यासमीन सोचते हुए....." काश अगर अब्बू घर आ गए तो मैं फकीर बाबा को घर लेकर आऊंगी वो अल्लाह के नेक बन्दे हैं उनकी इबादत में खुद को फकीर बना लिया है । कितना बेहतरीन गायन कर रहे थे कि छोड़ दे सारे फिक्र तू बन्दे अल्लाह पार लगाएगा .......!! और उनका हारमोनियम जो गले मे पहने थे वो धूल मिट्टी पड़ने से बेहतर काम नही कर रहा था लेकिन बाबा ने इसकी परवाह नही की वे कितना तल्लीन होकर इबादत कर रहे थे ।
क्या वो दुबारा मिलेंगे .....?? वह सोच रही थी सजे कदम धीरे धीरे बढ़ते गए घर की तरफ ।
और खालू जान अपने ही अलग ख्यालो में खोए हैं यह देखकर यासमीन हंस पड़ी ....हा.... हा...... हा.......... हा
खालू जान ... आप कहाँ खोए है कहीं ये तो नही सोच रहे कि बाबा को घर बुलाना है !
हाँ बेटी तू तो बड़ी समझदार है मेरे मन को पढ़ लिया सच कहते हैं लोग बेटियाँ नसीब वालों के घर ही पैदा होती हैं यासमीन जैसी बेटी अल्लाह सबको दें आमीन !
और नसीम ने भी बिटिया के सिर पर हाथ फेरा वे दोनों घर पहुंच गए ।
मोहल्ले में शोर हो गया कुछ बच्चे गुल्ली डंडा कहे रहे थे उन्होंने जाकर नीमा को बता दिया । नीमा बाहर निकली तो क्या देखती है कि उनके शौहर बड़े खुशमिजाज लग रहे हैं क्या सचमुच भाई जान का पता चल गया?????
वो बड़ी खुश होकर कटोरी में खीर निकाल लाई । आज सुबह ही बनाई थी यासमीन के आने से पहले । पर उन्होंने खाना नहीं खाया था और नीमा ने भी खाना नहीं खाया था क्योंकि यासमीन के आने से उनका दुख और हरा हो गया। इसलिए नहीं कि बेटी घर आई है बल्कि इसलिए कि उसकी क्या हालत हो गई है ।
अब दोनों को खुश देखकर नीमा के जान में जान आई ।
नसीम और यासमीन ने यह देखा कि उनके वेलकम के लिए मोहतरमा दरवाजे पर खड़ी हैं चेहरे पर एक अलग ही नूर है और हाथ में खीर की कटोरी .....!
नसीम- मोहतरमा यह क्या है ? कोई ख्वाब देख रही हो या हम ख्वाब देख रहे हैं ।
कुछ देर पहले तक तो तुम बेहद मायूस लग रही थी अब क्या हुआ ? कोई आने वाला है क्या ...?
नीमा बेगम- अरे नहीं जनाब आप गलतफहमी में हैं मैं तो आप दोनों के लिए यह खड़ी हूँ जल्दी से मुंह मीठा करो और अंदर आओ।
यासमीन- ख़ाला जान अब्बू नहीं मिले इतना कहकर वह उदास हो गई उसके चेहरे की स्माईल फिर से गायब हो गई , नीमा ने उसे गले लगा लिया ।
और खीर की कटोरी नसीम मियाँ ने टेबल पर रख दिया और एक जगह शांत होकर बैठ गए ।
इस खामोशी भरे लम्हों में अनकही वेदनाएं थी । कहीं खुशी कहीं गम के मंजर ने जिंदगियों को उलझा सा दिया था । नीमा पराई होकर भी यासमीन को एक बेटी की तरह लाड़-प्यार करती थी । शबाना बेगम को अपनी सगी आपा की तरह मानती थी और नसीम मियाँ उसके रस्मन को अपना भाई मानते थे। एक साथ उसी मोहल्ले में पले-बडौर शादी व्याह हुआ यह दोस्ती बहुत गहरी थी जिसका पार पाना आसान नहीं था .....!
एक सच्चा मुसलमान जब किसी को दिलो जान से अपनेपन से नवाजता है तो वह उसकी तकलीफ को भी अपने सिर माथे पर रखता है खुद की तकलीफ भूलकर वह उसे लाड़ करता है वही ताल्लुकात रस्मन और नसीम के परिवार का एक दूसरे के साथ था।