इसको भी चाँद छूने दो prabhat samir द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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इसको भी चाँद छूने दो

चुटपुटी आज चली गई। किसी ने उसे रोकने का प्रयत्न भी नहीं किया। अपने स्वार्थ के लिए उसके अबोध मन को झूठे वायदों और आश्वासनों की चाशनी में हमने लपेटा, अपने सुख और आराम के लिए अपनी, चिकनी चुपड़ी बातों में उसे हमने उलझाकर रखा, उसके पिता के पितृत्व और अधिकार को बौना करके उसका ताकतवर और इस्पाती संरक्षक बनने का दावा हमने किया। काश। हमने ऐसा न किया होता और उसके नसीब का सही ख़ाका खींचकर उसके सामने रखकर उसे उसके जीवन के इस सच का सामना करने की ताकत दी होती कि हम कभी उसके सगे और हितैषी बन ही नहीं सकते, क्योंकि हम तो वे झूठे, दब्बू, दोगले और मक्कार लोग हैं जो सिर्फ़ और सिर्फ़ अपने स्वार्थों केा पुष्पित,पल्लवित करने का सुख जिया करते हंै।काश! हमने उसे यह भी समझा दिया होता कि हम उन सभ्य लोगों में से ही एक हैं जो किसीको गहरी गर्त में जाते देखकर उससे छुटकारा पाने के लिए उसके और भी गहरे गिर जाने के उपाय खोजा करते हैं। अगर ऐसा होता तो शायद एक बचपन छल और फरेब के कुचक्र से बच पाता और आज अपने भाग्य को यथावत स्वीकार करके हमसे सहर्ष विदा लेता।

चुटपुटी हमारें घर में अचानक आकर खड़ी नहीं हुई थी। भाभी के अथक प्रयास का ही परिणाम था कि वह हमें मिल सकी। हुआ यह कि जब से भाभी ने किटी पार्टियों और समाजसेवा करने वाली एक दो संस्थाओं से अपने आपको जोड़ा तभी से अपने घर में एक नौकर का न होना उन्हें बहुत अखरने लगा। आए दिन के प्रोग्रामों में जब उनकी और साथिनें हाथ हिलाती, पर्स झुलाती चलतीं और उनके पीछे उनका बैग, फाइल, छाता या पानी की बोतल लेकर  उनका कोई नौकर या प्राम में किसी बच्चे को डाले हुए ‘बाबा-बाबा‘, ‘बेबी-बेबी’ कहती हुई कोई आया साथ में चलती तब गोद में सोनू और कंधे पर उसकी जूस, दूध की बोतलों और नैपीज़ का बैग लटकाकर चलते हुए भाभी को बहुत शर्म आती। तब से महरी, धोबिन, महाराजिन, प्रैस वाला, मिसिज़ कपूर की आया, पाठक जी के आफिस का आॅपरेटर, काॅलोनी का चैकीदार, मेरी सहेलियों की मम्मियाँ - जो भी मिलता भाभी एक जुमला जरूर छोड़ती - ‘भई, एक नौकर ला दो।‘

किटी पार्टी तक तो समझ में आता था लेकिन समाज सेवा के कामों में इस टीम-टाम की क्या ज़रूरत थी, यह बात हमारी समझ से बाहर थी। भैया जब-जब भाभी को यह समझाने की कोशिश करते कि सोनू के बड़ा होने तक या उनके रिटायरमेन्ट तक ऐसे कामों को टाला जा सकता है, तब-तब भाभी के चेहरे पर अजीब सुख और सन्तोष का भाव उभरता और वह कहतीं -

‘मैं तो कहती हँू कि मेरी उम्र के लोगों को ही इस काम में आगे आना चाहिए। एन्जाय करने का यही तो समय है‘

हम सभी एक स्वर में कह उठते - ‘समाजसेवा में एन्जाॅयमेन्ट?‘ उनके एन्जाॅयमेन्ट का फार्मूला हमारी समझ से बाहर था।

