मौका नहीं मिला तो," बड़बड़ाते हुए वैभव वार्ड से निकल कर दवाओं और फिनायल की महक में डूबे हॉस्पिटल के गलियारे में तेज कदमों से ब्रेक रूम की ओर बढ़ गया। "इससे अच्छा तो हम स्कूल में ही मिल गए होते… कम से कम एक दूसरे के लिए टाइम तो होता…"

ब्रेक रूम के बाहर रखे वाटर कूलर से कप में पानी भरते हुए उसने एक गहरी सांस छोड़ी, और वहीं पड़ी मेज़ से पीठ टिका कर बड़े-बड़े घूंट भर कर पानी पीने लगा।

अचानक पीछे से कुछ आहट हुई। इसके पहले कि वह मुड़ के देखता, एक हाथ वैभव की कलाई पर लिपटा और उसको बगल में बने ब्रेक रूम के दरवाजे के पर खींच लिया गया।

लड़खड़ाते हुए वैभव ने अचंभे और गुस्से से भरकर देखा, तो सामने आयुषी को पाया।

"आयुषी! तुम!"

उसकी बड़ी बड़ी आंखें जो हमेशा शरारत से भरी रहती थीं, आज थकान के बोझ तले छोटी और काले घेरों से घिरी हुई थीं। मगर उनमें भाव वही थे जो वैभव से मिलने पर हमेशा होते - ख़ूब सारा उल्लास और एक कोमल सी मुस्कान। सारी दुनिया होंठो से मुस्कुराती थी, पर वैभव ने आयुषी को हमेशा आंखों से मुस्कुराते देखा था।

और अभी भी वह सिर्फ मुस्कुराए ही जा रही थी बिना एक भी शब्द बोले।

"कितनी थकी हुई लग रही है," वैभव ने अफसोस जताते हुए कहा, तो आयुषी के चेहरा कोमल से फिर शरारती हो चला।

"सच में? क्या मेरे डार्क सर्कल्स आधे चेहरे तक पहुंच गए हैं?"

वैभव ने मासूमियत से हामी में सर हिलाया, तो आयुषी का मुंह आश्चर्य में खुला ही रह गया।

"वाउ, वैभव। इतनी ऑनेस्टी? इसीलिए तुम लड़कियों के बीच इतने फेमस हो। क्योंकि हर लड़की यही तो सुनना चाहती है कि उसके डार्क सर्कल्स आधे चेहरे तक पहुंच गए हैं!"

वैभव को कुछ पल लगे समझने में। और फिर उसकी आंखें फैल गईं। "मेरा वो मतलब नहीं था, पागल! तू अभी भी बहुत सुंदर लग रही है, बस…"

आयुषी की अचानक उचकती भवों से वह बोलते बोलते रुक गया। झेंपते हुए उसने नजर घुमा कर ब्रेक रूम के दरवाजे पर टिकायीं और अपने बालों पर हाथ फिराया।

"आजकल इतना थक जाते हैं न," आयुषी ने अलग की बात शुरू की, पर वो भी वैभव से नज़रे चुरा कर अपने ही जूते देख रही थी, "तो रात को जल्दी सो जाती हूं।"

वैभव ने सहमति में सर हिलाया। "और मैं भी। कभी-कभी तो…"

"डिनर भी मिस हो जाता है," आयुषी ने उसका वाक्य पूरा किया और खीजते हुए एक आंख खुजाने लगी। "ये लोग दुनिया को जिंदगी देने की ट्रेनिंग में ये भूल गए हैं शायद कि हम खुद जिंदा रहेंगे तब दूसरों का भला कर पाएंगे।"

वैभव उसकी बात पर हंस पड़ा, और उसे देख आयुषी की भी हंसी निकल गई। माहौल फिर हल्का हो गया था।

"सच में यार। कितना हैक्टिक शेड्यूल हो गया है… सुबह क्लासेज अटेंड करो और शाम को हॉस्पिटल ड्यूटी। उसके बाद जो टाइम मिले वो असाइनमेंट और प्रोजेक्ट फाइल रेडी करने में चला जाता है। और नाइट शिफ्ट्स वाले दिनों की तो बात ही न करो!"

"यकीन नहीं करेगा, दो हफ्ते से किसी भी रात तीन घंटे नहीं सो पाई हूं।" आयुषी ने मुंह लटकाते हुए कहा।

वैभव ने उसका चेहरा और गौर से देखा तो उसकी आंखों के घेरों की रंगत चेहरे के बाकी के भावों पर भारी पड़ रही थी। आंखों का चेहरे की थकान पर असर साफ दिख रहा था।

"तू अच्छी है, यार! घर जाकर लोग रिलेक्स करते हैं और तू घर पर भी थक जाती है।" वैभव ने छेड़ते हुए कहा।

"अरे तू चल एक बार मेरे साथ मेरे घर, फिर तू खुद ही देखना! कसम से, ऐसा मेला लगा रहता है मेरे घर में कि तू कभी अकेला होगा ही नहीं। सोना तो छोड़, नहाने का भी मौका नहीं मिलता है मेरे घर में तो।" आयुषी ने अपनी परेशानी बताई।

जवाब में वैभव ने मासूमियत से पूछा, "क्यों? बाथरूम कम हैं क्या तुम्हारे घर में?"

