स्थान- परिवर्तन prabhat samir द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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स्थान- परिवर्तन

सुबह की चाय का प्याला थमाते हुए जयन्ती ने बड़ी सहजता से प्रतीक से कहा-‘प्रतीक, मैं अब तुम्हारी माँ के साथ नहीं रह सकती। प्रतीक अखबार पढ़ रहा था, पढ़ता रहा। बिना नज़र उठाए उसने भी उतनी ही सहजता से पूछा- ‘माँ के साथ न रह पाने का मतलब!
मतलब तो सीधा है कि मैं तुम्हारी माँ के साथ नहीं रह सकती।’

अपनी शादी के कुछ दिन बाद ही प्रतीक ने माँ का मकान बेच डाला था। कई वर्ष तक वह मकान माँ और बाबूजी की सिर्फ कल्पनाओं और सपनों में घूमता रहा, फिर उन दोनों की कड़ी मेहनत और बचत की बुनियाद पर उसने खड़ा होना शुरु किया और बनते-बनते तक वह उनका गर्व और मान-सम्मान बन गया। बाबूजी गुज़रे तो माँ को मकान से और ज़्यादा जोड़ गए। पहले तो प्रतीक को भी मकान से बहुत लगाव था। ‘हमारा घर, हमारा घर’ कहता वह थकता नहीं था लेकिन जब जयन्ती ने आकर उस घर में ‘स्टेटस’ ढूंढना शुरू किया तब प्रतीक को भी अन्तर्बोध हुआ कि वह घर और कुछ भी नहीं मात्र बाबूजी की अदूरदर्शिता और नासमझी का परिणाम था। बेचारी माँ भी जयन्ती की इस खोज से परेशान हो जाती और गुपचुप बाबूजी के चित्र के सामने हाथ जोड़कर पूछा करतीं- सब  कुछ तो दे गए फिर ‘स्टेटस’ लाना क्यों भूल गए ?
जयन्ती ने घोषणा कर दी कि ‘स्टेटस’ नहीं तो घर नहीं । सोते - जागते जिस मकान के बन जाने के सपने माँ और बाबूजी ने देखे थे, उसी के बिक जाने के सपने जयन्ती और प्रतीक को रात-दिन आने लगे। मकान को बेचने के लिए माँ को समझाना मुश्किल था, लेकिन इतना भी नहीं कि जयन्ती किसी पॉश कॉलोनी में नया फ्लैट खरीदने की अपनी ख़्वाहिश को खाद पानी देकर उसे सींचना ही बंद कर देती। जयन्ती जो ठान लेती है उसे पूरा करने में सीमाओं और मर्यादाओं को लाँघने का संकोच उसे नही रहता। वैसे भी मकान कोई ऐसी छोटी चीज़ तो थी नहीं कि माँ उसे सब की नजरों से छिपा कर रख लेतीं । रही कुछ कागजों पर उनके हस्ताक्षरों की बात, जयन्ती ने उसे चुटकियों का खेला माना। इस खेल में उसे अपने कलाकारी और कुशलता पर पूरा विश्वास था।