हाँ, इतना ज़रूर था कि भाभी अब खूब व्यस्त रहने लगी थीं। मेंहदी, कुकरी, साड़ी, मेकअप जैसी न जाने कितनी प्रतियोगिताएँ और प्रतिस्पर्धाएं होती जिनमें वह बढ़-चढ़कर हिस्सा लेतीं। इसके अलावा होती, दीवाली, तीज, दशहरा, ईद सब कुछ मनाया जाता। इसके साथ ही कभी किसी अनाथाश्रम, अंधाश्रम, नारी निकेतन वगैरह में भी भाभी के एक-दो चक्कर लग जाते। उस दिन फोटो खिंचाने की होड़ लग जाती और भाभी को आगे की पंक्ति में खड़े होने के लिए काफी मुस्तैद रहना पड़ता। वह खुश रहतीं कि उनका घूमना भी होता, अपनी महिला मित्रों के साथ गपशप भी चलती, दूसरों की मदद के नाम पर अपने घर का अनुपयोगी, अनावश्यक सामान भी ठिकाने लगता और प्रायः अखबार में सुर्खियाँं भी बटोर ली जातीं। एक-दो महिला मित्रों के अखबार में अपने परिचित थे जो एक फोन घुमाने पर दौडे़ चले आते, न्यूज़ बनती और समाजसेवा हो जाती थी।

आए दिन भाभी की व्यस्ततायें बढ़ने लगी थीं और उनका ’नौकर लाओ अभियान’ और भी तेज़ी पकडने लगा था। परिणामतः कभी भी हमारे घर की बैल बज जाती और किसी नौकर या नौकरानी को साथ में लिए कोई एक परिचित दरवाज़े पर खड़ा दिखाई देता।

नौकर आते और चले जाते। भाभी की शर्तों और आने वाले के नखरों में तालमेल ही नहीं बैठ पा रहा था। भाभी के नखरे भी तो नौकरों से कुछ कम नहीं थे। कोई बहुत बूढ़ा, तो कोई छोटा, कोई बुद्धू तो कोई जरूरत से ज्यादा तेज़। पैसे का लालच किए बिना कोई उनके मापदण्ड पर खरा उतरे - ऐसा नौकर पकड़ में ही नहीं आ रहा था। कभी - कभी तो ऐसा भी लगता कि भाभी को अपनी सुविधा और आराम से ज़्यादा अपनी सहेलियों के कमेन्ट्स की चिन्ता थी। वह अपनी नज़र से कम, मिसेज शर्मा, वर्मा, गुप्ता की नज़र से आने वाले नौकर को ज़्यादा आँकने लगतीं और मामला ठप्प पड़ जाता। हमें तो लगने लगा था कि भाभी की इतनी मीन-मेख की वजह से अपना सोनू तो किसी नौकर या आया की गोद में चढ़कर कभी जा नहीं पाएगा। जब तक भाभी कोई फैसला लेंगी तब तक तो सोनू बड़ा ही हो जाएगा।

नौकर रखने के मामले में हमारा उत्साह तो अब कम होता जा रहा था लेकिन भाभी के जोश और तलाश में कोई कमी नहीं आई थी। जब भी हमारी काॅलोनी का गार्ड अपना डंडा खटखटाता हुआ हमारे दरवाजे के आगे से गुज़रता, भाभी उसे नौकर की याद ज़रूर दिलातीं। भाभी की इतनी मेहनत का ही परिणाम था कि एक दिन सुबह-सुबह फिर हमारे घर की घंटी बजी। दरवाज़ा खुलने के साथ ही चैकीदार ने एक बच्ची को हमारे घर के अंदर धकेला और उसकी ओर इशारा करके भाभी से कहा - ‘मैमसाहब, ये आपके लिए। रात को ही इसे गाँव से मंगाया है।‘ इतनी देर में हम सब भी ड्रांइँगरूम में पहुँच चुके थे। ‘मैमसाब, ये आपके लिए‘ और ‘कल ही गाँव से मंगाया है‘ जैसे वाक्य सुनकर यह शक होने लगा कि सामने खड़ी बच्ची हाड़माँस की बनी हुई है या कोई मोम की गुड़िया है जिसे भाभी के मनोरंजन के लिए मंगा लिया गया है।

