Tantrik Rudrnath Aghori - 19 books and stories free download online pdf in Hindi

तांत्रिक रुद्रनाथ अघोरी - 19

श्राप दंड - 8

" मेरी नींद जब खुली , उस वक्त सवेरा है या शाम इस बारे में पता ही नहीं चला। कमरे के अंदर से बाहर का परिवेश बताना संभव नहीं है। दाहिने तरफ नजर पड़ते ही मैंने देखा , बूढ़ी महिला आसन पर बैठकर हल्का हल्का डोल रही थी। तथा इसके साथ ही वह बूढ़ी महिला ना जाने क्या बड़बड़ा भी रही थी। उनके सामने आखिर वो सब क्या है ? मैं भी धीरे-धीरे बिस्तर पर उठकर बैठ गया। उठकर बैठते ही सबकुछ स्पष्ट हुई। मैंने जो कुछ भी देखा था हूबहू तुमको तुमको बता रहा हूं मन लगाकर सुनना। मैंने देखा कि बूढ़ी महिला के सामने दो मक्खन का दिया जल रहा है। तीन रंग के तीन छोटे पत्थर और उसके दोनों तरफ दो नरमुंड । इन सभी को छोड़कर जिस तरह मेरी नजर स्थिर हो गया है वह था कि बूढ़ी महिला के सामने दो बड़े - बड़े भयानक उल्लू बैठे हुए हैं। बूढ़ी महिला के बैठे रहने के कारण वो दोनों उल्लू उनसे भी बड़े दिख रहे थे। उन दिनों उल्लू के पैरों को चेन द्वारा बांधा गया है। दोनों उल्लू में कोई उत्तेजना की भाव नहीं है। पूरा कमरा कांच का बना होने के कारण चारों तरफ से एक ही प्रतिबिंब दिखाई दे रहा है। कमरे में केवल दो बड़े - बड़े मक्खन का दिया जल रहा है। उससे जो रोशनी उत्पन्न हुई है उसने इस परिवेश को और भी रहस्यमय बना दिया है। अब बूढ़ी महिला का झूलना बंद हुआ। वह महिला खड़ी होकर सिंदूर के जैसा ना जाने क्या उन दोनों उल्लू पर छिड़कते ही वो दोनों बेहोश हो गए। इसके बाद दोनों उल्लू को पिंजरे में फिर से बंद कर दिया। उसी वक्त उन्होंने मुझे देखा। मुझे बिस्तर पर उठकर बैठे हुए देख
बूढ़ी महिला के चेहरे पर एक रहस्यमय हंसी खेल गई। पिंजरे को हटाकर वह बूढ़ी महिला कमरे के पश्चिम ओर गई और फिर कांच की दीवार में ना जाने क्या किया। इसके बाद ही कांच की दीवार धीरे-धीरे गायब होने लगी। मैं केवल एकटक उन्हें ही देख रहा था। अब सामने कोई दीवार नहीं है, चारों तरफ अब प्राकृतिक दृश्य खुल गया है। मैं यही सब आश्चर्य होकर देख रहा था। पूर्व दिशा की ओर से लाल उजाले की छटा दिख रही है। सामने खड़े दो पेड़ को देखकर ऐसा लग रहा है कि मानो कोई प्रहरी खड़ा है। उसके आगे दिख रहा है बड़ा सा कैलाश पर्वत। सूर्य की किरण को देखकर ऐसा लग रहा है कि कैलाश पर्वत के ऊपर ॐ की छटा जैसा बना है। यह दृश्य देखकर कैलाश पर्वत देवादिदेव के घर जैसा ही लग रहा है। मेरे दोनों हाथ अपने आप ही महादेव को प्रणाम करने के लिए ऊपर उठ गए।
अब तक कमरे में अंधेरा रहने के कारण मैंने ध्यान नहीं दिया था लेकिन अब रोशनी पूरे कमरे में फैलते ही मैंने देखा, जहां पर वह बूढ़ी महिला कुछ देर पहले बैठी हुई थी उसके पास ही पोथी के जैसा
कुछ रखा हुआ है। जहां तक मुझे समझ आ रहा है शायद वह पोथी संस्कृत भाषा में लिखी हुई है।
तब तक वह बूढ़ी महिला मेरे सामने आकर बैठ गई और फिर उन्होंने मेरे चेहरे को छूकर शुद्ध हिंदी में पूछा ,
" ठीक से नींद पूरी हुई या नहीं? "
मैंने सिर हिलाकर हां में जवाब दिया।
मैंने उनसे पूछा,
" आपको हिंदी बोलना आता है? "
उन्होंने हल्का सा मुस्कुराते हुए कहा ,
" क्यों नहीं जानूंगी बेटा, केवल हिंदी ही नहीं यहां आने के बाद और भी कुछ भाषाएं सीख चुकी हूं।"

