ठौर- दिव्या शुक्ला राजीव तनेजा द्वारा पुस्तक समीक्षाएं में हिंदी पीडीएफ

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ठौर- दिव्या शुक्ला

पिछले लगभग तीन- सवा तीन वर्षों में 300 किताबों के पठन पाठन के दौरान मेरा सरल अथवा कठिन..याने के हर तरह के लेखन से परिचय हुआ।
जहाँ एक तरफ़ धाराप्रवाह लेखन से जुड़ी कोई किताब मुझे इतनी ज्यादा रुचिकर लगी कि उसे मैं एक दिन में ही आसानी से पढ़ गया तो वहीं दूसरी तरफ़ किसी किसी किताब को पूरा करने में मुझे दस से बारह दिन तक भी लगे। ऐसा कई बार किताब की दुरह भाषा भाषा की वजह से हुआ तो कई बार विषय के कठिन एवं कॉम्प्लिकेटिड होने की वजह से।

इस बीच मनमोहक शैली में लिखी गयी ऐसी दुरह किताबें भी मेरे सामने आयी। जिन्हें मुझे..' आगे दौड़ और पीछे छोड़' की तर्ज़ पर बीच में ही अधूरा छोड़ आगे बढ़ जाना पड़ा कि पढ़ते वक्त तो उनकी भाषा बड़ी मनमोहक एवं लुभावनी लगी लेकिन मेरी समझ का ही इसे कसूर कह लें कि मेरे पल्ले कुछ नहीं पड़ा।

इस पूरे सफ़र के दौरान मुझे कहीं किसी नए लेखक की किताब की भाषा में सोंधापन लिए हुए थोड़ा कच्चापन दिखा तो कहीं किसी अन्य नए/पुराने लेखक की परिपक्व लेखन से सजी कोई किताब रोचकता के सारे मापदण्डों को पूरा करती दिखाई दी।

दोस्तों..आज मैं परिपक्व लेखन से सजे एक ऐसे कहानी संकलन की बात करने जा रहा हूँ जिसे 'ठौर' के नाम से लिखा है दिव्या शुक्ला ने। कई प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में इनकी कहानियाँ छप चुकी हैं। आइए..अब चलते हैं इस संकलन की कहानियों की तरफ़।

इस संकलन की पहली कहानी में जहाँ लेखिका कहानी की नायिका के माध्यम से सभ्य समाज के मनुष्यों का मुखौटा ओढ़े, उन तथाकथित गिद्धों की बात करती है जिनकी गर्म ज़िंदा माँस की चाह में हर नारी देह को देखते ही लार टपक पड़ती है। भले ही वह छोटी..बड़ी..अधेड़ या वृद्धा याने के किसी भी उम्र की क्यों ना हो। तो वहीं दूसरी तरफ़ एक अन्य कहानी में जहाँ एक तरफ़ ठाकुर केदारनारायण सिंह के घर, जश्न का माहौल है कि शादी के दस वर्षों बाद उनकी बड़ी बहू चंदा, पहली बार माँ बन रही है। तो वहीं दूसरी तरफ़ अपनी पत्नी के प्रति सदा उदासीन रहने वाले..उसकी अवहेलना करने वाले..उसे दुत्कारने वाले उसके दबंग पति, रुद्रप्रताप की बौखलाहट का कोई सानी नहीं कि बिना अपनी पत्नी से शारिरिक संबंध बनाए वह बाप बन गया है।

इसी संकलन की एक अन्य कहानी जहाँ अपने पीछे एक प्रश्न छोड़ कर चलती दिखाई देती है कि..

'जब बाड़ ही खेल को खाने लगे तो फ़सल कहाँ जाए?'