दीवार से लगी बच्ची इस सबसे बेखबर अपनी फ्राॅक की उधड़न को झुककर छिपाने में व्यस्त थी।चैकीदार ने फिर दोहराया - ‘मैमसाब, इस लड़की को कल गाँव से खास आपके लिए मंगाया है।‘ पता चला कि गार्ड की पत्नी और बच्ची की माँ एक ही गाँव की हंै, रिश्ते में बहन लगती हंै। लड़की के परिवार में खाने वाले ज्यादा, कमाने वाला एक अकेला उसका पिता और वह भी नशेड़ी। आजीविका का कोई और विकल्प न पाकर लड़की के पिता ने लड़की में ही आर्थिक संभावनायें खोजनी शुरू कर दीं। चैकीदार कहता जा रहा था - ‘नशे में तो था इसका बाप। पैसा ले के इसकी शादी पक्की कर दी। दूल्हा ऐसा कि ये लड़की उसकी गोद में खेल ले।‘‘

लड़की की माँ को किसी भी तरह अपने आदमी की उम्र का दामाद मंजूर नहीं था। उसीने हिम्मत दिखाई। आधी रात को गाँव की गलियों ,रास्तों,लड़़की के कंचे,गोटी,भाई,बहन-सबको अलविदा कहलवाकर, लड़की को एक अनजानी मंज़िल की ओर भेज दिया गया। लड़की को अपने नए ठिकाने की भला क्या जानकारी होती? हाँ ,उसे इतनी तसल्ली जरूर थी कि उसकी मौसी उसका ज़हाँ भी इन्तज़ाम करेगी, वहाँ उसे पैसा मिलेगा, उसके खाने का पुख्ता जुगाड़ होगा और रहने को पक्का ठिकाना मिलेगा और वहाँ कोई बूढ़ा दूल्हा उसे ब्याहने की हिम्मत नहीं करेगा। गाॅर्ड कह रहा था - ‘मैंने तो इसकी माँ को बता दिया कि तुम्हारी बेटी की किस्मत बहुत अच्छी होगी अगर मैमसाब इसे रख लेंगी।‘

लड़की अभी भी अपनी फ्राॅक की उधड़न से जूझ रही थी। वैसे भी लग रहा था कि उसे हम सबकी बातों में कोई रुचि नहीं थी। वह तो शायद तन्द्रा में रही होगी जब आधी रात को गाँव से ले आई गयी होगी और अभी तक भी वह उसी तन्द्रा भाव को भी जी रही थी।

कहाँ तो नौकर के अभाव में भाभी का मान-सम्मान इस कदर दाँव पर लगा हुआ था कि वह हर किसी से नौकर ले आने की गुहर लगाती फिरती थीं और कहाँ एक बेबस और ज़रूरतमन्द लड़की को दरवाज़े पर खड़ा देखकर उनका तो स्वर ही बदल गया। उन्होंने शर्त रख दी - खाना-पीना, कपड़ा-लत्ता, रहना-सहना........ सब होगा, लेकिन पैसा ! पैसा तो तब मिलेगा जब लड़की कुछ काम-धाम सीख लेगी।

पैसे की बात सुनते ही अपनी फ्राक के एक हिस्से को छिपाए हुए बुत बनी उस लड़की की देह में हरकत आ गई। अब तक वह जिस फटी फ्राॅक को छिपाने में लगी थी, उसे उसने छोड़ा, सिर उठाया और मासूम चेहरे पर जमी अपनी बड़ी आँखों को गोल-गोल घुमाकर हमारी ओर देखकर कहा - ‘‘चुटपुटी पैसा लेगी।‘‘ शायद लड़की जानती थी कि एक बूढ़े, अशक्त, बीमार से उसकी शादी के निर्णय की जड़ में पैसा ही था जो उसके बाप को मिलने वाला था। उसके जीवन का इतना बड़ा बदलाव, जिसने उसे अपनी माँ, भाई-बहिनों से अलग-थलग पटक दिया था, भी पैसे के कारण ही पैदा हुआ था। लड़की पैसे के महत्व को समझ चुकी थी।