मकान में जगह बहुत थी लेकिन पूरे घर में माँ का ही स्वामित्व था। पूरे मोहल्ले में उन की ही साख थी। घर बनने में बचा लोहा, लक्कड़, बाबूजी की किताबें, कभी माँ की शादी में आई बड़ी .बड़ी तस्वीरें, बर्तन, बरनियाँ, कनस्तर, रज़ाई, बिस्तर, उपयोगी-अनुपयोगी जो भी सामान था उस पर माँ और बाबूजी की छाप थी। जब जिस चीज की ज़रूरत पड़ती माँ फटाक से निकालकर ले आतीं और उससे जुड़ा कोई किस्सा ज़रूर सुनातीं- ये मेरी शादी पर मिला, ये तेरे बाबूजी को मेरी माँ ने दिया,ये तेरे बाबूजी ने मुझे लेकर दिया, ये प्रतीक पैदा हुआ तो खरीदा, ये चलने लगा तो लेकर आए।’ पूरा बखान करने के बाद अंत में कहतीं- सब कुछ जुटा कर गए तेरे बाबूजी । कहते थे तुझे किसी के आगे हाथ न पसारना पड़े।‘
माँ की सहमति के बिना मकान नहीं बिक सकता था। लेकिन माँ की वर्षो की जमी गृहस्थी के सौदे के लिए न उनकी सहमति की आवश्यकता थी, न उनके हस्ताक्षर की। जयन्ती के लिए तो माँ,उनका मकान, सामान - सभी कुछ अनावश्यक था। कुर्सी, मेज़, पलंग, बर्तन, बिस्तर और इन्सान- कुछ भी तो स्टेटस के अनुकूल नहीं था। सहूलियत यह हो गई कि जिससे मकान का सौदा हुआ, उसने ही सारे माल-असबाब को कबाड़ की तरह आँककर उसका पैसा जयन्ती को पकड़ाकर उस पर ही अहसान कर दिया। जयन्ती को उस समय पैसे से ज्यादा पुराने सामान को ठिकाने लगाने की जल्दी थी।
मकान छोड़ते वक्त भारी मन से जब माँ अपनी निगरानी में सारा सामान बँधवाने में लगीं तो जयन्ती माँ की मदद को आगे आ गई। उनके कपड़े, किताबें, बाबूजी के फोटो, कुछ और छोटी-मोटी, भूली-बिसरी यादें बैग मे ठूँसकर बड़े प्यार से माँ को लेकर वह कार की ओर बढ़ी । प्रतीक ने हाथ पकड़कर माँ को बिठाया। माँ ने कहा- “सारा सामान”? ‘अश्वत्थामा हतः ..नरो वा... कुंजरो वा’ के स्टाइल में जयन्ती ने ‘आपका सामान’ कहकर कार का हॉर्न तेज बजा दिया और गाड़ी दौड़ा ली। माँ ने कई दिन तक फ्लैट के आगे सामान से लदे किसी ट्रक की प्रतीक्षा की और फिर चिन्ताग्रस्त होकर कुछ और झुर्रियाँ अपने चेहरे पर बना डालीं ।
फ्लैट में आंगन, बरामदा, खुली छत जैसा कुछ भी नहीं था और कमरे तो सीमित थे ही। ड्राइंगरूम हर समय इस्तेमाल के लिए नहीं होता। प्रतीक और जयन्ती को एक बैडरूम चाहिए, एक आफिसनुमा कमरा अकेले प्रतीक को चाहिए। पोको को कमरा न मिला तो सारे घर में धमाल मचाएगा फिर भी बेचारे, निरीह पोको को खाली कमरा नहीं दिया जा सका। घर का बचा-खुचा सामान उसके कमरे के एक कोने में जुटाना ही पड़ा। ‘माँ ! माँ का ठिकाना?’ प्रतीक और जयन्ती दोनों असंमंजस में थे। ले- देकर एक पोको का कमरा। वहाँ रहना कैसे भी सम्भव नहीं था। पोको तो पहले ही नई जगह पर आकर बहुत परेशान था। बेचारा दो बार अपना ठिकाना बदल चुका है। वह जयन्ती के बिना नहीं रह सकता इसलिए शादी के बाद जयन्ती के साथ नए घर में आया। कई दिन एडजस्ट होने में लगे। अब फिर नए फ्लैट में आना पड़ गया। अब तो बिना किसी व्यवधान के सलीके से रहने की आदत उसमें डालनी ही पड़ेगी नहीं तो गली के कुत्ते और पोको में क्या अन्तर रह जाएगा? नए सिरे से उसका बैड, उसके बर्तन, खिलौने, उसकी जरूरत का एक-एक सामान इस तरह जमाना होगा कि उसकी उछलकूद के लिए भी भरपूर जगह बनी रहे। पोको माँ को बहुत चाहता है लेकिन माँ कभी उसकी कद्र नहीं कर पातीं। ‘पैडिग्री’ और दूध के अलावा उसे कुछ दिया नहीं जाता। माँ हैं कि जो कुछ खुद नहीं खा पातीं, जानवर समझकर पोको के आगे फेंक देती हैं। ‘नो’’नो’ करते जयन्ती थक जाती है। पोको के उठने-बैठने के अपने ढ़ंग और ठिकाने हैं । माँ हैं कि पास में रखे उगलदान में खाँसती, थूकती जाती हैं और पोको पास में बैठा उस गंदगी को देखता रहता है। पोको जितना अनुशासित हैं, माँ का तो उस जैसा कुछ भी अनुशासित नहीं है। माँ पोको के साथ रहें--- जयन्ती को यह स्वीकार नहीं है।

