दिलीप कुमार के लंबे जीवन में उन पर कुछ आरोप भी लगे। वैसे भी, यदि किसी की जिंदगी में कोई इल्ज़ाम न लगे तो इसका मतलब यही है कि वह शख्स ठीक से जिया ही नहीं। ज़िंदादिली से जीने वालों से शिकायतें होती ही हैं।
ऐसे में दिलीप कुमार से शिकायतें होना भी स्वाभाविक है। प्रायः उन पर लगने वाले इल्ज़ाम इस तरह के रहे -
दिलीप कुमार को अक्सर लोगों की महफ़िल सजाए देखा जाता था। वो दूसरों के पास जाने में दिलचस्पी नहीं रखते थे लेकिन स्वयं मजमा जुटा कर लोगों को बुलाते और उनसे घिरे रहते। कहा जाता है कि इस तरह वो हर महफ़िल को अपनी शर्तों पर ही सजाए रख लेते थे। वो जो चाहें, जब तक चाहें, करें। वो समूह की टोन अपने अहम के अनुसार रख पाने में सक्षम होते थे। उन्हें दूसरों पर अवलंबित न होना पड़े, उन्हें ये भावना तंग करती थी।
दिलीप कुमार का परिवार काफ़ी बड़ा था और उनके रिश्ते सभी के साथ सामान्यतया अच्छे ही होते थे अतः उनकी मजलिस में कई बार फिल्मी और गैर फिल्मी लोगों का एकसाथ जमावड़ा होता था। इससे लोग कुछ संकोची और औपचारिक बने रहते थे और दिलीप साहब को अपनी बात रखने के मौक़े कुछ ज़्यादा ही मिल जाते थे।
लेकिन कुछ इल्ज़ाम ऐसे भी होते थे कि अगर ख़ुद दिलीप साहब के सामने कहे जाते तो शायद वो इन्हें सुनकर तिलमिला जाते। लोग कहते थे कि वो साथी कलाकारों के लिए कुछ नहीं करते थे सिवा उनकी कला पर नियंत्रण करने के। ऐसा आरोप लगाने वाले लोगों में विख्यात एक्टर नसीरुद्दीन शाह तक का शुमार है। और सच भी है कि अगर कोई संजीदा एक्टर ऐसा कहे तो उसके पास अपने अनुभव के ख़ज़ाने में इसका कोई न कोई सबूत भी होगा ही।
भारतरत्न सम्मान से नवाज़ी गई लता मंगेशकर पर भी तो ऐसा आरोप लगाया ही गया था, और इस बात के अच्छे खासे प्रमाण भी मौजूद हैं जब तेज़ी से उभरती हुई नई गायिकाओं को रोकने के लिए या उन्हें हतोत्साहित करने के लिए बाकायदा प्रयास किए गए। वाणी जयराम, सुलक्षणा पंडित, अनुराधा पौडवाल और सलमा आगा की ख्याति के फूलते गुब्बारे रातों रात लोगों ने फूटते देखे ही थे। दबे ढके सुरों में मीडिया ने ये बात तो कभी आशा भौंसले तक के हवाले से उठाई।
बहरहाल दिलीप कुमार के कद की शख्सियत तक पहुंचने के लिए जो रास्ते तय करने पड़ते हैं उन पर ऐसे पड़ाव आना स्वाभाविक है।
आज फिल्मी दुनिया में ऐसी कई मिसालें मौजूद हैं जब बड़े कद के अभिनेताओं की गुडविल के पेट्रोल से उनके खानदान की खटारा गाड़ियां भी दौड़ी हैं। हां, दिलीप साहब ने अपने चहेतों और रिश्तेदारों के लिए इस बारे में कुछ नहीं किया।
समाज सेवा के जिन प्रकल्पों से दिलीप कुमार जुड़े उनमें भी वो सजावटी किरदार की भांति ही दिखे और लोग कहते हैं कि उन्होंने जितना दिया उससे कहीं ज़्यादा पा लिया।
अब इन बातों में कितनी सच्चाई है ये जानने का जरिया तो केवल ऐसे आलेख ही हो सकते हैं जो समय- समय पर फिल्मी रिसालों या तत्कालीन मीडिया में छपे। या फिर चंद वो लोग जो दिलीप साहब के इर्द गिर्द उनके लंबे जीवन में रहे। मसलन उनका निजी स्टाफ, उनके करीबी, उनके भुक्तभोगी आदि।
यूं तो जिन दिनों ये ख़बर छपी कि पाकिस्तान के मुस्लिम बहुल इलाके से आकर हिंदू बहुल हिंदुस्तान की फ़िल्म इंडस्ट्री में अपने ख्वाबों की ताबीर तलाशने वाले यूसुफ खान को हिंदू मुस्लिम सामंजस्य की मिसाल के रूप में पेश करने की गरज से बॉम्बे टॉकीज की मालकिन देविका रानी ने उनका स्क्रीन नाम दिलीप कुमार रख दिया ठीक उसी समय कुछ टैबलॉयडनुमा बंबइया रिसालों ने ये भी लिखा कि पिता से नाराज़ होकर बंबई आए यूसुफ ने अपनी पहचान छिपाने के लिए अपना नाम बदल लिया क्योंकि उन दिनों फ़िल्मों में काम करने को अच्छी नज़र से नहीं देखा जाता था।