ऐसा अटपटा नाम सुनकर हम चैंके - ‘चुटपुटी कौन?‘ बच्ची ने अपना हाथ अपने सीने पर रखा और गर्व से कहा - ‘मैं चुटपुटी हँू।‘ भाभी और टिन्नी की हँसी नहीं रुक रही थी। भैया भी मुस्कुरा रहे थे। लड़की समझ गयी थी उसके नाम के कारण ही ऐसा मज़ाक का माहौल बना है। उसने मेरी ओर देखा, कहा- ‘चुटपुटी अपना नाम नहीं बदलेगी।‘ भाभी कुछ भी बेढंगा जवाब दे देतीं, उससे पहले मैंने कमान संभाल ली - ‘अरे नाम बदलने को किसने कहा ? वैसे क्यों नहीं बदलोगी नाम ?‘

लड़की ने चैकीदार की डाँट की परवाह नहीं की। वह अपनी फ्राॅंक को भी पूरी तरह भूल चुकी थी वह रुआँसी हो गई -

‘मेरा नाम बदल दोगी तो कुदरू, किन्ना, चैंटी और फैन्टा मुझे कैसे पहचानेंगे।‘

चैकीदार ने हमारी दुविधा दूर की, ‘मैमसाब, ये अपने भाई-बहिन के नाम बता रही है।

टिन्नी हैरान थी, भाभी से बोली - ‘मम्मा, ये तो खुद इतनी छोटी सी है। इसके छोटे भाई-बहिन.........?‘ टिन्नी की बात को बीच में ही काटकर लड़की बोली - ‘मैं और छोटी ? चलो, छुपन-छुपाई खेल के ढूँढ के तो बताओ,कंचे खेलके जीतके दिखओ।‘ लड़की चैकीदार यानी अपने मौसा के चुप रहने के संकेत केा अनदेखा करके अपने बड़े होने का प्रमाण  जुटाने में लगी हुई थी। टिन्नी ने खेलने में कोई रुचि नहीं दिखाई। लड़की ने इसे टिन्नी की हार मान लिया और जीत का भाव उसके चेहरे पर झलक गया । तभी उसें फिर अपना नाम बदले जाने की शंका होने लगी, उसने हमें समझाया - ‘आप नाम बदल दोगी तो मेरी माँ ‘पुट्टी-पुट्टी‘ कहके किसे बुलाएगी ?‘

लड़की की आँख से आँसू बह निकले, उन्हें पोंछते हुए आहिस्ता से बोली -

‘नाम बदल गया तो चुटपुटी अपने घर कैसे लौटेगी ?‘

नाम बदल जाने से घर न लौट पाने की उसकी दुविधा हमारी समझ से बाहर थी। शायद उसके गाँव की गलियाँ, रास्ते सिर्फ ‘चुटपुटी‘ नाम से ही  उसे पहचानते थे और नए नाम से उसे अजनबी मानकर  उसके सामने अपने भटक जाने का ख़तरा होगा । शायद ऐसी ही कोई कल्पना उसकी रही होगी।

भाभी का गुस्सा नाक पर रहता है। मेरी ओर मुड़ीं, ’लो दीदी, लड़की घर में घुसी नहीं कि लौटने की बात भी करने लगी।’ मैंने उन्हें चुप रहने का इशारा किया। चैकीदार हमें चुटपुटी से निबटने को छोड़कर जा चुका था। चुटपुटी अभी भी तनी हुई खड़ी थी उसकी पगार, उसका नाम, उसे छोटा मान लेने की हमारी भूल.......... हमसे उसकी सहमति नहीं बन पा रही थी कि तभी उसने सोनू को देखा। उसकी आँखों में चमक आ गई।‘जे तो किन्ना जैसा है’,इतना कहती हुई वह उसे लेने को लपकी। भाभी चीखीं - ’अर,े नहा तो लो।‘ चुटपुटी सहम गई। भाभी ने टिन्नी का कपड़ा, तौलिया, साबुन जैसे ही पकड़ाया, चुटपुटी के मुँह से निकला - ‘इसका पैसा मेरी पगार मंे से कटेगा क्या ?‘ भाभी के लिए चुटपुटी बहुत तेज़, मतलबी और लालची सिद्ध हो रही थी। मैंने उन्हें बोलने का मौका नहीं दिया और उसे इस संकट से बचाकर बाथरूम की ओर लेकर चल दी। और इस तरह चुटपुटी हमारे घर में एक नौकर के रूप में स्थापित कर ली गई।

शुरू के दिनों में चुटपुटी बहुत आतंकित रहती थी। दरवाज़े की  घंटी बजने के साथ ही, वह ‘मेरा बाप आ गया‘ कहती हुई अन्दर भाग लेती और जहाँ जगह मिलती वहाँ देर तक छिपी रहती। कभी कोई दरवाज़ा, कभी बाल्कनी, कभी पलंग, कभी अलमारी तो कभी पर्दा - वह छिपने के लिए किसी का भी सहारा ले लेती, और वहाँ से फुसफुसाकर पूछती- ‘मेरे बाप को पता चल गया क्या ?‘ हम सबका भी एक सा जवाब होता। हम कहते- ‘उसे कैसे पता चलेगा ?‘

आहिस्ता - आहिस्ता चुटपुटी को यह भरोसा हो चला कि उसका पिता कभी भी उसका ठिकाना नहीं ढूँढ पाएगा और अगर भूले से कभी ऐसा हुआ भी तो हम जैसे संरक्षकों के सामने उसकी दाल नहीं गलेगी। उसके पिता से जुड़ी हमारी मनगढ़न्त कहानियाँ अब हमारे और उसके मनोरंजन का साधन बनने लगीं और चुटपुटी की आश्वस्तियों को और भी सम्बल देने लगीं। पिता को लेकर सशंकित और भयभीत वह अपने संशय और भय को दूर करने के लिए हमारा ही सहारा लेती और हम अपनी चटपटी, मसालेदार बातों से उसे सुखद और बाधारहित भविष्य की कल्पनाओं में डुबो देते।

हमारी लच्छेदारी कहानी के पहले चरण में चुटपुटी का पिता उसे ढूँढने के लिए शहर में भटकता रहा। उसके भटकने, ’पुट्टी-पुट्टी’ कहकर पुकारने, थक टूटकर निढाल पड जाने का किस्सा चलता रहता। चुटपुटी अपनी बड़ी-बड़ी आँखंो को गोल-गोल घुमा कर हैरान सी हमें देखती सुनती और फिर खुद भी अपने पिता की दुर्गति का खाका खींचने में हमारा साथ देने लगती। पिता का नशा करना, गाली-गलौज, पैसे का अभाव..... इस सबसे चुटपुटी को ख़ास फ़र्क नहीं पड़ता था। आज भी उसे अभावों में अपनी माँ और भाई-बहन के बीच में रहना ही श्रेष्ठतम लगता था लेकिन एक बूढ़े, बीमार, अशक्त दूल्हे की जगह पर सलमान और शाहरुख जेसे किसी हीरोें को स्थापित करके हमने उसे कल्पना की ऐसी उड़ान भरने को छोड़ दिया था कि चुटपुटी अपने पिता की काल्पनिक दुर्दशा में बराबर की हिस्सेदार बनने लगी थी। उसके पिता के दर-दर भटकने का किस्सा कई दिन चला फिर कहानी के दूसरे चरण में उसके पिता का हमसे सामना हो गया। अक्सर चुटपुटी कल्पना जगत से निकल कर ज़मीनी सच्चाई को जीने लगती पूछती - ‘भाभी, अगर मेरे बाप ने तुम्हे पहचान लिया तो ?’ शायद उसका भाव यही रहता कि भाभी चुटपुटी की आश्रयदाता हैं, यह जानकारी उसके पिता को मिली तो परिणाम क्या रहेगा ? भाभी को तो ऐसी गप्पों में बड़ा सुख मिलता था। वह कहतीं, - ’पहचान ही नहीं सकता। मेरे घर का दरवाज़ा उसके लिए कभी नहीं खुलेगा।’ चुटपुटी को फिर भी भाभी के घर से बाहर निकलते ही चिन्ता सताने लगती, तब भाभी उसे अभयदान देतीं - ‘अरे, पहचानता है तो पहचान ले। तुम्हारे भैया हंै  ना तुम्हें बचाने को।’