यह सुन मुझे एक बात खटक लगी कि यहां आने के बाद मतलब क्या वो यहां पर पहले से नहीं रहते थे? इस बारे में उनसे पूछते ही बूढ़ी महिला ने कहा ,
" मेरा घर बिहार के जयनगर में है। "
" फिर आप यहाँ पर कैसे आ गईं? अपने घर को छोड़कर इस बर्फीले पहाड़ में बने तिब्बती मठ में आने का क्या कारण है? "

इसके बाद वह बूढ़ी महिला बताती रही और मैं उनकी बातों को मंत्रमुग्ध होकर सुनता रहा।
" मैं उस वक्त शायद 11 साल की थी। पिताजी ने जबरदस्ती मेरी शादी एक 50 साल के अधेड़ के साथ कर दी। लगभग 2 साल नेपाल रहने के बाद मेरे पति मुझे दरभंगा लेकर आए। दरभंगा आने के बाद मेरे पति के अंदर कुछ परिवर्तन आने लगा। ज्यादा समय वो बाहर ही रहते और जब बीच में कभी रात को घर लौटते तो नशे में रहते। घर लौटते ही मेरे साथ किसी ना किसी बात पर झगड़ा करने लगते। इस तरह अत्याचार करते हुए मैं कितने दिन खुद को रोके रखती। उस वक्त मैं यौवन थी और वो बूढ़े हो रहे थे। इसी बीच एक दिन मेरी मुलाकात नरेंद्र से हुई। वो लगभग मुझसे 3 - 4 साल बड़ा थे। मेरे शराबी पति की अनुपस्थिति में नरेंद्र के साथ मेरी संबंध घनिष्ठ होने लगी। मैं अपनी सारी बातें नरेंद्र को बताती। वह मुझसे हमेशा कहता है कि तुम्हें डरने की कोई जरूरत नहीं मैं हमेशा तुम्हारे पास हूं। ऐसे ही लगभग 2 साल बीत गया। इन 2 सालों में हम दोनों के बीच गहरा प्रेम संबंध हो गया था। लोगों से छुप छुपाकर हम दोनों का प्रेम संबंध धीरे-धीरे आगे बढ़ रहा था लेकिन यह सब लोगों से कितने दिन छुपकर रहता। एक दिन यह बात मेरे पति तक पहुंच ही गई। तब तक मेरे पति शरीर से दुर्बल हो गए थे। कोई भी उन्हें देखकर कह सकता था कि यह आदमी चरित्र अच्छा नहीं हो सकता। मेरे और नरेंद्र के बीच संबंध की बात उनके कानों में पहुंचते ही उसी रात आकर वो मुझे मारने लगे। इसके बाद जब मुझे सहन नहीं हुआ तो मैंने वही पास ही पड़े एक ईंट को उठाकर उनके सिर पर मार दिया। तुरंत ही वो जमीन पर गिर पड़े और उनके सिर से खून निकलता रहा। मैं यह देखकर एक दम सहम गई थी। इसके बाद मैंने खुद को शांत कर दरवाजे के बाहर लालटेन रख दिया। नरेंद्र के लिए यही संकेत था। जब मैं रात को दरवाजे के बाहर लालटेन को रखती थी तो नरेंद्र को संकेत मिल जाता था कि घर खाली है। इसी तरह कई रात मेरे पति की अनुपस्थिति में हम दोनों के बीच प्रेम संबंध चलता। उस रात भी नरेंद्र मेरे घर में आया। घर में