जीवन का गणित - भाग-1 Seema Singh द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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जीवन का गणित - भाग-1


भाग - 1

"शाम तक पूरा घर चमाचम हो जाना चाहिए नीतू!" अवंतिका ने फिर से दोहराया।

नीली सलवार, पीला कुर्ता, गुलाबी स्वेटर के साथ लाल दुपट्टा कंधे से ओढ़ कर कमर तक लपेटे, नीतू ठुमकती सी दरवाजे के पास आ खड़ी हुई, "आप कल से कितनी बार बता चुकी हो आंटी, समझ गई अच्छी तरह सफाई करनी है कर लूंगी।"

नीतू के स्वर की तेज़ी देख अवंतिका की हंसी निकल गई। "ठीक है, तुझे याद है अच्छी बात है। मैं ऑफिस से देर में आऊंगी बिट्टू पहले आ जाएगा।"

अवंतिका आगे कुछ और भी कहती उससे पहले ही नीतू शुरू हो गई, "मुझे याद है उनको फ्रिज का पानी नहीं देना है। जूस बाहर ही है पूछ लेना है कि जूस पिएंगे या चाय? और अगर चाय मांगे तो साथ में वो मठरी जरूर दूं जो आपने कल शाम को बनाई हैं।"

नीतू की बात खत्म होते होते दोनों खिलखिला कर हंस पड़ी। अवंतिका ने नीतू की पीठ पर धौल कमाते हुए कहा, "बदमाश! मेरी नकल उतरती है… कुछ भी भूली ना तो बताती हूं वापस आकर।"

खिलखिलाती मुस्कुराती अवंतिका अपनी गाड़ी की ओर बढ़ गई। गाड़ी से ऑफिस का मुश्किल से दस मिनट का रास्ता था। यूं आम दिनों में वह अपने बैंक गाड़ी से नहीं जाती थी पर आज बिट्टू को आना था ना तो एक मिनट भी एक्स्ट्रा खर्च न हो इसलिए गाड़ी निकाल ली थी उसने।

रियर व्यू मिरर में देखा तो नीतू हाथ हिलाकर बाय कर रही थी। स्निग्ध सी मुस्कान बिखर अवंतिका के चेहरे पर। इस शहर में उसे लगभग सात साल हो गए ट्रांसफर लेकर आए हुए। तब से नीतू उनकी कुक,हेल्पर,केयर टेकर लोकल गाइड और दोस्त सब कुछ थी। उम्र में आधी तो बातों में दुगनी बड़ी और ज्ञान देने में दादी मां बन जाती उसकी। हर छोटी बड़ी जरूरत उसकी जबान पर रहती।अवंतिका का ख्याल ऐसे रखती जैसे पिछले किसी जन्म की मां हो उसकी।

ऑफिस पहुंचने पर गेटकीपर ने सबसे पहले नोटिस किया,"अरे मैडम आज कार लेकर आईं हैं कहीं जाना है क्या?"

"नहीं, राम प्रकाश जाना कहां होगा,क्लोजिंग का टाइम है।" चाभी वॉचमैन की ओर बढ़ाते हुए अवंतिका ने मुस्कुराकर कहा। पार्किंग तक खुद ना जाकर वॉचमैन को ड्यूटी सौंप वह सीधे अपने चैंबर में पहुंच गई।

लंच तक सभी अपने अपने कामों डूबे ही रहे जबकि आज पब्लिक डीलिंग बंद थी फिर भी किसी को सिर उठाने की मोहलत ना मिली।