भैया की ताकत का अंदाज़ा चुटपुटी को भी था। उनकी डाँट से ज़िद्द करती, मचलती हुई टिन्नी अपनी किताबों में घुस जाती, रोता हुआ सोनू भाभी से चिपटता चला जाता, भाभी की बोलती बन्द हो जाती और भी जो जहाँ होता वहीं बुत बनकर खड़ा रह जाता और चुटपुटी ? वह तो सीधी अपनी कोठरी में भागती और दिन भर कँपती ही रहती। एक ओर इतने रौब-दाब वाले भैया और दूसरी ओर ढाई पसली का हर समय गिरता,लड़खड़ाता हुआ,  चुटपुटी का नशेड़ी पिता। भैया के ताकतवर होने का आए दिन चित्रण होता जिसमें उनका अंग्रेज़ी बोलने का बखान भी बढ़-चढ़कर होता। चुटपुटी खुद उन तस्वीरों में हँस-हँसकर रंग भरती। उसे लगता कि गाली-गलौज और मारपीट का जो प्रदर्शन वह घर और अपने मौहल्ले में दिखाता फिरता है, भैया की अंग्रेज़ी के सामनेउसकी तो नौबत ही नहीं आएगी। इस तरह इस काल्पनिक युद्ध में भैया हमेशा चुटपुटी के पिता पर भारी पड़ते थे।

भाभी खूब बोलतीं और वह सब बोलतीं जो चुटपुटी को पसन्द आता और जिससे दौड़-दौड़कर उसके काम करने की क्षमता और भी बढ़ जाती। वह प्रायः कहतीं - ’चुटपुटी जिस दिन तेरा बाप यहाँ आया तो उसका वो हाल करेंगे कि दुम दबा के भाग लेगा।‘

पिता की काल्पनिक दुम पर चुटपुटी खूब हँसती, टिप्पणियाँ करती और मस्ती में अपने पिता पर गाने बना-बनाकर गाती चली जाती। कुल मिलाकर हम चुटपुटी के मन में यह बात कूट-कूटकर भर देना चाहते थे कि जब तक चुटपुटी हमारे आश्रय में रहकर मनोयोग से काम करेगी तब तक उसे नहीं बल्कि उसके बाप को डरकर, काँपकर रहना होगा। पिता की ओर से चैन मिलता तो चुटपुटी को अपनी पगार की चिन्ता हो जाती। भैया की चाय, अखबार और शेविंग किट, टिन्नी का स्कूल बैग, टिफ़िन, पानी की बोतल, जूता पाॅलिश, मेरी किताब- फाइलें, भाभी के गीले सूखे मसालों की देखभाल, अचार - पापड़ की धूप-छाँह, सोनू की घर-बाहर की पूरी देखभाल ....... चुटपुटी के हिसाब से इतने कामों का इतना ढ़ेर पैसा उसे मिलने वाला था कि भाभी की तरह उसकी माँ भी राजरानी बनकर रहने वाली थीं। उसके कुदरू, किन्ना, चैंटी और फैन्टा भी टिन्नी की तरह सुन्दर और सभ्य बनने वाले थे और स्वयं वह भैया की तरह किसी अंग्रेज़ी बोलने वाले ताकतवर और फिल्मी हीरो जैसे दूल्हे को पाकर अपने बाप के रोज़-रोज़ के आंतक से पूरी तरह छुटकारा पाने वाली थी।