अवसाद से घिरा प्रतीक कुर्सी पर गिर पड़ा। फ्लैट खरीदते में यह तो सोचा ही नहीं गया कि माँ का ठिकाना कहाँ बनेगा। जंयती छोटी -छोटी बातों से घबराने वाली नहीं है। वह सुघड़, समझदार पत्नी है। उसके सौन्दर्यबोध, कलात्मकता, कदम- कदम पर स्टेटस सिंबल का ज्ञान- इस सबका तो प्रतीक भी कायल है । घर की बड़ी वाली बालकनी को काँच और पर्दो से ढँकवाकर कमरे का रूप दे दिया गया। साफ़-सफ़ाई करवा दी गई। उस टुकड़ा भर जगह में इतने बड़े घर की स्वामिनी कैसे समा गई यह अलग ही शोध का विषय है।

नए फ्लैट में जयन्ती का सब कुछ अपना था। उसका फ्लैट, उसका पति, उसका पोको, उसका सोफा, उसका बैड, उसकी रसोई-अब हर चीज पर जयन्ती के नाम की मुहर। एक माँ ही जयन्ती की नहीं थी ! माँ भी कमाल थीं। अपने आप में ही अकेली सिमट कर बैठ गईं। उनका दुख-तकलीफ, भूख-प्यास, हँसना-बोलना रोना, रूठना सबकुछ एक छोटी सी बालकनी तक सीमित हो गया था। सुबह से रात तक किसी को माँ की जरूरत नहीं पड़ती । आज लेकिन जयन्ती ने दिन निकलने के साथ ही माँ का नाम लिया। दोबारा उनका प्रसंग चलाया, कहा- ’मज़ाक मत समझना प्रतीक, मैं बता चुकी। मैं तुम्हारी माँ के साथ नहीं रह सकती।’ अब प्रतीक चौंका , झुँझलाया-‘न रह पाने का कारण?’

जयन्ती को अपने निर्णयों पर प्रश्नचिन्ह अच्छे नहीं लगते। वह आपा खो देती है लेकिन आज संयत है। अहिस्ता से बोली -‘यह कारण क्या कम है कि मुझे तुम्हारी माँ पसन्द नहीं है।प्रतीक को कुछ कहने का अवसर दिये बिना लपककर बोली ‘तुम्हें भी तो मेरे हरे रंग की साड़ी पसन्द नहीं है। मैंने तुमसे पूछा कि क्यों पसंद नहीं है 
प्रतीक खीझ गया............‘मेरी माँ और तुम्हारी साड़ी!’ जयन्ती तपाक से बोली- ‘छोड़ो, साड़ी की बात छोड़ो। तुम मेरी भावनाओं केा नही समझ पाओगे। तुम्हें मेरे पोको से एलर्जी है तो मुझे भी तुम्हारी माँ से एलर्जी है।’

प्रतीक आदर्श पति है। विरोध करना और गुस्सा करना उसके स्वाभाव में नही है। आज उसे गुस्सा आ गया- ‘एक जानवर से माँ की तुलना?’ जयन्ती तिलमिला उठी । प्रतीक को धक्का देते हुए उसने घिक्कारा ‘जानवर? कौन जानवर ?’ पोको ही मायके से लाया हुआ जयन्ती का एक मात्र स्त्रीधन था जिसे वह ‘मेरा बच्चा, मेरी जान’ कहकर बुलाया करती है। वही है जो सबके सामने उसके मायके की हैसियत को बनाए रखता है। आज उसी पोको को जानवर कहकर प्रतीक ने जयन्ती और पोको दोनों का अपमान कर डाला।