उसकी बात सुनकर आयुषी की ज़ोर की हंसी छूट गई। बड़ी देर तक उसको सांस नहीं आई।

काफ़ी देर बाद खुद को संभालते हुए बोली, "इस बार बताए दे रही हूं, तू मेरे साथ मेरे घर चलेगा! कोई बहाना मत करना। वैसे भी मैं सबसे प्रॉमिस करके आई…"

आयुषी अपनी रौ में भरी बोलती चली गई। जब अहसास हुआ कि क्या कह गई, तब तक देर हो चुकी थी। बात बदलने के लिए आयुषी ने मोबाइल निकाला और वैभव को अपने घर में हुई पार्टी के फ़ोटो दिखाने लगी।

पर वैभव की मुस्कान रोके नहीं रुक रही थी। हँसते हुए उसने आयुषी का फ़ोन उसके हाथ लिया। “ए सुन…”

आयुषी ने दूसरी तरफ मुँह घुमा कर दोनों हाथ बाँध लिए। “हाँ, हाँ, पूरे घर में गाने गा आई हूँ तेरे! यही न?”

अब वैभव के दांत भी झाँकने लगे थे। “रियली? क्या बताय तूने?”

आयुषी ने घूम कर उसे गुस्से से घूरा। “यही कि अच्छा दोस्त है। और क्या बताना चाहिए था?”

“क्या? सच में?” वैभव के चेहरे से सारी ख़ुशी और उत्सुकता जा चुकी थी।

“हम दोस्त नहीं हैं क्या?”

आयुषी की आँखों में सवाल तो था, मगर एक उम्मीद भी थी। कि जैसे वैभव मना करेगा। क्या उसे मना करना चाहिए?

वैभव ने मनाही में सर हिलाया। इस पर आयुषी दोनों हाथ कमर पर रख उसकी ओर मुँह कर के खड़ी हो गयी। भले ही कद में वैभव से कम हो, मगर गुस्से में दोगुनी डरावनी दिखने की कला थी आयुषी के पास।

“अच्छा? तूने आज तक कुछ ऐसा कहा या किया जिससे हम दोस्त से कुछ ज्यादा बन सकें?”

आश्चर्य से आँखें फैलाए वैभव को आयुषी की बात का मतलब समझ नहीं आया। कहा या किया? किससे? क्या? “तू कहना… क्या चाहती है?”

उसके अटकते हुए पूछे सवाल पर आयुषी ने एक हाथ अपने माथे पर रखा और हंस पड़ी। “हे, पागल! क्या सोचने लगा तू? मेरा मतलब था तूने मुझे आज तक डेट के लिए पूछा?”

“ओह! ओह नो…”

“जी, ओह नो।”

“यार तू मुझसे इस अँधेरे, फिनाइल की स्मेल वाले ब्रेक-रूम में डेट के लिए पूछने को कहेगी?” वैभव ने मुँह लटका कर कहा, तो आयुषी मुस्कुरा उठी।

“ये तो पार्ट ऑफ़ आवर जॉब है न? फिर इससे क्या परहेज़? मैं तो कहती हूँ आज कैफेटेरिया की बकवास चाय और सादा से समोसे का लंच करते हैं, साथ में।” उसने झुक कर वैभव के लटके चेहरे के पास जा कर उसकी आँखों में देखा, और अपनी भवें उचकायीं। “इट्स अ डे ट?”

वैभव ने हार मान कर हामी भर ही देती। “ओके। बट इट्स योर डेट, हाँ? मैं किसी अच्छी जगह लेकर जाऊंगा, वो मेरी फर्स्ट डेट मानी जाएगी।”

“ओके!”

दोनों ने अपना ब्रेक वाकई हॉस्पिटल की बेकार सी चाय और समोसे खाते बिताया। हालांकि यह उनकी पहली डेट थी, पर वैभव को समझ नहीं आ रहा था कि इसमें और उनके हमेशा के साथ बिताए वक़्त में क्या फ़र्क था। या तो उन दोनों को रिलेशनशिप्स के तौर तरीके नहीं पता थे, या फिर शायद वे दोस्त हो कर भी कुछ ज़्यादा ही थे।

पर कुछ तो था,जो बदला था। क्योंकि बीच-बीच में जब वैभव आयुषी की ओर देखता, तो उसके चेहरे पर गुलाबी सी रंगत आ जाती। उसकी गहरी पलकें और गहरी हो जाती। हमेशा शरारतें करनी वाली आयुषी का यह रूप उसे बहुत भा रहा था। वैभव इन लम्हों को अपनी आंखों में भर लेना चाहता था।