चुटपुटी को फुर्सत कहाँ ? वह ज़रा भी फुर्सत पाती तो स्वयं भाभी के पास पहुंच जाती - ‘अब चुटपुटी क्या करे ?‘ भाभी की गृहस्थी में काम की क्या कमी ? भाभी उसे ज़रूरी, गैर ज़रूरी कैसे भी काम में लगा देतीं। वह काम करती जाती और सोनू के खेल- खिलौनों को, टिन्नी के कपड़ों और सामान को ,भाभी की मेकअप किट को, मेरे मोबाईल, म्यूज़िक सिस्टम को बड़ी हसरत से देखा करती। भाभी उसे अक्सर झाँसे में रखतंी कि एक दिन न जाने ऐसा ही कितना कुछ उसे उसकी मेहनत के बदले में देकर भाभी उसे  हमसे भी कहीं ज़्यादा सुखी और समृद्ध बनाने वाली हंै।

चुटपुटी के सन्देह और चिन्ताएँ  कम  होने का नाम ही नहीं लेते थे। बूढ़े बाप और अपनी पगार की चिन्ता से मुक्त होती तो - अपने लिए चुने गए बूढे़ वर को लेकर परेशान हो जाती। काम करते हुये उसके हाथ रूक जाते, कहती -’ भाभी, मेरा बाप उसे लेकर आ गया तो दोनों मिल कर तो भैया को हरा देंगे। फिर तो बूढ़ा मुझे ले जायेगा ।’ तो भाभी को एक ही जवाब घूमता - अरे, ऐसे कैसे ले जाएगा। तेरे पास तो पैसा होगा, उसके मुँह पर  मारना औेर धक्के मारकर निकाल देना। बूढ़े दूल्हे से मुक्ति पाने के लिए वह कभी-कभी  मुश्किल से अपनी पगार भी दाँव पर लगाने को तैयार हो जाती थी। भाभी अक्सर उसे यह समझाइश भी देती रहतीं कि जब  तक वह हमारे घर से वापिस अपने गाँव लौटेगी, उसका बूढ़ा दूल्हा तो तब तक अपने जैसी किसी बूढ़ी से शादी करके चुप बैठा होगा। चुटपुटी अपना पैसा किसी के मुँह पर मारने को आसानी से तैयार नहीं होती थी, इसलिए हम भी उस बूढ़े की शादी हो जाने की बात पर ज्यादा ज़ोर देने लग गए थे।

चुटपुटी को हमने ऐसा बना दिया कि वह दिन में भी सपने देखने लगी। कल्पनाओं के ऐसे घोड़े पर हमने उसे सवार कर दिया कि वह सरपट भागने लगी लेकिन सपनों से लौटकर कभी जब उसे हकीकत की ज़मीन पर खडा होना पड़ेगा, कल्पनाओं की रफ़्तार रोककर जब उसे थमना पड़ेगा, तब हम किस तरह उसकी उम्मीदों पर खरा उतरेंगे - यह तो हमने सोचने की ज़रूरत ही नहीं समझी थी ।

