मदिराधिक्य से लाल चेहरे वाले लालचंद का संदेश पढ़कर पहले उसकी कान की लौ लाल हुई फिर चेहरा |समझ क्या रखा है उसे इस ललमुंहे बानर ने |एकांत में छिपकर पढ़ने वाली मस्तराम की कोई कहानी या चोरी से देखने वाली नीली फिल्म या कोई डेस्टबीन या लावारिस पड़ी हुई कोई जमीन ,जिसपर वह अपने देह और दिमाग का सारा कचरा डाल सके |शायद अकेली स्त्री को लगभग सारे पुरूष कुछ ऐसी ही चीज समझते हैं |उसने तो उसे साहित्य संस्कृति से जुड़ा प्रगतिशील बुद्धिजीवी समझा था पर वह तो किसी सामंती पुरूष से भी गया-गुजरा निकला |क्या वह भी स्त्री को सिर्फ और सिर्फ देह समझता है ?
‘और क्या ?उसके भीतर की नाराज औरत चीखी –ये सारे मर्द एक से होते हैं ..किसी भी स्त्री की तरफ जीभ लपलपाते कुत्ते |फिर वह तो एक बड़ा प्रकाशक है }पक्का व्यापारी |बिना लाभ की उम्मीद के कोई किताब नहीं छापता |देखती नहीं किस तरह उच्चाधिकारियों की किताबें मांग-मांगकर छापता है |लेखन की उच्चता से उसे क्या लेना-देना ?उसकी पाण्डुलिपि मांगते समय वह कितनी बड़ी-बड़ी बातें कर रहा था ,उसकी लेखनी की प्रशंसा कर रहा था |फिर धीरे-धीरे अपना रंग दिखाने लगा |पहले द्विअर्थी बातें शुरू कीं|वह अपनी पुस्तक के काम के बारे में कोई प्रश्न करती वह दूसरे ‘काम’ की बात करता |वह नासमझ बनने का नाटक करती |फिर वह अर्धनग्न चित्र भेजने लगा जिसे वह बिना देखे डिलीट कर देती |उसने पहले शालीनता से उसे मना किया कि मेरे विद्यार्थी अक्सर मेरा फोन ले लेते हैं इसलिए कृपया कुछ ऐसी सामग्री न भेजें |फिर भी वह नहीं माना |हाँ, ज्यादा समय वह अच्छी-अच्छी बातें करता |साहित्य संस्कृति की ,दुख-सुख की |वह भी उसके नग्न पक्ष को भूला देती |वह जान गयी थी कि जब वह अपने शहर से बाहर होता है और लाल परी का सेवन करता है तभी ऐसे चित्र ,विडियों या संदेश भेजता है|
उसने खुद उसकी किताब को छापने का वादा किया था |पाण्डुलिपि सुटंकित और प्रूफ की त्रुटियों से रहित थी |उसे सिर्फ किताब की शक्ल देनी थी ,पर धीरे-धीरे पूरा वर्ष निकल गया था |अब जब वह किताब के बारे में बात करती तो या तो जवाब नहीं देता या फिर टाल जाता या फिर दूसरी बातें करने लगता या कुछ दिन मौन साध लेता | और फिर शुरू हो जाता वही अश्लील राग|वह तिलमिलाकर रह जाती |वह किताब के लिए फोटो भेजी ,तो बदले में उसने नंगी औरतों की पूरी पी डी एफ फाइल ही भेज दी कि इस तरह के चित्र भेजो |एक बार कूरियर से कामशास्त्र की सचित्र किताब भेज दी थी |गनीमत हुई कि किसी ने देखा नहीं |पानी सिर से ऊपर जा रहा था |बर्दाश्त की इंतहा हो गई थी|अपनी तरफ से उसने उसे ऐसा कुछ नहीं भेजा..कहा था,जिसे वह अपना प्रत्युत्तर समझे |हमेशा अच्छी बातें करती| अच्छे विचारों वाले संदेश भेजती |कई तरह से उसे समझाती पर वह मानता ही नहीं था |वह शार्ट टेंपर की थी पर इस बार तो उसकी परीक्षा का अंत ही नहीं था |
इसी बीच उसकी प्राइवेट नौकरी छूट गयी |उसने उसे बताया तो उसने सहानुभूति जताई और मदद करने का आश्वासन दिया |उसने कहा-आप बस प्रूफ रीडिंग का काम दीजिए ताकि कुछ आय हो सके |उसने उसे ढेर सारा काम भेज दिया | अफसरों की पांडुलिपियाँ थीं |रफ कागजों पर हाथ से लिखी हुई या पुरानी पत्रिकाओं में छपी हुई खस्ता हाल|पढ़ने में ही नहीं आ रही थीं |लेखन के स्तर की बात ही मत पूछिए |इन्हें टाइप करके छापने में कितनी मुश्किलें आएंगी |रात-दिन आँखें फोड़कर उसने सारा काम करके भेज दिया ,पर उसने एक पैसा भी नहीं भेजा |एक-दो बार उसने कहा भी तो भेजता हूँ –कहकर टाल दिया| बाद में कहने लगा –काम में त्रुटियाँ थीं |वह हाय मारकर रह गयी |
