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कठपुतलियाँ


मैं उस समय कक्षा में बच्चों को पढ़ा रही थी, जब दाई ने आकर कहा-बड़ी प्रिंसिपल बुला रही हैं। मैं अन्दर ही अन्दर काँप गई- हे ईश्वर, फिर बुलावा! अब कौन- सा तूफान आने वाला हैं? थोड़ी देर पहले ही तो उन्होंने मुझे एक लिफाफा दिया था, जिसे अभी तक मैं पढ़ भी नहीं पाई थी। आश्वस्त थी की ‘री-ज्वाइनिंग लेटर’ होगा, क्योंकि एक दिन पूर्व ही अन्य शिक्षकों को वह लेटर मिला था। यह हर वर्ष की औपचारिकता है। प्राइवेट अंग्रेजी स्कूलों में सत्र के अन्त में अध्यापक को ‘फ्रेश अप्लीकेशन’ देना पड़ता है और फिर मैनेजमेंट अपनी इच्छा से जिस अध्यापक को चाहता है ‘री -ज्वाइन’ करता है या फिर नहीं। यह व्यवस्था शायद इसलिए कि अध्यापक अपने कार्य की अवधि का हवाला देकर सरकारी वेतन पाने की उम्मीद न करें। कई स्कूलों में तो ग्रीष्मावकाश का वेतन भी नहीं दिया जाता, जबकि बच्चों से पूरे वर्ष की फीस ली जाती है। कम वेतन में अधिकतम काम लेना और जब चाहे निकाल बाहर करना, अंग्रेजी स्कूलों की एक खास बात बन गई है। बेरोजगारी की निरंतर बढ़ती फौज के कारण उन्हें शिक्षक आसानी से उपलब्ध भी हो जाते हैं। इस तरह अध्यापक न्यूनतम वेतन पर काम करने पर मजबूर हैं, तो अभिभावक अधिकतम फीस या अन्य निरर्थक फैशनेबुल मांगें पूरी करने की लिए विवश, सिर्फ स्कूल मालिकों के पौ-बारह है। जब मुझे अन्य अध्यापकों के साथ ‘री -ज्वाइनिंग लेटर’ नहीं मिला तो मैं चिन्तित होकर प्रिंसिपल के पास गई थी, तो उन्होंने कहा- ‘आपका लेटर अभी टाइप हो रहा है। कल तक मिल जाएगा।‘ पूरी रात मैं सो नहीं पाई। दरअसल नौकरी छूट जाने के भय से मैं कभी मुक्त नहीं हो पाती। हमेशा एक असुरक्षा की भावना घेरे रहती है। नौकरी से संबन्धित भयावह सपने भी देखती हूँ। कारण वही कि नौकरी से ही मेरा अस्तित्व है। अन्य शिक्षकों को तरह घर-परिवार व अपनों की सुरक्षा नहीं। उस पेड़ की तरह हूँ, जो अनचाहे ही कहीं उग आता है और प्रकृति के भरोसे तथा अपनी श्रम-साधना से जीवन रहता है।
आज जब प्रिंसिपल ने मुझे लिफाफा दिया, तो मेरी टेंशन दूर हो गई कि चलो एक वर्ष तक और रोटी, कपड़े, मकान की व्यवस्था हुई, वरना फिर मारा-मारा फिरना पड़ता, पर उनका बुलावा...! बच्चे काम कर रहे थे और मेरा दिमाग उलझन में था। एकाएक ख्याल आया कि दूसरे अध्यापकों को तो बिना लिफाफे का टाइप किया हुआ लेटर मिला था, पर मुझे तो लिफाफे में रखकर लेटर मिला है। कहीं कुछ और...नहीं....’हे ईश्वर, रक्षा करना।‘ मैं मन ही मन प्रार्थना करने लगी।
ज्यों ही मैं प्रिंसिपल के सामने पहुँची, तो देखा उनके ठीक सामने की कुर्सी पर रजिस्टर लिए क्लर्क और उसकी बगल में छोटी प्रिंसिपल बैठी हैं। मैं एक किनारे खड़ी हो गई। बड़ी प्रिंसिपल ने पूछा-‘’लेटर पढ़ लिया है।’’ मैंने बताया-“अभी क्लास ले रही थी। पढ़ा नहीं है, कोई खास बात!”