उस दिन भी शाम को घर की घंटी बजी। यह तो भैया के आने का ही समय रहता है। निश्चिन्त होकर चुटपुटी ने दौड़कर दरवाज़ा खोला। दरवाज़ा खुलने के साथ ही अपनी बेटी को सामने पाकर चुटपुटी के बाप की तो बाछें खिल गईं। हाथ-पैर जोड़कर अपनी बेटी को तलाशने और पा लेने की नौबत ही उसके सामने नहीं आई। अब भला वह क्यों गिडगिड़ाता क्यों कमजोर बनता। उसने तो चुटपुटी को देखते ही गालियों की बौछार शुरू कर दी और हाथ-पैर चलाने लगा, बेटी को छिपाकर रखने के इल्जामों की झड़ी लगा दी और पल भर में इतना हंगामा किया कि हम सकते में आ गए। इस हंगामें से घबराकर सोनू ज़ोर-ज़ोर से रोने लगा। पिता का सामना करने के लिए इस समय भाभी ही चुटपुटी का सबसे बड़ा सहारा थीं। आज भाभी ही सोनू को चुप कराने का बहाना करके अंदर भाग लीं। चुटपुटी सकते में आ गई। उसके पिता ने कसके उसका हाथ पकड़ रखा था। मैं निशब्द थी। भाभी के शब्दों केा तो चुटपुटी किसी तीर की नोक, तलवार की धार या बन्दूक की गोली से भी कहीं ज्यादा घातक समझती थी। वह तो इस भ्रम में थी कि भूले से भी अगर कभी उसके पिता का सामना भैया की जगह भाभी से हुआ तो वीरांगना भाभी तीखे शब्दों से ही उसके पिता पर ऐसे वार करेंगी कि वह बच नहीं पाएगा। निरूपाय खड़ी चुटपुटी की आँखें भाभी को खोज रहीं थीं कि तभी बाहर से आते भैया को देखकर उसमें इतनी ताकत आ गई कि उसने अपने बाप को धक्का दे डाला और अंदर की ओर भागी। लड़खड़ाते हुए उसके पिता ने संँभलने के लिए भैया का ही सहारा लिया और अंट-शंट बकने लगा। दरवाज़ा खुला था, भीड़ जुटने लगी थी। आरोप, अपमान, भीड़, कानून, पुलिस .... इतना सब सुनना और झेलना तो भैया के स्वभाव में ही नहीं है। भैया और इतने झमेले ? उन्हें तो सिर्फ अपने काम से काम और मतलब रहता है। विरोध और चुनौती जैसे शब्द उन्हें पसन्द ही नहीं आते। किसी और के लिए संघर्ष करना उन्हें रास नहीं आता। उन्होंने आग्नेय नेत्रों से मुझे और कमरे से निकलती हुई भाभी को देखा। पिता से हाथ छुड़ाकर जान बचाती हुई चुटपुटी कमरे की ओर ही दौड़ी जा रही थी। भाभी ने बीच में ही उसे थाम लिया। जितना कसकर चुटपुटी के पिता ने उसे पकड़ा था, उससे कहीं ज्यादा कसकर भाभी ने उसे पकड़ा और लाकर उसके पिता के सामने खड़ा कर दिया।

असहाय चुटपुटी ने छटपटाना भी बन्द कर दिया। उसने एक उड़ती नज़र मुझ पर और भाभी पर डाली, अवज्ञा और घृणा से भैया केा देखा, सोनू की ओर से पीठ कर ली और अचानक एक बार फिर अंदर की ओर भाग ली।

भैया गुस्से में चिल्लाए, भाभी फिर से पकड़ने को दौडी़ं। मैं इकट्ठा हुए लोगों केा विदा करके दरवाज़ा बन्द करने को बढ़ी। चुटपुटी का पिता फिर से हरकत में आने लगा। अब वह अकेला नहंीं था, हमारी पूरी फौज उसके साथ थी। उसने अब अपनी गालियों और धमकियों का रुख पूरी तरह चुटपुटी की ओर कर दिया। वह उसे मारने के लिए झाडू, डंडे, चिमटे जैसे हथियार ढूँढने लगा। भैया गुस्से में भरे हुए एक कोने में खड़े हुए इस पटकथा के समापन की प्रतीक्षा कर रहे थे। भाभी उग्रता से चुटपुटी को कोस रही थीं। मेरी रुलाई नहीं रुक रही थी। मैं जाकर उसकी कोठरी के आगे खड़ी हो गई ,उसे बचाने के लिए नहीं, उसे उसके क्रूर पिता के हाथों में सौंप देने के लिए।

चुटपुटी के पिता को थोड़ा बहुत पैसा पकड़ाकर भाभी उसके सभी ऋणों से मुक्त हो र्गइं और उसके भाग्य को प्रणत भाव से स्वीकार करके हम सभी अपने कामों में जुट गए। टूटा, बिखरा सामान कोठरी से बाहर फिकवाते हुए भाभी ने चुटपुटी की बदतमीज़ी और एहसान- फरामोशी के लिए उसे कई बार कोसा और किसी कुशल और तमीज़दार नौकर की तलाश में जुट गईं।

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