पिछले दिनों व्हाट्सएप के एक साहित्यिक ग्रुप पर कहानीकार के बिना नाम के पोस्ट की गई कहानी "काली लड़की" पढ़कर मुझ जैसे पढ़ाकू को अहसास हुआ कि इस कहानी में किसी परिपक्व सांवली लड़की ने अपनी व्यथा लिखी है । जिसमें कि उसको सांवले रंग के कारण ,कभी मां की गोद ली हुई लड़की तो कभी बीमार लड़की होने के ताने सुनने पड़े । इस कहानी का अंत बड़ी समझदारी व सकारात्मकता के साथ किया गया है । बाद में पता लगा कि यह कहानी अबोध सी दिखती काव्या कटारे ने लिखी है, जो महज 13 साल की है। तो मैंने कहानी दोबारा पढ़ी और मैं दंग था।
यह अजब जमाना है जब छोटे बच्चे प्रतिभाशाली रचनाकार के रूप में सामने आ रहे हैं और तमाम बड़ी उम्र के लोग सिर्फ नाम और यश के सहारे छपे जा रहे हैं ।
काव्या कटारे की लिखी गई कहानियां मैंने मंगा कर पढ़ीं और हर कहानी के साथ आश्वस्त होता गया कि काव्या एक विलक्षण कथा लेखिका के रूप में खुद को सशक्त करती जा रही है । काव्या को साहित्य के संस्कार अपने पिता के पिता श्री महेश कटारे सुगम से मिले हैं, जो खुद दिगंत तक व्याप्त ख्याति के जनवादी गज़लगो और कहानीकार हैं । प्रतिभा की इस तरह की गौरवमई यात्रा को जानकर यह खुशी नहीं होती कि यह रक्त में बहते साहित्यकार के जींस के रूप में गुण प्राप्त होने का मामला है , बल्कि खुशी इससे होती है कि बच्चों को अवोधावस्था में मिले संस्कार उन्हें गुणवान और सर्जक बनाते हैं ।
काव्या की कुछ कहानी तो ऐसी कलात्मकता और चतुराई से लिखी गई हैं कि अगर उसमें काव्या का नाम हटा दिया जाए तो पता ही नहीं लगता कि वह नवोदित की कहानी है या किसी प्रतिष्ठित लेखक की ।
काव्या की कहानी "चीखें" एक बड़े विजन और बड़ी संवेदना की कहानी है। कथा सुना रही बच्ची बताती है कि पड़ोस के रहने वाले किशोर दादा को कोरोना की वजह से भोपाल के बड़े अस्पताल में भर्ती कराया गया था, जिनकी हालत बहुत सीरियस होने से उन्हें वेंटिलेटर पर रखा गया है । यह खबर इस बच्ची के घर में बड़ा सदमा दे जाती है। सब लोग बेहद गमगीन हैं । कोई किसी से बात नहीं कर रहा और अंततः बच्ची की मां अपने पति से जिद करके पूछती है कि आप ऐसे चुप्पी क्यों साधे हैं ?तो अटकते हुए बच्ची के पापा बताते हैं कि किशोर दादा तो सुबह दस बजे ही नहीं रहे। हॉस्पिटल वालों ने शव देने से मना कर दिया तो उनका अंतिम संस्कार भोपाल में ही कर दिया गया है। कल सुबह बस अस्थियां आने वाली हैं। यह खबर सुनकर बच्ची की मां इतनी घबरा जाती है कि उसका ब्लड प्रेशर बढ़ जाता है। यह प्रसंग पड़ोसी किशोर दादा के प्रति इस परिवार की आत्मीयता को दर्शाता है। सारा परिवार इस कल्पना से गमजदा है कि जब किशोर दादा की पत्नी और बेटियां सच्चाई जानेंगे तो उनका क्या हाल होगा?
अगली सुबह का नज़ारा यह है कि मोहल्ले के सारे लोग किशोर दादा के घरवालों की तरह दुःखी हो, अपने दरवाजे पर खड़े होकर रो रहे हैं। पड़ोसियों की यह आत्मीयता का यह दुर्लभ नजारा मन को भिगो देता है। कोरोना पर बिना किसी भाषण व वक्तव्य के लिखी गई यह कहानी काव्या को उन कथा कारों की जमात में खड़ा कर देती है जो अनुभवी और प्रतिष्ठित रचनाकार हैं।
अन्य कहानियों में प्रकृति को मानवीकृत करती कहानी "कन्यादान " और "वो", मां की कहानी "गोद" , बिजली और अन्य आधुनिक सुविधाओं में जीते एक परिवार की बिना बिजली के बिताई कष्टप्रद कुछ घड़ियां और इन घड़ियों के बरअक्स सदैव बिना बिजली के रहते गांव वालों की दशा याद करती कहानी "हक" , बहुधा बच्चों से पूछे जाने वाले सवाल कि तुम किस की तरह बनना चाहती हो ? का जवाब खोजती अवनी की कहानी "किस की तरह " , एक नियमित नौकरी को ठोकर मारते व्यक्ति को नौकरी के वेतन से जुड़े खर्च का बोध कराती उसकी पत्नी की कहानी " चाय की प्याली " काव्या की कलम से निकली और उसके सजग मष्तिष्क द्वारा सजाई- संभाली गई कहानियां है, इनसे काव्या की आगामी लंबी साहित्य की यात्राओं की संभावनाएं प्रकट होती हैं।
काव्या को बहुत सी शुभकामनाएं!
राजनारायण बोहरे