पहाड़ियों के बीच बसा छोटा सा शहर बागेश्वर जिला मुख्यालय होने के कारण सारे नियमित काम करने ही होते हैं। उसपर स्टाफ की कमी हमेशा ही रहती है। ब्रांच मैनेजर होने के नाते अवंतिका के सिर पर काम का बोझ ज्यादा ही आ जाता है। पर काम करना तो उसका हमेशा शौक रहा है। इस ब्रांच की जिम्मेदारी उसने बड़ी अच्छी तरह से उठा रखी है। वरना सरकारी नौकरी में इतने साल तक एक ही ब्रांच में टिक पाना बड़ी बात है। कुछ अवंतिका की कार्यकुशलता, तो कुछ पहाड़ की छोटी सी शाखा जहां किसी को भी ट्रांसफर लेने में कोई दिलचस्पी भी नहीं होगी।

देहरादून जैसे बड़े शहर से यहां आकर शुरू में तो बहुत अटपटा सा लगता था उसे, पर धीरे धीरे यहां का शांत जीवन,सीधे सादे लोग पसंद आने लगे थे। शहरी शोरगुल से दूर कुदरत की गोद में बसा छोटा सा शहर बागेश्वर। कहने को शहर मगर व्यवहार में एकदम गांव। जहां सूरज ढलने के बाद सड़के जैसे सो जाती हैं।

जहां देहरादून चमक-दमक से भरा महानगर, आधुनिक सुख सुविधाओं से परिपूर्ण, तेज़ गति से भागते जीवन में किसी को किसी के व्यक्तिगत जीवन से कुछ लेना देना नहीं । वहीं बागेश्वर प्रकृति की गोद में बसा छोटा सा शहर,जहां सब एक दूसरे से परिचित, तीज त्यौहार, मेले,शादी ब्याह के जैसे अवसर आपस में मिलने मिलाने के मौके भर होते। कार्यक्रम कुछ भी हो मेजबान कोई हो,मेहमान वही होते हैं चिरपरिचित चेहरे।

सारा दिन ऑफिस में फाइलों में सिर खपाए, अपने जूनियर्स को निर्देश देते कब बीत गया अवंतिका को पता भी न चला। जब ऑफिस की घड़ी ने छह बजाया तब, गेट पर ड्यूटी में तैनात राम प्रकाश ने केबिन में अंदर आने की अनुमति मांगी।

"क्या हुआ राम प्रकाश कोई काम था क्या?" उड़ती सी नज़र उसके चेहरे पर डाल वापस कंप्यूटर स्क्रीन में आंखें गड़ाए अवंतिका ने पूछा। सामने से कोई उत्तर ना पाकर अपना हाथ रोक चश्मा नीचे खिसकाकर उसने फिर से पूछा "क्या?"

" मैडम जी छह बज गया है, थोड़ी देर में अंधेरा होने लगेगा,आप गाड़ी से आई हैं।"

उसके इतना बोलते ही जैसे अवंतिका को झटका लगा,"छह बज भी गया!"

राम प्रकाश मुस्कुराने लगा।

"चलो चलो, तुम गाड़ी निकालो मैं पांच मिनट में वाइंड अप करती हूं।" राम प्रकाश की ओर चाभी उछालते हुए अवंतिका ने कहा तो बाहर भी हलचल शुरू हो गई। उसने केबिन में बैठे जूनियर को भी चलने का इशारा किया। सब अपना अपना काम समेट कर बैंक से बाहर निकल गए।

गाड़ी रामप्रकाश चला रहा था। अवंतिका ने पिछली सीट पर बैठकर अपना मोबाइल निकाला उसपर वैभव के मैसेज पड़े थे। पहला चार बजकर अठारह मिनट का था,‘Reached’, दूसरा मैसेज पांच बजकर पच्चीस मिनट का था,"आई एम एट होम" तीसरा पांच बजकर चालीस मिनट का था, ‘ थैंक्स मॉम मठरी बहुत टेस्टी हैं।’