जयन्ती माँ को पसन्द नहीं करती। प्रतीक जयन्ती को पसन्द करता है इसलिए उसी की पसन्द- नापसन्द से चला करता है। इस घर में माँ का विरोध होना कोई नयी बात नहीं है, लेकिन इस सीमा तक विरेाध प्रतीक की अपेक्षाओं से बाहर था। जयन्ती कमर कस चुकी है। आज जो करने का बीड़ा उसने उठाया है उसे परिणाम तक लेकर आना ही है। इस समय गुस्सा नहीं, ऐसी दलीलें चाहिए जो कि प्रतीक के मानस को छू सकें। दूसरों को बदलकर, अपने अनुसार चलाने में जयन्ती को बड़ा सुख मिलता है। प्रतीक के जीवन में भी वह कई बदलाव लेकर आई है। माँ में भी बहुत कुछ बदलने लायक है ,लेकिन अब वह संभव नहीं है। माँ अब एक व्यक्ति से ज्यादा एक समझौता हैं, एक समर्पण बनकर रह गयी हैं। विरोध का स्वर उठने तक वह समर्पण कर देती हैं । अड़चन तो यह है कि माँ का अनाकर्षक, शोभाहीन व्यक्तित्व जयन्ती के स्वनिर्मित सुघड़ परिवेश से मेल नहीं खाता।उनमें बदलाव की गुंजाइश ढूँढना ही व्यर्थ है।
जयंती के आदेशों के सामने नतमस्तक माँ कभी- कभी उद्धत हो जाती हैं। उनका रक्तप्रवाह बढ़ जाता है। उनकी निश्चेष्ट शंाँत देह में आकाँॅक्षाऐं जाग उठती हैं। ssतब उनका हँॅसना, रोना, गाना, गुनगुनाना, उठना- बैठना, खाना -पीना हदों से बाहर चला आता है। वह बेहिचक जयंती के बनाए अभेद्य दुर्ग में सेंध लगा देतीं हैं । कभी किसी पत्रिका का आकर्षक मुखपृष्ठ, तो कभी पोको के साथ लुका -छिपाई का खेल, तो कभी डाइनिंग टेबल पर पड़ी, मुँह चिढ़ाती, चमचमाती कटलरी, तो कभी जयन्ती की मित्र- मंडली की लुभावनी साज-सज्जा माँ को इतना मुग्ध कर देती है कि जयन्ती के सारे बनाए नियम ढीले पड़ जाते हैं। माँ का ऐसा रूप विरला और क्षणिक होता है लेकिन जयन्ती क्या करे तब तक उसका तो बी. पी. बढ़ चुका होता है, वह तनाव में आ जाती है और तब पूरा घर पर उस तनाव की चपेट में आ जाता है। जयन्ती का दिमाग तेज़ी से घूमने लगा। प्रतीक को कुछ ऐसा याद दिलाया जाए कि वह भी शर्मसार हो उठे ।जयंती और प्रतीक दोनों की ही खेलने ,खाने ,मस्त रहने की उम्र है, लेकिन आज की सुबह तो बहुत बोझिल हो उठी है। जयन्ती को अधिक देर तक इस तरह के वातावरण में रहने की आदत नहीं है। वह चटपट निबटारा चाहती है। दूसरी ओर प्रतीक है कि मनहूसियत ओढ़ कर बैठा है। माँ का प्रसंग क्या उठा कि दोनों के बीच बातचीत का सिलसिला ही खत्म हो गया। वह कुछ देर इन्तज़ार करेगी कि प्रतीक उसकी परेशानी का खुद कोई हल ढूँढ कर दे नहीं तो उसकी जेब में पड़ा रेडीमेड समाधान बाहर आने को तैयार है। प्रतीक से तो उस पर सिर्फ ‘हाँ’ की मुहर लगवानी है।