उन्होंने जवाब दिया-“हाँ, खास बात यह है कि जुलाई में आप ज्वाइन नहीं कर सकेंगी!” मुझे चक्कर आने लगा। लगा फिर किसी भयावह सपने को देख रही हूँ। मन को समझाया-जो दिखाई-सुनाई दे रहा है, वह नींद खुलते ही गायब हो जाएगा। पर वह सपना नहीं था।
“आप मई महीने का वेतन ले लें! दीपक जी, इनका हिसाब कर दें।” उन्होंने गम्भीर स्वर में कहा। मैंने अचकचाकर छोटी प्रिंसिपल की तरफ देखा। वे खामोश तीखी नजरों से मुझे देख रही थीं। मैं किंकर्तव्यविमूढ़ थी। वेतन का लिफाफा पकड़ने के अलावा मेरे सामने कोई विकल्प नहीं था। ऐसी विपरीत परिस्थितियों में मैं धैर्य,सब्र व समझदारी से काम लेती हूँ, रोती-गिड़गिड़ाती नहीं। मैंने लिफाफा लिया और सबको ‘थैंक्स’ कहकर ऑफिस के बाहर निकल आई। तभी कुछ ख्याल आया। शायद अंतिम कोशिश करने का ख्याल! मैं पुन: प्रिंसिपल के कमरे में गई और विनम्र स्वर में पूछ लिया-“अपनी गलती जान सकती हूँ।” बड़ी प्रिंसिपल ने छोटी प्रिंसिपल से आँखों ही आँखों में कुछ बातें कीं, फिर बोली-“गलती कोई नहीं है बस हमें आवश्यकता नहीं है और फिर हम आपकी योग्यता (?) का इस्तेमाल ठीक ढंग से नहीं कर पा रहे हैं, इसलिए भी।” कहकर वे छोटी प्रिंसिपल की तरफ देखकर अपने उसी चिर-परिचित अंदाज में होंठों को थोड़ा टेढ़ा करके मुस्कराईं, जो मुझे बेहद पसंद था, पर आज उस मुस्कराहट में रहस्य और व्यंग्य था। क्लर्क भी होंठों ही होंठों में मुस्करा रहा था और छोटी प्रिंसिपल की बड़ी-बड़ी आँखें भी विजय-गर्व से मुस्करा रही थीं। मानो कह रही हों-‘देखा, मेरा पावर! मैं क्या कर सकती हूँ!’
बाहर निकलते ही मुझे उनकी सम्मिलित हँसी सुनाई दी। अधिकार, अहंकार व विजय के नशे में डूबी हँसी। शायद बकरे की गर्दन काटकर कसाई भी ऐसे ही हँसता होगा। फिल्मों में रावण, कंस, हिरण्यकश्यप जैसे अभिमानी, आततायी, खलनायक ऐसे ही तो हँसते हैं। स्त्रियाँ भी किसी का अहित करके खुश हो सकती हैं, जश्न मना सकती हैं, यह अनुभव उसी दिन मिला था। उस समय मुझे चीखना-चिल्लाना चाहिए था, अपने हक की बात करनी चाहिए थी पर...मैं मौन थी। धैर्य और सब्र की सम्भ्रान्त मूर्ति। अपनी उस विवश स्थिति का दृश्य आज भी मुझे रुला जाता है। ब्लड-प्रेशर बढ़ गया था, पेट में कुछ खौलने लगा था, और मैं चुपचाप लड़खड़ाते कदमों से किसी तरह घर लौट पाई थी। मेरे चुपचाप चले आने के पीछे एक कारण यह भी था की मुझे स्कूल के प्रबन्धक पर भरोसा था। वे बेहद सुलझे हुए, मेहनती, ईमानदार व प्रतिभा की कद्र करनेवाले शख्स थे। मेरे लेखिका रूप का वे मेरा सम्मान भी करते थे। कुछ दिन पहले ही मेरी उनसे बातचीत हुई थी और तभी मैंने उन्हें यह संकेत भी दे दिया था कि विद्यालय परिसर में मेरे खिलाफ कुछ चल रहा है। यद्यपि उन्होंने इस बात से अनभिज्ञता जाहिर की कि ‘उन तक मेरी कुछ शिकायतें पहुँची हैं।‘ उन्होंने मुझे आश्वस्त करते हुए यह सलाह दी थी कि चुपचाप मेहनत से आपना काम करिए...बस। मैं निश्चिंत हो गई थी पर आज की घटना! ऐसा कैसे सम्भव हो सकता था की उन्हें इतने बड़े फैसले की जानकारी न हो! पर उनसे बात किए बिना मेरा किसी किस्म का निर्णय जल्दबाजी का होता।