अवंतिका का सारा ध्यान अब अपने बेटे की ओर लग गया था। शुरू से ही इतना समझदार कभी भी अपनी मां के काम के आड़े नहीं आया। हमेशा उसके टाइम टेबल से अपना रूटीन सेट कर लेता था। बहुत छोटा था जब उसको देहरादून शिफ्ट हुई थी,उसका तो पहला स्कूल भी देहरादून में ही था। बैंक की नौकरी ने उसे उत्तराखंड के बहुत सारे शहर दिखा दिए थे। सारे सपने वैभव से ही तो जुड़े थे उसके बहुत बड़ा डॉक्टर बनना चाहता था बिट्टू बचपन से ही। पहले तो अवंतिका ने उसका बचपना समझा मगर जब बेटे के साथ उसका सपना भी बड़ा होता गया तो अवंतिका ने उस पर ध्यान देना शुरू कर दिया था।

देहरादून में जब वैभव छोटा था तो वह स्कूल से वापस जल्दी आ जाता था और अवंतिका का बैंक पांच बजे तक होता था। तब अवंतिका ने उसे डे केयर में रखना शुरू किया था। बड़ी तपस्या का दौर था अवंतिका का भी और उसके बिट्टू का भी। बड़े धीरज से वह वक्त गुज़ारा उन दोनों ने।

जब वैभव छठी क्लास में पहुंचा तो अवंतिका ने उसके भविष्य को देखते हुए जी कड़ा कर देहरादून में ही बोर्डिंग स्कूल में डाल दिया। तब बहुत रोया था वैभव मां से अलग नहीं होना चाहता था वह। पर उसके सपने का उज्जवल भविष्य का वास्ता देकर अवंतिका ने उसे जैसे तैसे समझा लिया था। तब तो उसने वैभव से रोज़ मिलने का वादा भी किया था। और पूरी शिद्दत से निभाया भी था। पर जब उसका ट्रांसफर देहरादून से होने की चर्चा ऑफिस में चलने लगी तभी कितना घबरा गई थी। कैसे रहेगी वह अपने बेटे से दूर और बिट्टू वह कैसे रह सकेगा मां से मिले बिना।ट्रांसफर होना था हुआ किसी तरह से भी रुका नहीं। झिझकते हुए वह मिलने गई थी उसके पास।मगर तब तक तो वैभव समझदार हो चुका था इस बार अवंतिका ने नहीं वैभव ने अवंतिका समझाया था।

"सिर्फ दो साल का स्कूल बचा है मां! बल्कि महीनों से गिनों तो मुश्किल से सत्रह महीने हैं। आगे मेडिकल की तैयारी करनी है तो वैसे भी बाहर जाना पड़ेगा और सिलेक्शन हो गया तो फिर अलग ही तो रहूंगा ना" वैभव मुस्कुराया।

उसकी बड़ों जैसी बातों पर अवंतिका भी रीझ गई थी "इतना समझदार कैसे हो गया तू?"

"आप बेकार की चिंता न करो अपना प्रमोशन लेलो और घर सेट करो एग्जाम खत्म होते ही आता हूं ना सीधे,आपके पास।" चिंता में डूबी मां के दोनों कंधों के प्यार से पकड़ कर हिलाते हुए वैभव अपनी परेशान मां की उदासी को अपनी मुस्कुराहट से दूर करता हुआ बोला।

अवंतिका के मन में जमी सभी चिंताओं की धूल उसकी गहरे स्नेह में पगी मुस्कान ने दूर उड़ा दी थी।

‘चीं sss’ की आवाज के साथ गाड़ी रुकी तो अवंतिका गाड़ी के साथ साथ अपने ख्यालों से बाहर निकल आई, हॉर्न की आवाज घर के अंदर तक भी पहुंच चुकी थी आगे वैभव और पीछे नीतू भी गेट तक आ गए थे। नीतू ने रामप्रकाश से गाड़ी की चाबी ली और उसके बाहर निकलते ही शाम से खुले गेट को बंदकर ताला लगा दिया।

वैभव मां के गले लग गया। मां के कलेजे को जैसे ठंडक मिल गई अवंतिका बेटे के सीने से चिपक कर रह गई।