प्रतीक ने चुप्पी को तोड़ा-’आखिर माँ से तुम्हें परेशानी क्या है ?ष्
ष्परेशानी ? परेशानी ही परेशानी है । याद है अपना जन्मदिन ? ’-- जयन्ती ने प्रतीक की दुखती रग पर हाथ रख दिया।
उस दिन ‘हैप्पी बर्थडे’ की आवाज़ लाख चाहने पर भी ड्रांइंगरूम से निकलकर, पर्दे और काँच को बेधकर बेघड़क माँ के कानों तक क्या पहुँची कि माँ ने तो जयन्ती की हिदायतों की धज्जियाँ ही उड़ा कर रख दीं। पहली बार प्रतीक को माँ की ज़िन्दगी से भी ज्यादा बदरंग उनकी साड़ी लगी, चेहरे की झुर्रियों से ज़्यादा सलवटें उनके कपड़ों पर दिखाई दीं । एक मैले रूमाल से कभी नाक, कभी आँख तो कभी मुँह की लार पोेंछती माँ भी सबके बीच में ही डटी रहीं । पहली बार प्रतीक को लगा कि उसके मित्र, उसके साथी माँ पर कम उस पर ज्यादा हसँ रहे हैं। बेचारी जयन्ती का तो उस दिन बुरा हाल हुआ। उसका गुस्सा, उसकी लताड़ ,अपमान और अवमानना - सब प्रतीक ने झेला। ‘अगर उस दिन की तनातनी में जयन्ती को कोई नुकसान पहुँच जाता तो !’ प्रतीक काँप गया। जयन्ती प्रतीक के मनोभावों को पढ़ने में माहिर हो चुकी है। वह उसे एहसास कराना चाहती है कि उम्र के जिस पड़ाव पर माँ खड़ी हैं, वहाँ से उन्हें अपने अनुकूल ढालना अब आसान नहीं है। और जो जयन्ती के हिसाब से ढल नहीं पाता, सीख नहीं पाता, उसे जयन्ती मान नहीं दे सकती। जयन्ती को अब कुछ सीखना नहीं है, उसे तो औरों को सिखाना है। प्रतीक जयन्ती को बहुत मानता है, इसलिए सीखता रहता है, पोको को तो इशारों केी भाषा भी समझ में आती है। लेकिन माँ ! उन्हें सिखाने, समझाने की तो नौबत ही नहीं आती, उससे पहले ही उनकी गन्धमात्र से जयन्ती का सिर चकराने लगता है। जयन्ती माँ को देखना नहीं चाहती, जब भी देखती है, उनकी झुर्रियों में उसका दिमाग उलझ जाता है। आखिर इतना बूढ़ा होकर जीने का लाभ ही क्या है। अचानक जयन्ती का ध्यान माँ की ओर चला गया। घर की कसी हुई बुनावट में वह एक थेगली की तरह लगती हैं। कितना दाबों-ढाँकों वह थेगली उजागर हो ही जाती है। मन हुआ कि प्रतीक का चेहरा घूमा कर पूछे-‘ क्या है तुम्हारी माँ में जो पसन्द किया जा सके ?ष्