आते ही वह आश्चर्य में पड़ गया और सोचने लगे कि शायद मैंने अपने पति के सामने उसे बुला लिया है लेकिन वह नहीं जानता था कि मेरा पति आज भी घर में नहीं है। घर में मेरा पति तो है लेकिन उसके शरीर में जान नहीं है। मेरे पति के शरीर में दोष रहने के कारण मेरी कोई संतान भी नहीं थी। नरेंद्र एकटक मेरी तरफ ही देख रहा था। देखकर लग रहा था कि शायद वह अभी रो देगा। मैं जानती थी कि वह मुझे खुद से भी ज्यादा प्यार करता है। अपने बारे में कुछ भी ना सोचकर नरेंद्र उसी रात मुझे लेकर बहुत दूर भाग गया। चार-पांच दिन की सफर के बाद हम हरिद्वार पहुंचे , फिर इसके बाद गौरीकुंड पार करके रामबाड़ा में हम दोनों ने मिलकर एक दुकान खोला। हमारा एक सुंदर सा लड़का हुआ था। इसके बाद कुछ सालों तक हम काफी खुशी से अपना जीवन जी रहे थे। लेकिन कहते हैं ना भगवान सभी कर्म का फल इसी जीवन में दे देता है। अपने पति की हत्या करके पुलिस से तो मैं बच गई लेकिन भगवान के दंड को मुझे सहन करनी पड़ी। अचानक एक दिन एक आदमी हमारे दुकान में चोरी करते वक्त पकड़ा गया। नरेंद्र ने उस आदमी को पकड़कर कुछ मारा पीटा था। उसी गुस्से की वजह से उस आदमी ने मेरे छोटे लड़के को बहला - फुसला के ले जाकर कोई जहरीला पहाड़ी फल खिलाकर पूरा पागल कर दिया। इसके बाद हमने तय किया कि हम उस लड़के को बाबा केदारनाथ के चौखट पर ले जाएंगे। यही सोचकर हमने केदारनाथ की उद्देश्य से यात्रा शुरू की थी। नरेंद्र मेरे लड़के को गोद में लेकर चल रहा था और मैं उनके बाएं तरफ चल रही थी। दाहिने तरफ बड़ा सा ढलान वाला खाई था। बाएं तरफ पहाड़ को काटकर पतला सा रास्ता बनाया गया था। एक दो घंटे चलने के बाद जहाँ आकर पहुंचा , वहां बाएं तरफ से एक पत्थर ने आकर नरेंद्र को धक्का दिया । खुद को संभाल ना पाने के कारण लड़के को लेकर नरेंद्र गहरे खाई में गिर गया। कुछ ही पल में या सब हो गया। मैं भी नरेंद्र को बचाने खाई में खुदने वाली थी लेकिन आसपास के लोगों ने मुझे पकड़ लिया। इसके बाद मैं रोती बिलखती केदारनाथ गई और वहीं मंदिर के सामने चार - पांच दिन पड़ी रही। इसके कुछ दिन बाद ही एक बौद्ध भिक्षुक सन्यासी के साथ मेरी परिचय हुई। मैं उन्हें बाबा कहकर बुलाती थी। मैंने उन्हें अपनी पीड़ा के बारे में बताया। बाबा ही मुझे इस मठ में लेकर आए। तब से मैं यहीं पर हूं। "....

क्रमशः..


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