घर पहुँचकर मैं फूट-फूटकर रोती रही कि मेरा भाग्य हमेशा मुझे धोखा क्यों दे देता है! अकारण ही लोग मेरे शत्रु क्यों बन जाते हैं? क्या गलती थी मेरी? क्यों छोटी प्रिंसिपल मुझे पसंद नहीं करतीं? मैंने तो हमेशा उनका सम्मान किया! उनके कहे अनुसार काम किया। कभी यह जाहिर न होने दिया कि मैं लेखिका हूँ। अधिक शिक्षित हूँ, फिर क्यों...? क्या मेरा रूप-रंग, अलग-सा व्यक्तित्व व नामचीन होना उन्हें पसंद नहीं? चैनलों पर भी दिखती ही रहती हूँ। स्त्री की आजादी की पक्षधर हूँ, पर विद्यालय में तो मैं महज एक अध्यापिका की तरह व्यवहार करती हूँ। फिर क्यों वे... ? क्या सच ही कहते हैं लोग कि स्त्रियों में ईर्ष्या की मात्रा बहुत ज्यादा होती है, तो क्या उन्होंने ईर्ष्यावश...! लगता तो नहीं... शायद मेरा व्यक्तिगत जीवन उन्हें पसन्द नहीं। पति से अलग एकाकी जीवन उनकी दृष्टि में अच्छी स्त्री नहीं जी सकती। वे स्त्री की स्वतन्त्रता की भी विरोधी हैं, यह बात उनकी पुत्री (जो यहीं अध्यापिका होकर आई है) ने बताई थी-‘माँ बहुत सख्त हैं। कभी अकेले बाहर नहीं जाने देतीं। हमेशा डाँटती-फटकारती रहती हैं।’ कई बार तो वह लड़की माँ के अत्याचारों का वर्णन करते रोने लगती थी। पर किसी के व्यक्तिगत जीवन से उन का क्या लेना-देना! कहीं पुरानी अध्यापिकाओं ने मेरे खिलाफ उनके कान तो नहीं भरे! अवश्य यही बात होगी। थोड़ी कान की कच्ची हैं भी। हमेशा उनके दफ्तर में उन चापलूस अध्यापिकाओं की आमद-रफ्त रहती है; जो अपनी प्रशंसा और दूसरों की निन्दा करती रहती हैं। मैं चूँकि ऐसी अध्यापिकाओं को मुँह नहीं लगाती, इसलिए वे मुझसे जली-भुनी भी रहती हैं। वैसे मैं किसी से दुराव नहीं रखती। सबसे हँसती-बोलती हूँ, पर ज्यादा नज़दीकियाँ नहीं बना पाती । काम से ही फुरसत नहीं रहती। फिर विचारों में तालमेल भी नहीं होता। किसी की बुराई करने व सुनने से गुरेज करती हूँ, ऐसी हालत में कोई मेरे साथ कैसे हो?
मुँह-हाथ धोकर मैंने प्रबन्धक महोदय को फोन मिलाया। बड़ी मुश्किल से फोन मिला। जब उन्हें सारी बातें बतानी चाहीं, तो उन्होंने रुखाई से जवाब दिया-“मैं विद्यालय के कामों में दखल नहीं देता। वहाँ के कार्य की ज़िम्मेदारी प्रिंसिपल को सौंप दी है...वे कैसे कार्य करती हैं, इसकी अपेक्षा रिजल्ट पर ध्यान देता हूँ। आपने जरूर कोई ऐसी गलती की होगी; वरना हम लोग तो किसी अध्यापिका को निकालने के खिलाफ हैं। वैसे मैं एक बार प्रिंसिपल से बात करके देखूँगा।”कहकर उन्होंने फोन रख दिया। मैं समझ तो पहले ही गई थी कि अब कुछ नहीं हो सकता, पर आशा का दामन पकड़े हुए थी। मैं इस सच से भाग रही थी कि बिना प्रबन्धक की इच्छा के किसी अध्यापक का हिसाब-किताब कर देने का साहस प्रिंसिपल में नहीं हो सकता। वे अपना दामन बचा रहे हैं। कहते हैं कि अध्यापक को निकालते नहीं। मेरे सामने ही दो अध्यापिकाएँ निकाली गई थीं। एक अध्यापिका जो, मुझसे पहले हिन्दी पढ़ाती थी; वह तो एक बड़े स्कूल के प्रिंसिपल की पत्नी थी। कारण, वही कुटनियों की साजिश और प्रिंसिपल की तानाशाही। स्वाभिमानी महिला थी। त्यागपत्र दे दिया। दूसरी संगीत की अध्यापिका थी, पर उसे हिन्दी पढ़ाने को कह दिया गया था। छोटी-मोटी एकाध गलतियाँ कर गई, फिर उसकी जो लानत-मलामत हुई कि तौबा! उसकी कॉपियाँ गायब कर दी जाती थीं... । तमाम कमेंट्स पास किए जाते थे। वह भी बाद में उत्तर-प्रत्युतर देने लगी। फिर क्या अंतत: ‘बड़े बेआबरू होकर उनके कूचे से हम निकले’ की स्थिति हुई। एक और अध्यापिका को निकाल देने की कोशिश नाकाम हुई। उस पर चोरी का इल्जाम लगाया गया। खुलेआम मीटिंग में नाम लेकर कहा गया कि उसने चोरी की है, पर उसकी छोटी और तेज-तर्रार बहन (जो यहीं अध्यापिका है)ने सबकी बोलती बंद कर दी। प्रबन्धक से मिली, जान देने की धमकी दी। अंतत: प्रबन्धक ने सबको डाँट-फटकार कर मामला रफा-दफा किया और वह अध्यापिका ऐसे विरोधी माहौल में भी नौकरी करती रही। इधर तो वह अध्यापिका भी उसी गोल में शामिल हो गई है। सब कुछ भूल-भालकर उनके लिए खाना बनाकर लाती है, उन्हें सिलाई-कढ़ाई इत्यादि हस्त-शिल्प की वस्तुएं भेंट कर-करके ‘क्राफ्ट टीचर’ भी बन गई है।
ग्रीष्मावकाश होने में अभी तीन-चार दिन बाकी थे। मैं किस मुँह से विद्यालय जाती। बच्चों की कॉपियाँ ‘स्टाफरुम’ में पड़ी थीं। हस्ताक्षर करके दे भी नहीं पाई थी। बच्चों से अन्तिम बार मिल भी नहीं पाई। ये वे बच्चे थे ,जिनके लगाव में मेरा जीवन आसान हो गया था |मैं जहां भी रही,बच्चों से अपार स्नेह मिला। मैं भी उन्हें जी-जन से प्यार करती हूँ। कभी प्रोफेशनल अध्यापिका नहीं बन पाई, तभी तो अयोग्य ठहराई जा रही हूँ। इस विद्यालय ने मुझे ब्लड-प्रेशर की बीमारी दे दी है। अक्सर सिर के पिछले हिस्से में दर्द होता है। जब भी प्रिंसिपल का बुलावा आता था, लगता था मैं होश खो रही हूँ। इतना खौफ, इतनी असुरक्षा, पाँच हजार की नौकरी के भी लाले! पी-एच.डी. करने के बाद भी!... थू है इस शिक्षा व्यवस्था पर और थू है मुझ पर... ।
मैं इन दिनों कमरे में बन्द रही। एक दिन...दो दिन...तीसरे दिन...लगातार प्रबन्धक को फोन मिलाती रही और जब फोन मिला तो उन्होंने नाराजगी भरे स्वर में मेरी भर्त्सना की। मेरे किए-अनकिए दोष गिनवाए और अन्त में प्रिंसिपल के फैसले को न बदल सकने पर खेद प्रकट किया, मैंने अपनी परिस्थितियाँ बताईं और अपने प्रैक्टिकल न होने पर खेद प्रकट किया। साथ ही भविष्य में कोई गलती न करने का वादा भी किया, पर सब व्यर्थ...! फैसला तो पहले ही लिया जा चुका था। बाद में किसी ने बताया कि छोटी प्रिंसिपल ने प्रबन्धक के आमने यह शर्त रख दी थी कि ‘या तो वह या मैं’। प्रबन्धक के लिए वे ज्यादा फायदेमन्द थीं, इसलिए उन्होंने प्रिंसिपल की बात मान ली थी। यह एक बड़ा सदमा था मेरे लिए, क्योंकि प्रबन्धक के प्रति यह विश्वास था कि वे मेरे साथ कोई अन्याय नहीं होने देंगे |वे बार-बार अफसोस जाहिर कर रहे थे कि मजबूर हैं। कैसी मजबूरी थी यह! मालिक भी मजबूर होता है क्या? अगर वह चाह लेते तो प्रिंसिपल की क्या हैसियत थी! पर वह मेरे सामने सहृदयता दिखा रहे थे। अन्दर के किसी स्त्रोत से यह भी पता चला कि छोटी प्रिंसिपल और प्रबन्धक के बीच कुछ और ही...! पर मैंने, इस घटिया बात पर विश्वास नहीं किया। हाँ, यह सन्देह जरूर हुआ कि कहीं प्रबन्धक के मन में मेरे प्रति आदर देखकर वे स्त्री सुलभ ईर्ष्या के वशीभूत होकर मेरा सत्यानाश तो नहीं करना चाहती थीं।