जंयन्ती ने कनखियों से देखा। प्रतीक भी माँ को देखने में लगा था। घर में उठे तूफान से अनभिज्ञ माँ अपना बिस्तर सहेजती हुई कुछ गुनगुना रही थीं... कोई लोकगीत, कोई चैपाई ,कोई भूला-बिसरा फिल्मी गीत भी हो सकता है। इतनी दूर से भी माँ के अशक्त हाथों पर उभरती मोटी नसें, उनके सन जैसे सफेद बाल, उनका निस्तेज चेहरा दिखाई दे रहा था। माँ तो बहुत सुन्दर महिलाओं में गिनी जाती थीं, अचानक इतना बदल गईं? एक भव्यता आज भी उनके चेहरे पर है लेकिन जयन्ती के मायिक संसार में उस सबकी कोई कीमत नहीं है।

जयन्ती नहीं चाहती कि प्रतीक के दिल में माँ के लिए कोई ऐसी भावना जागे कि उसकी सोच जयन्ती की सोच से उलट दिशा पकड़ ले। उसने घ्यान बंटाया -’ मैं पोकोे का इन्तज़ाम करूँगी, तुम माँ के बारे में सोचो।ष् ‘प्रतीक क्या सोचे ? कभी माँ उसका आधार थीं, सम्बल थीं। वह माँ की आँखों से देखता, माँ की समझ से समझता । तब माँ का आँचल पकड़ते ही उसकी हर मुश्किल आसान हो जाती । आज तो माँ ही उसकी मुश्किल हंै, उन्हें देखकर कोई भी हल नहीं निकलने वाला।’ प्रतीक ने याद करने की कोशिश की कि आख़िरी बार कब उसने माँ के पास बैठकर उनसे बातचीत की थी, उनका हालचाल पूछा था। मकान से फ्लैट में आते हुए प्रतीक ने माँ को हाथ पकड़कर संँभाला था। उनसे इधर-उधर की कुछ गपशप भी की थी। तब से आज तक माँ के किसी दुख ,तकलीफ से उसका वास्ता नहीं रहा। जयन्ती ही देखभाल कर लेती है। प्रतीक ने अपनी सोच की दिशा बदली। माँ इस घर में सुखी हैं, संतुष्ट हैं, स्वस्थ भी हैं। अगर तकलीफ़ होती तो वह भी जयन्ती की तरह शिकायत तो जरूर करतीं।

प्रतीक की तंद्राा टूटी, पोको को चिपटाए हुए जयंती सामने खड़ी थी । वह प्रतीक को माँ के बारे में ज़्यादा नहीं सोचने देती। आज जयन्ती ही उसका संबल, उसकी आवश्यकता, उसके सामाजिक, आर्थिक स्टेटस का मज़बूत स्तम्भ है। वही उसका सर्वस्व है। पोको से प्रतीक को एलर्जी है लेकिन जयन्तीं का तो वह सर्वस्व है। पोको ने उन्हें नए मित्र दिलवाए हैं, एक वर्ग विशेष में उन्हें सम्मान और स्थान दिलवाया है। दोस्तों के बीच में भी जब भी बौद्धिक चर्चा का अकाल पड़ा है, पोको ने उनके महत्व को बना कर रखा है। पोको के खेल, पोको की समझदारी, सलीके और अनुशासन पर जयन्ती कितना भी बोल सकती है और दूसरे उसे सुन सकते हैं। आज उसी पोको को जयन्ती सिर्फ़ उसकी ज़रा सी एलर्जी की ख़ातिर छोड़ देने को तैयार हो गई है, कहती है¬-- ‘उसका प्रबन्ध कर दूँगी।ष् प्रतीक कृतज्ञ हो उठा।
प्रतीक और कितना सोचेगा ? जयन्ती के हिसाब से अब सोचने का नहीं, करने का समय आ गया है। शब्दों को मनुहार की चाशनी में लपेटकर जयन्ती ने कहा - ष्हम कौन सा माँ के दायित्व से पीछे हट रहे हैं, सिर्फ थोड़ा सा स्थान- परिवर्तन।’

एक अनाड़ी की तरह प्रतीक ने कहा- ‘माँ कहाँ जाएंँगी ? माँ का ठिकाना तो हमने छीन लिया।‘ जयंती ने ‘ठिकाना‘ शब्द को लपक लिया-‘माँ को ठिकाना मिलेगा और अपने जैसों के बीच में मिलेगा। देखा नहीं अकेली पड़ी कितनी बोर हो जाती हैं।’ जयन्ती ने कुछ कागज़ निकाले, उस पर पैन घुमाते हुए बड़े प्यार से बोली-ष्माँ बहुत अकेली पड़ गई हैं, उनको भी अब अपने जैसों का साथ चाहिए,. देखना, चुटकियों में उनका टाइम बीत जाया करेगा।’
घर के निर्णय जयन्ती लेती है। प्रतीक भरोसा करता है,उसका साथ देता है। आज वह डाँवाडोल है। वह अक्सर प्रश्न नहीं करता, जयन्ती के निर्णयों पर सहमति जताता है, आज तो उसके प्रश्नों से जयन्ती उकताने लगी है, फिर भी प्रतीक ने पूछ ही डाला- -’यही तुम्हारा अंतिम निर्णय है?’