जिसमें मायके गयी नायिका अपनी जिज्ञासा एवं उत्कंठा की वजह से उस वक्त परेशान हो उठती है जब उसे तीन तीन जवान बेटियों के ऐय्याश पिता, जोकि उसका मौसा है, के बारे में पता चलता है कि पत्नी के देहांत के बाद भी उसके स्वभाव में रत्ती भर भी फ़र्क नहीं आया और उन्होंने अपनी जवान और खूबसूरत छोटी बेटी का ब्याह कहीं और करने के बजाय बाप-बेटी के जैसे पवित्र रिश्ते को कलंकित कर उसे याने के बेटी को अपने घर में ही रख लिया। तो वहीं एक अन्य कहानी में पत्नी को सिर्फ़ मादा देह समझने वाले पति की अकर्मण्यता से आहत पत्नी जब अपने कामुक ससुर की लोलुप नज़रों से बचने में स्वयं को असफल पाती है तो अपने बेटे के साथ ससुराल को हमेशा हमेशा के लिए त्याग वो अपने पति से तलाक़ ले लेती है। अब बरसों बाद सास के बीमार होने की खबर तथा पोते को देखने की उनकी दिली इच्छा पर वो अपने बेटे को उसकी दादी के पास मिलने के लिए भेजने को राज़ी तो हो जाती है मगर मन ही मन आशंकाओं से घिरी रहती है कि कहीं वे सब मिल कर उसके बेटे को बहला फुसला कर बरगला ना लें।

इसी संकलन एक अन्य कहानी में जहाँ एक तरफ़ वृद्धाश्रम में रह रहे विभिन्न वृद्धों के वर्णित दुखों..तकलीफों से यही सीख मिलती दिखाई देती है कि किसी को भी अपने जीते जी अपना सब कुछ अपने वारिसों तक को सौंपने की ज़रूरत नहीं है। तो वहीं दूसरी तरफ़ एक अन्य कहानी में पति की मृत्यु के बाद देवर द्वारा लगातार तीन सालों तक शादी का झांसा दे यौन शोषण की शिकार हुई जवान..खूबसूरत युवती को उस वक्त अपमानित हो..ससुराल छोड़ कर दरबदर हो निकलना पड़ता है जब अपने छोटे बेटे से उसकी शादी करने के बजाय उसकी सास उसे, उसकी रखैल बनने का सुझाव देती है। ऐसे में अपनी बेटी के साथ जगह जगह अपमानित होती..ठोकरें खाती वह युवती क्या कभी सम्मान और इज़्ज़त के साथ कभी साथ जी पाएगी?

धाराप्रवाह शैली में लिखी गयी इस संकलन की कुछ कहानियों में क्षेत्रीय माहौल होने की वजह से वहीं की स्थानीय भाषा में संवादों को दिया गया है। जो कहानी की विश्वसनीयता को बढ़ाने में सहायक सिद्ध होते हैं मगर इससे दुविधा मुझ जैसे उन पाठकों के लिए हो जाती है जो उस भाषा को बिल्कुल नहीं समझते हैं या थोड़ा बहुत समझते हैं। बेहतर होता कि उन संवादों का हिंदी अनुवाद भी साथ ही दिया जाता। साथ ही एक कहानी का अंत थोड़ा फ़िल्मी एवं खिंचा हुआ सा भी प्रतीत हुआ।

ज्वलंत समस्याओं से लैस इस कहानी संकलन में कुछ जगहों पर वर्तनी की त्रुटियों के अतिरिक्त जायज़ जगहों पर भी नुक्तों का प्रयोग ना किया जाना थोड़ा खला। प्रूफरीडिंग के स्तर पर भी कुछ जगहों पर कुछ शब्द ग़लत छपे हुए या ग़लत मतलब दर्शाते दिखाई दिए।

यूँ तो बढ़िया क्वालिटी में छपा यह कहानी संकलन मुझे लेखिका की तरफ़ से उपहार स्वरूप मिला मगर अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा कि इसके 114 पृष्ठीय हार्ड बाउंड संस्करण को छापा है रश्मि प्रकाशन ने और इसका मूल्य रखा गया है 275/- रुपए। जो कि मुझे थोड़ा ज़्यादा लगा। ज़्यादा पाठकों तक पहुँच बनाने के लिए ज़रूरी है कि जायज़ दामों पर किताब का पैपरबैक संस्करण भी बाज़ार में लाया जाए। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखिका एवं प्रकाशक को बहुत बहुत शुभकामनाएं।