कारण जो भी हो, पर मैं तो सड़क पर आ ही गई थी। मुझे याद आया वह दिन, जब मैंने इस स्कूल को ज्वाइन किया था। कितना खुश थी। कुछ दिनों बाद ही प्रबन्धक को अपनी कविता की किताब भेंट की थी मैंने, और किताब के लोकार्पण पर आने का निमन्त्रण दिया था। वे बहुत खुश हुए थे और कहा था-‘आप जैसी शख्सियत मेरे विद्यालय में है, यह मेरे लिए गर्व की बात है।’ वे मेरी कविताओं से प्रभावित थे और जब कभी अवसर मिलता, मेरी प्रशंसा अवश्य करते। उनकी बेटी की शादी के अवसर पर जब मैं पहुँची, तो उन्होंने अपने मित्रों से मेरा परिचय साहित्यिक व्यक्तित्व के रूप में ही कराया। क्या यही सब प्रिंसिपल को खटक गया? या फिर सच ही मुझसे ऐसी गलती हुई थी ,जिसे वे क्षमा न कर सकीं।
मेरी नियुक्ति उन्होंने जिस अध्यापिका की जगह की थी; वह उनकी खास थी, पर उसे डिलीवरी के लिए लम्बी छुट्टी पर जाना था। इसलिए उन्हें एक ऐसी अनुभवी अध्यापिका की जरूरत थी, जो एक-डेढ़ माह बाद होने वाली बोर्ड परीक्षाओं के लिए बच्चों को सँभाल ले। मैंने बड़ी कुशलता से अपना कार्य-भार सँभाल लिया था। रिजल्ट भी अच्छा आया और मात्र छह महीने में ही मेरा वेतन बढ़ा दिया गया। इनाम अलग मिला। पूरे दो वर्षों तक सब कुछ ठीक चला।
प्रश्न –पत्र बनाना, स्कूल की पत्रिका में महत्वपूर्ण लेख लिखना, प्रूफ रीडिंग ,प्रतियोगिताओं के लिए बच्चों को तैयार करना इत्यादि वह सारे कार्य जो मेरे विषय हिन्दी से संबन्धित थे, मैं कर रही थी। बोर्ड परीक्षाओं में भी इन दो वर्षो में बच्चों ने रिकार्ड बनाया। हिन्दी विषय में 99 प्रतिशत नम्बर आए, जिसके कारण तीन बच्चे सी.बी.एस.सी. बोर्ड से पुरस्कृत हुए, सब ठीक था। बच्चे भी मुझसे सन्तुष्ट थे, अभिभावक भी। प्रिंसिपल को भी कोई शिकायत न थी। स्कूल में दो प्रिंसिपल थीं-बड़ी और छोटी, पर छोटी ही रजिस्टर्ड थीं। समस्या तब से शुरू हुई जब वह अध्यापिका लौट आई, जिसकी जगह मेरी नियुक्ति हुई थी। और जो प्रबन्धक, प्रिंसिपलों व स्कूल के लिए भी खास और पुरानी थी। उसके महत्व का अंदाजा मुझे तभी हो गया था; जब उसने ही मेरा इंटरव्यू लिया था। मैं उसका सम्मान करती थी, पर देखने में सीधी-सरल दिखने वाली यह महिला बेहद खतरनाक है, इस बात का अंदाजा मुझे उन तीन अध्यापिकाओं के परिणाम (जिनका ऊपर उल्लेख कर चुकी हूँ) को देखकर हो चुका था। मैं सावधान थी क्योंकि जान गई थी कि उसका अगला निशाना मैं ही हूँ। वह मन ही मन खौल गई थी कि मैंने उसकी अनुपस्थिति को भर दिया है। महत्वपूर्ण कक्षाएं मेरे पास हैं और मैं सबकी प्रिय बनी बैठी हूँ। उसने परदे के पीछे से अपना खेल शुरू कर दिया। छठी इन्द्रिय के अत्यधिक जागृत होने के कारण मुझे आभास होने लगा था कि कहीं कुछ गलत हो रहा है। मेरे विरुद्ध जाल रचा जा रहा है और मेरा अनुमान गलत नहीं था। सबसे पहले मुझे हाईस्कूल की कक्षाध्यापिका के पद से (जिस पर विगत दो वर्षों से थी) हटा दिया गया। फिर एक-एक कर अधिकांश महत्वपूर्ण कक्षाएं (हाईस्कूल, इंटर की) ले ली गईं। फिर तोहमतों का सिलसिला शुरू हुआ। प्रिंसिपलें मुझे बुलाती और कहतीं-“गार्जियंस के कम्पलेन आ रहे हैं...बच्चे ‘सैटिसफ़ाई’ नहीं हैं।” मैं जान रही थी कि ऐसा कुछ नहीं है। फिर भी विनम्रता से कहती-“ठीक है मैडम, मैं और अच्छा करने की कोशिश करूँगी। आप कुछ तरीका बताएं।”