वर्ष का आखिरी महीना चल रहा था |वह विश्व पुस्तक मेले में अपनी किताब देखना चाहती थी, पर उधर सन्नाटा था|वह किताब के बारें पूछती तो क़हता –लगातार काम हो रहा है |पर क्या काम हो रहा है इसका पता नहीं चल पा रहा था |वह उसे दूसरों की किताबों का विवरण भेज रहा था |अपनी किताब की पी डी एफ फाइल की प्रूफ रीडिंग करके भी वह भेज चुकी थी |क्यों देर हो रही है ?इसका पता नहीं चल पा रहा था |शायद वह उसे मजबूर करना चाहता है |और मजबूर करके उसका लाभ उठाना चाहता है |पर ऐसा कैसे हो सकता है ?किताब आना उसकी अस्मिता से बढ़कर नहीं है |इसलिए थोड़े ही वह साहित्य की दुनिया में आई है |वह कभी समझौता नहीं करेगी |किताब वह छापेगा तो किसी छोटे प्रकाशक से पैसे देकर छपवा लेगी |वह मन को मना रही थी पर भीतर से वह उदास थी |दुखी थी|उसका इतना समय बेकार चला गया था |अब लगता है इस वर्ष भी उसकी किताब नहीं आ पाएगी |
तभी उसने फिर अपनी गंदगी परोसनी शुरू कर दी |वह भरी बैठी थी |आखिर फट पड़ी-क्या मुझे इसी लायक समझ रखा है ?किसी अफसर की बीबी को ऐसे चित्र भेजकर देखिए |मेरी किताब के बारे में बात नहीं करते पर अश्लीलता परोस रहे हैं |
वह तुरत पलट गया-आप गलत सोचती हैं |आपकी किताब पर लगातार काम हो रहा है |आप ही हमें रोज कुछ न कुछ भेजती रहती हैं |
उसका संदेश पढ़कर वह सन्न रह गयी |उसने तो आज तक सुभाषित के सिवा उसे कुछ नहीं भेजा था |मर्द कितनी आसानी से अपनी कामुकता के लिए स्त्री को जिम्मेदार ठहरा देते हैं |उस पर ‘उकसाने’ का आरोप लगा देते हैं |क्या उसने कभी उसे उकसाया ?क्या कभी ऐसे हाव-भाव प्रकट किए कि वह भी उसके प्रति आकर्षित है ?फिर कैसे उसने उससे ऐसी अश्लील उम्मीद बांध ली ?क्या इसलिए कि वह उसकी बातों को टालती रही |शुरू में ही विद्रोह नहीं किया |शायद उसको उसकी चुप्पी से प्रोत्साहन मिला ,उसका मन बढ़ता गया |एक बार उसने उससे पूछा था –क्या सभी लेखिकाओं से आप इसी तरह की बातें करते हैं ?वह कहने लगा –इस उम्र में मुझे कौन पूछेगा ?आपको अपना समझते हैं इसलिए हर तरह की बातें कर लेते हैं |वह सोचने लगी कि गाँव की यह कहावत कितनी सत्य है –लाजे भवहि बोले ना सवादे भसुर छोड़े ना [शर्म के मारे छोटे भाई की पत्नी नहीं बोलती और उसका भोग करने को आतुर जेठ उसे छोडता नहीं ]|वह सोचती थी कि अपनी अच्छाई से वह उसका हृदय परिवर्तन कर देगी |उसके अंदर के सोये हुए इंसान को जगा देगी|पर वह तो गंदगी में लोटने वाला कीड़ा निकला | उसके दिल से रात-दिन उसके लिए बद दुआएं निकल रही हैं पर वह यह भी जानती है कि कलयुग में ‘मुई खाल की सांस से लौह भस्म ‘नहीं होता |
साहित्य में भी उसे वही कहावत सही लगती है -- ‘सब जगह देखा एक ही लेखा’ |उसे एक परिचित लेखक की बातें याद आई ,जो उसने एक वयोवृद्ध लेखक के बारे में कही थी –‘कोई लेखिका उससे बात कर ले तो सोचता है कि वह उसके साथ सोने के लिए मरी जा रही है |” ओह इतनी गिरावट |साहित्य की दुनिया में भी|
क्या स्त्री इस दुनिया में अपनी अस्मिता ,अपने स्वाभिमान ,अपने चरित्र के साथ जगह नहीं बना सकती ?हर जगह उसे समझौते करने पड़ेंगे ...अपनी देह का रिश्वत देना पड़ेगा ?हाय रे स्त्री की विडम्बना!घर में पति देह के बदले सुरक्षा और संरक्षण देता है तो बाहरी दुनिया में भी पुरूषों को उसका शरीर चाहिए |कैसे जीएगी स्त्री मर्दों की इस दुनिया में ?कोई भी क्षेत्र उसके लिए सुरक्षित नहीं |हर जगह देह की कीमत |’कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है’ का तर्क |तुर्रा यह कि इसके बाद भी स्त्री पर ही दोषारोपण, उसके ही चरित्र का ठेका लिए रहना|
वह जानती है कि अब वह शायद ही उसकी किताब छापे ,उसके मंसूबे जो अधूरे रह गए |
तो न छापे ... उसे अफसोस हो रहा है कि इतने दिनों तक वह क्यों इतनी मानसिक यंत्रणा सहती रही?