‘इसमें गलत क्या है ? मैंने तो पहले ही माँ के लिए बैस्ट सोचा है। साफ-सुथरी जगह, अनुकुल खान-पान, मनोरंजन के लिए टी.वी. गपशप के लिए अपने जैसी साथिनें और देखभाल के लिए अटैन्डेन्ट । इतना तो तुम भी माँ के लिए कभी नहीं कर पाएे।’
सुबह से एक ही विषय पर घूम-फिर कर चर्चा चल रहा था। और कितना समय बरबाद किया जाता ? प्रतीक को अब समर्पण की स्थिति में पहुँचना चाहिए, उसने पूछा- ‘और पोको?’- ‘नुक्कड़वाली कोठी के गुप्ता जी कई बार कह चुके हैं । पोको उनके पास खुश रहेगा। -कहते हुए जयन्ती का गला रुँंधगया।

माँ का सामान सिमटने लगा। उनकी गृहस्थी थी ही कितनी । उनके कपड़े, कंघा, तेल, कुुछ दवाएं, कुछ फोटो, कुछ किताबें, धरोहर के रूप में बाबूजी के हाथ के लिखे पीले पडे़ मुड़े-तुडे़ कुछ कागज जिन्हें माँ जब मन करता खोलकर पढ़ लेंतंीं, उन पर हाथ फेर लिया करतीं । जयन्ती ने पोको की पैडिग्री के डिब्बे ,उसके कई तरह के ब्रश, साबुन, शैम्पू, उसकी सर्दी-गर्मीे की पोशाकें, उसके रंग-बिरंगे खिलौने-मार दुनिया का सामान भीगी आँखों से एक बैग में समेटा। जब तक माँ की आँखों में तैरते प्रश्न उनके होठों पर आते, उनकी गृहस्थी तो सिमट भी गई। ष्अकेले उनका ही नहीं, सामान तो पोको का भी बंध रहा है‘- सोचकर माँ किसी लम्बी यात्रा की खुशी में चुप लगा गईं।

घर में उत्सव का का सा माहौल बन गया था। प्रतीक और जयन्ती यहाँ-वहाँ दौड़ रहे थे । पोको उछलकूद मचा रहा था। आज माँ नई साड़ी पहने थीं। अपने बच्चों के साथ जाने के उछाह में माँ ने किसी से भी कुछ नहीं पूछा। प्रतीक ने उनका हाथ पकड़ा और वह किसी मासूम बच्चे की तरह चहक उठीं। बाबूजी के मकान से फ्लैट में शिफ़्ट करते वक्त भी प्रतीक ने माँ का हाथ इस तरह ही थामा था। आज फिर प्रतीक ने माँ को सम्भाल कर घर की सीढ़ियों से नीचे उतारा। बेटे का स्पर्श पाकर माँ को कुछ पूछने की जरूरत नहीं रहीं, बस, आशीर्वादों की झड़ी लगा दीं। कार में आगे की सीट पर बैठने के साथ ही माँ काँप गईं। अपने बेटे के साथ आगे बैठने का अधिकार तो उन्हें कभी मिला ही नहीं। यह जगह तो जयन्ती या पोको की ही रही है। माँ ने पीछे मुड़कर देखा। जयन्ती ने उनकी पीठ थपथपा दी । माँ की सारी पीठ से अनबोले आर्शीवचनों के फूल उग आए। अपने क्षीण हाथों से प्रतीक की पीठ सहलाते हुए माँ ने कहा- ‘तेरे बाबूजी भी साथ में होते!’
माँ कुछ देर खिड़की से बाहर देखती रहीं। एक- दो बार पूछा भी कि कहाँ जाना है, कब तक लौटना है। प्रतीक कुछ नहीं बोला। थोड़ी देर में अपना विश्वास, अपना भरोसा, अपने बेटे को सौंपकर वह सीट पर बैठे हुए ही सो गयीं।