“जी...जी...जी” करते मेरा ब्लड प्रेशर बढ़ने लगा था। लगातार अपने को जब्त करना पड़ रहा था। अकारण लगाए जा रहे इल्जामों से मेरा सिर घूमने लगा था। प्रिंसिपलें मेरी कक्षा में बैठने लगी थीं। मेरे बच्चों की कॉपियाँ ‘री-चेक’ होने लगी थीं। बच्चों से खोद-खोद कर मेरी कमियों के बारे में पूछा जा रहा था। कभी मैं बच्चों को हँसा देने की कोशिश कर देती, तो वह मेरा अपराध मान लिया जाता। मुझे याद है उस दिन ‘बाल दिवस’ था |स्कूल में न तो कोई कार्यक्रम हो रहा था ,न बच्चों को कोई बधाई दे रहा था |बच्चे बहुत दुखी थे जब मैं क्लास में गई तो एक बच्चा उदास स्वर में बोला ‘मिस लगता है आज ‘बाल दिवस’ नहीं ‘मरण दिवस’ है।’ बच्चों के उदास चेहरे मैं नहीं देख सकी। मैंने उन्हें चुटकुले सुनाए, एक्टिंग करके दिखाई (इस तरह बच्चों की शिकायतें दूर कीं पर ज्यों ही मैं स्टाफ रूम में पहुँची प्रिंसिपल का बुलावा आया। बड़ी प्रिंसिपल ने पूछा-‘आपने बच्चों को कौन-सा चुटकुला सुनाया था। बच्चे कह रहे थे। बड़ा ही फूहड़ था, हमें सुनाकर बताइए।’ मेरे तो काटो खून नहीं। मैं बच्चों को भला...जान से प्यारे थे बच्चे मुझे...माँ थी मैं उनके लिए। पता चला बच्चों ने शिकायत नहीं की थी, शिकायत करने वाली ‘वे’ ही थी। प्रिंसिपल के आदेश से मैंने वह चुटकुला सुनाया, जो दरअसल एक बोध-कथा थी। सुनकर बड़ी प्रिंसिपल बोली-‘यह तो ठीक है।’ छोटी प्रिंसिपल बोलीं-‘कभी और सुनाया होगा खराब चुटकुला।’ मैंने कहा-‘मैडम,अच्छा और खराब अपनी-अपनी समझ की बात है। हो सकता है शिकायत करने वाला मेरी बात समझ न पाया हो.... ।’ बात खत्म हो गई थी, पर मुझे अपमानित होना पड़ा। एक लेखिका से इस तरह का व्यवहार...! साहित्य का ए.बी.सी. न जानने वाली ये औरतें, आज कुर्सी की वजह से मेरी सफाई माँग रही थीं। पर मैं यह अपमान पी गई। सवाल नौकरी का था और मैं अपनी तरफ से कोई गलती नहीं करना चाहती थी।
यह बात तो अब साफ हो गई थी कि मेरे विरुद्ध प्रमाण जुटाए जा रहे हैं, ताकि मुझे नौकरी से हटाया जा सके और मैं नौकरी को पकड़कर बैठी थी। जब उन्होंने देख लिया कि इतना सब झेलने के बाद भी मैं नौकरी से चिपकी हूँ। अपनी इच्छा से छोड़ नहीं रही, तो उन्होंने अपनी कोशिशें और तेज कर दीं। उस अध्यापिका को उसकी खास दोस्त ‘नागिन’ कहा करतीं। पर उसका मजाक सत्य सिद्ध हो रहा था।
मैं यह नहीं कहती कि मुझसे गलतियाँ होती ही नहीं थीं, पर ऐसी नहीं होती थीं, जो दूसरी अध्यापिकाओं से न होती हों। पर उनकी गलतियाँ छुपा ली जाती थीं और मेरी गलतियों को मुददा बनाने के लिए ढूँढा जा रहा था। और अगर हम ढूँढने लगें तो गलतियाँ तो मिलेंगी ही। ‘नागिन’ जानती थी कि प्रबन्धक किस बात पर सबसे अधिक सख्त हैं, वह मुझसे वहीं गलती कराना चाहती थी। मैं अकेली पड़ गई थी। मेरे स्टाफ रूम की अध्यापिकाएँ मामला समझ रही थीं। पर चुप थीं (महिला स्टाफ रूम तीन थे वहाँ) और नागिन के स्टाफ रूम में षड्यन्त्र रचे जा रहे थे। अक्सर ऐसे लोगों का संगठन बन जाता है, जो एक जैसे विचार के होते हैं, पर मेरा कोई संगठन नहीं था। मैं सोचती थी विद्यालय में पढ़ाने के लिए आती हूँ, न कि राजनीति करने। खाली समय में कुछ पढ़ना या फिर बच्चों के बीच रहना ही मुझे भाता। फिर मैं कभी इतनी अच्छी नहीं बन सकती कि बुराई का साथ दूँ और यही मेरी सबसे बड़ी खामी है और इसलिए मैं अकेली भी पड़ जाती हूँ।