क्या उसे भी कोई लालच था ?शायद हाँ |किताब छपने के लोभ में वह सब सहती रही |सच कहते हैं लोभ विनाश का कारण होता है | यह सच है कि वह उसे शारीरिक रूप से शोषित न कर सका पर मानसिक शोषण तो किया ही |उसकी बातों से उसकी भावनाएँ आहत होती थीं |दिल को तकलीफ होता था, पर वह चुप रहती थी |वह तो इंसान ही नहीं है |पूरा शोषक है |काम कराकर पैसा तक नहीं दिया |उसे अपनी लेखनी पर भरोसा होना चाहिए था |छपने की चिंता से मुक्त लिखते रहना चाहिए था |क्यों वह व्यर्थ नाम कमाने के पीछे लग गयी ?अगर नाम के लिए अपनी अस्मिता का सौदा करना पड़े ,तो फिर क्या सार्थकता है ऐसे नाम की|गुमनाम होने के डर से उस दलदल में वह क्यों गिरना चाहती है,जिससे डंके की चोट पर निकलकर आई है |इससे तो अच्छा था वह अपने चरित्रहीन पति के साथ ही जीवन गुजार लेती|कम से कम इस समाज में उसे सती का लेवल तो मिल जाता |
पहले वह सोचती थी कि पीने के बाद वह बेकाबू होकर चित्र वगैरह भेजता है |वह चैट नहीं करती है तो मैसेज भेजता है |सोशल मीडिया की वजह से चीजे आसान भी तो हो गयी हैं |शायद मानसिक रति उसे संतुष्टि देती हो पर वह इसका माध्यम बनी ,इसका उसे कष्ट है |उसके आफिस में अक्सर शराब की पार्टियां होती हैं जिसमें सम रूचि वाले बड़े-बड़े लेखक सम्मलित होते हैं |मदिरा के बाद मादा की जरूरत होती है तो उसकी अनुपलब्धता में उसकी बातों से ही काम चला लिया जाता है |ऐसी-ऐसी बातें कि उनके पाठक सुन लें तो उनकी किताबें पढ़ना छोड़ दें|दिन में अपने साथ साहित्यिक सेमीनारों में शिरकत करने वालियों को भी वे नहीं छोड़ते |उनकी देह के उतार-चढ़ाओ ,उनकी उम्र ,उनके जीवन में आए पुरूषों आदि की रस चर्चा करते हैं |एक बड़े स्वनाम धन्य बूढ़े लेखक,संपादक [अब दिवंगत]तो दिन में भी अपने आफिस में युवा लेखकों से घिरे रहते थे और उन्हें लेखिकाओं के रोमांस के किस्से सुनाते |एक बार तो अपनी ही उम्र की एक बड़ी लेखिका के बारे में बताने लगे कि –वह इस उम्र में भी इसलिए फिट है कि उसने अनगिनत युवा लड़कों का सत्व सोखा है और वे इसलिए अस्वस्थ रहते हैं कि उन्होने अपना सत्व खोया है |’उनके इस कथन पर युवकों ने समवेत ठहाका लगाया |उन्हीं युवकों में से एक ने शर्माते हुए यह बात उसे बताई थी |उसने यह भी बताया था कि कई बड़ी हस्तियाँ लड़कों की भी शौकीन है और अगर कभी शोध हो तो ऐसे- ऐसे चेहरे बेनकाब हों कि लोगों का साहित्य संस्कृति की दुनिया से विश्वास ही उठ जाए |यह बाद की बात है कि वह अदना सा लेखक आज साहित्य की ऊंची कुर्सी पर बैठा है |कैसे?इसका ईमानदार उत्तर क्या वह दे सकेगा ?
वह सोचती है जिन लेखकों पर समाज की सोच व मानसिकता बदलने की ज़िम्मेदारी है, उनकी स्त्री सोच कितनी सामंती है |वे स्वयं स्त्री शोषक हैं |स्त्री की दैहिक आजादी के नाम पर उसे वे सर्वभोग्या बना देना चाहते हैं |उनके रहते स्त्री कैसे स्वतंत्र होगी ?कैसे संसार में अपनी प्रतिष्ठित जगह बना पाएगी ?जब हर कदम पर उन्हें निगलने को मगरच्छ तैयार हों ,तो कब तक स्वयं को बचा पाएगी ?