प्रिंसिपल के सामने बार-बार हाजिर होना अब मुझे अखर रहा था। एक दिन मैंने भी अपना पक्ष रख दिया, मैंने स्पष्ट शब्दों में कहा-‘मैडम, मैं यह नहीं मान सकती कि बच्चे मेरे पढ़ाने से सन्तुष्ट नहीं हैं। मेरे विषय में 99 प्रतिशत अंक ले आना इस बात का सबूत है कि वे मेरी बात समझते हैं। प्रतियोगिताओं में बच्चों को पुरस्कार मिलता रहा है। स्कूल की पत्रिका में हिन्दी का सारा काम अकेले मैंने ही किया। आज तक कोई अभिभावक मेरे पास शिकायत लेकर नहीं आया। फिर मैं कैसे मान लूँ कि बच्चे मेरे पढ़ाने से सन्तुष्ट नहीं हैं।’ प्रिंसिपल चिढ़कर बोलीं, ‘बच्चों का रिजल्ट उनकी मेहनत व गार्जियंस की देखभाल के कारण अच्छा आया है, फिर हम फ्रेश बच्चे ही लेते हैं।’ मैंने कहना चाहा, तो फिर बच्चों के अनुत्तीर्ण हो जाने पर अध्यापिका को क्यों दोषी ठहराया जाता है? इन दो वर्षों का रिकॉर्ड पहले से इतना बेहतर है तो क्या इसमें मेरा कोई योगदान नहीं। पर मैं परेशान थी। गलती मानती हूँ (अनकिए गलतियों की भी) तो कहती हैं कि ‘बहुत खूब, गलती करो और माफी माँग लो।’ गलती नहीं मानती हूँ, तो कहती हैं कि ‘आप गलती नहीं मानतीं। हर बात का जवाब मौजूद है आपके पास।’ हाँ, यह सच था कि मेरे पास हर बात का जवाब था, पर अदब के नाते चुप थी। उनका हर वार खाली जा रहा था। वे बौखला उठी थीं। एक दिन उन्होंने मीटिंग राखी। सबसे पहले नागिन ने मुझ पर इल्जाम लगाया- ‘ये अन्य अध्यापिकाओं से कहती हैं कि इन्हें गिराने की कोशिश हो रही है। ....’
मैंने कहा-‘किससे कहा, कृपया बताएं ।’
नागिन फूत्कारी –‘सरला, मीना वगैरह से।’
मैंने सरला से पूछा - ‘सरला जी, आप बताइए। क्या कहा था मैंने?’
सरला और मीना एक साथ बोल पड़ीं-‘हमारी तो इनसे मुलाक़ात ही नहीं हैं, काफी समय से। हम छोटी कक्षाओं में पढ़ाती हैं ,हमारा तो स्टॉफ रूम भी अलग है।’
नागिन बल खाकर रह गई।
‘प्रिंसिपल महोदया, कृपया बताएं, मुझ पर ये बेबुनियाद आरोप क्यों लगाए जा रहे हैं ? दूसरी अध्यापिकाओं को मुझसे शिकायत क्यों नहीं है?’-मैंने पूछा |
‘सबको, आपसे सहानुभूति जो है। पर आप भोली बनने की कोशिश मत करिए। क्योंकि वस्तुत: आप भोली हैं नहीं।’प्रिंसिपल ने जवाब दिया |
मैं समझ गई प्रिंसिपल पूरी तरह नागिन के गिरफ्त में है और अब मेरा बच पाना मुश्किल है। नागिन ने मुझ पर सहयोग न करने का भी आरोप लगाया। मैंने सफाई दे दी कि ‘आपने जब, जहाँ, जैसा सहयोग माँगा, मैंने दिया।’ इधर वह ही हिन्दी का महत्वपूर्ण कार्य (जो विगत दो वर्षों से मैं कर रही थी) कर रही थी। मुझसे प्रिंसिपल या खुद वह जो कार्य कहती, मैं कर देती थी। जीत मेरी हुई, पर अब वह चोट खाई नागिन थी। आज तक इस स्कूल की किसी अध्यापिका की इतनी हिम्मत नहीं हुई थी कि उसकी किसी गलत बात को भी काटे, पर मैं भी बेबुनियाद आरोपों को कैसे स्वीकार करती? सब उसी दिन समझ गए कि अब वह नागिन मुझे नहीं छोड़ेगी। वह प्रबन्धक की सबसे अधिक विश्वस्त थी। वे आँख मूँदकर उस पर भरोसा करते थे। उसकी शिकायत सही मानी जाती थी। विडम्बना यह थी कि मेरा सामना सुदृढ़ स्थिति वाली अध्यापिका से था। पर वह खुद तो परदे के पीछे थी, प्रिंसिपलें सामने। उनकी जुबानों में उसके शब्द थे। मैं चारों तरफ से घिर गई थी।
अन्त में उन लोगों ने परीक्षा की कॉपियों वाला अन्तिम हथियार निकाला और मेरी चेक की हुई कॉपियों का पुन: मूल्यांकन शुरू हुआ। गलतियाँ नहीं मिलीं, तो प्रश्न किया गया कि आप लिख कर दें कि किस आधार पर कॉपियां चेक करती हैं। मैंने लिखकर दे दिया, पर यह भी पूछ लिया कि विगत दो वर्षों में यह प्रश्न क्यों नहीं उठाया गया और फिर यह मुझसे ही क्यों कराया जा रहा है, दूसरों से क्यों नहीं? अगर मैं भी चाहूँ तो दूसरों में हजारों गलतियाँ निकाल सकती हूँ, पर प्रिंसिपल ने साफ कहा-‘दूसरों से अपनी तुलना मत करिए।’ इस तरह वे बच्चों और अभिभावकों के बहाने मुझे परेशान करती रहीं। बहुत सारी अपेक्षाएँ मुझसे की गई, मेरी हदें निर्धारित की गई, जबकि सभी जानते थे कि मैं अपने विषय में निपुण हूँ| हाँ, मेरी एक कमी थी कि अंग्रेजी भाषा में उतनी पारंगत नहीं थी। पर हिन्दी पढ़ाने के लिए अंग्रेजी की कोई खास जरूरत भी तो नहीं थी। मैंने अपने ‘बायोडाटा’ में साफ-साफ लिख दिया था कि-‘अंग्रेजी भाषा पर पूर्ण अधिकार नहीं।’ फिर भी मेरा चुनाव हुआ था। यह सच है कि अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में अंग्रेजी में बातचीत को महत्व दिया जाता है, पर पूर्वाञ्चल के छात्र, अभिभावक व अध्यापक इन नियमों का पालन करने में सफल नहीं हो पाते। अन्य हिन्दी अध्यापिकाओं का अंग्रेजी ज्ञान तो मुझसे भी अल्प था। इसलिए यह कारण भी पर्याप्त नहीं। फिर...कहीं ....कुछ तो होगा ही |अपनी खूबियाँ भी मेरी आँखों के सामने से गुजरीं ,जो अक्सर स्त्रियों को कुंठित करती रही हैं |मैं स्वभावत:चुप व आत्मकेंद्रित हूँ ,तो कहीं इसे ही मेरा अभिमान मानकर मुझे पराजित करने की कोशिश तो नहीं की जा रही है |काश वे समझ सकतीं कि मैं स्त्रियों के लिए संघर्षरत एक लेखिका भी हूँ जो’स्त्री ही स्त्री की शत्रु’जैसे फतवे को निरंतर अपनी लेखनी से काट रही है |पर मेरे साथ स्त्रियाँ ही ....तो क्या मेरा यह सोचना गलत है कि स्त्रियाँ स्वयं कोई निर्णय नहीं लेतीं |किसी मर्द का दिमाग उनके निर्णय के पीछे काम कर रहा होता है |एक तरफ ‘प्रत्यक्षम किम प्रमाणम’था ,दूसरी तरफ मेरी सोच! पता नहीं क्या सही था ?
इसी उधेड़बुन में थी कि अचानक एक विचार मुझे झकझोर गया |मैं जिन स्त्रियों को जिम्मेदार समझ रही थी ,उनके पीछे जरूर .....याद आया इधर मेरी व्यवस्था विरोधी रचनाएँ काफी चर्चित हुई हैं और यह विद्यालय उसी व्यवस्था का एक अंग है |अब तक मुझे कठपुतलियाँ दिख रही थीं ...अस्त्र-शस्त्र से लैस कठपुतलियाँ ....मुझ पर लगातार प्रहार करती कठपुतलियाँ ...पर अब वह डोर भी दिखने लगी ,जिस पर वे खेल दिखा रही थीं और मेरी आँखों ने उस हाथ के दर्शन कर लिए ,जिनमें उनकी डोर थी |मुझे अफसोस हुआ कि व्यर्थ ही उन स्त्रियों को दोषी समझ रही थी ,वे तो खुद उस व्यवस्था की शिकार थीं ....निशाने पर चढ़ी हुई ,जिनके कंधे पर बंदूक रखकर व्यवस्था शिकार कर रही थी |

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