गाड़ी की रफ़्तार के साथ ही प्रतीक का मन भी रफ़्तार पकड़ रहा था। ष्माँ को छोड़ने पर उनकी क्या प्रतिक्रिया होगी। वह गुस्सा करेंगी? सबके सामने जयन्ती को और उसे खूब बुरा-भला कहेंगीं।’ माँ को गुस्सा करते तो प्रतीक ने कभी नहीं देखा। गुस्सा तो बाबूजी करते थे, अब जयन्ती करती है। माँ ने तो हमेशा गुस्सा झेला है। ष्हो सकता है कि माँ ज़िद्द करके बैठ जाएँ, कार से ही न उतरंीं तो !’ हल्की सी खुशी प्रतीक के चेहरे पर झलकी और विलुप्त हो गईण् उसने रियर मिरर में से पीछे बैठी जयन्ती को देखा। पोको को चिपटाए हुए वह किसी मंत्र का जाप करने में व्यस्त थी। वह मंत्र पोको की सलामती के लिए होगा या फिर माँ को फिर से एक नए ठिकाने पर निर्विघ्न पहुँचा देने के लिए किया जा रहा होगा। ‘अगर माँ को लौटाकर लाना पड़ा तो ?’ प्रतीक काँप गया।

प्रतीक ने अपने मन को समझाया- ‘माँ तो ज़िद्द करती ही नहीं । अड़ियलपन उनके स्वभाव में है ही नहीं। जब जिद्द की तो उसने की। अब उससे भी कहीं ज्यादा हठी तो जयन्ती है। वह तो जो कुछ भी करने का ठान लेती है, उसे पूरा कर के ही साँस लेती है। आज जयन्ती ऐसी स्थिति का मुकाबला भी बहादुरी से कर ही लेगी।’ प्रतीक को जयंती की चिन्ता सताने लगी- ‘पोको को छोड़कर जयंती कहीं नर्वस ब्रेकडाउन का शिकार हो गई तो!’प्रतीक जयंती को तकलीफ़ में नहीं देख सकता,वह सिहर उठा।

प्रतीक के विचारांे का आज अन्त नहीं है। माँ की प्रतिक्रियाओं के साथ-साथ उसे जयन्ती की बिगड़ती मनःस्थिति की भी भारी चिंता है। माना कि माँ ज़िद्द नहीं करतंीं, गुस्सा नहीं करतीं लेकिन आज जैसी परिस्थिति का सामना बहुत आसानी से तो नहीं कर पाएंगी। बाबूजी थे तो माँ का अवलंब वही थे। माँ का जीवन उनके इर्द-गिर्द घूमा करता । उनके गुज़र जाने के बाद भी उनकी उपस्थिति को उनके बनाए घर में किसी न किसी रूप में वह जीती रहीं. वह घर माँ का आसरा बना रहा। हौले-हौले बाबूजी की जगह लेकर ,वह वहाँ वर्चस्व जीने लगीं । वह घर छूटा तो माँ टूट गईं, फिर भी अपनी टूटन और बिखराव को समेट कर जयन्ती के फ्लैट के एक छोटे से कोने को ही अपना घर, अपना ठिकाना मानकर चुपचाप जीने लगीं। आज माँ के लिए घर का छोटा सा टुकड़ा भी जयन्ती देने केा तैयार नहीं है। छोटे पौधे को तो उखाड़कर कहीं रोपा भी जा सकता है, लेकिन माँ तो बरगद हंै। अब जड़ से उखड़ी तो कहाँ जम पाएँगी?
प्रतीक में जयन्ती में उनके लिए भावनाएँ चुक गई हों लेकिन माँ तो आज भी मोहमाया से बँंधी हंै। एक झटके में उस,बन्धन और अपनी मोहमाया को कैसे खत्म कर पाएंगी ? निश्चित ही आज उन्हें सम्भालना मुश्किल होगा। वह गुस्सा करेंगी, रोएंगी, अपशब्द कहेंगी, बाबूजी को याद करके विलाप करेंगी, बाँह पकड़कर छोड़ने का नाम नही लेंगी--- । प्रतीक ने ऐसी कठिन परीक्षा तो आज तक नहीं दी।माँ ने उसे कभी दुविधा या तनाव जीने ही नहीं दिया।
स्टियरिंग पर सधे प्रतीक के हाथ गाड़ी को आगे बढ़ा रहे थे। मन था कि पीछे की ओर दौड़ रहा था। अब कोई उपाय नहीं है। जयन्ती लौटा लेने के लिए निर्णय नहीं लेती। वह जो कहती है, वही करती है। अब तो माँ को कैसे स्थापित करना हैै- यह मूल मुद्दा है। प्रतीक ने कई जुमले सोच डाले। माँ की किस प्रतिक्रिया के बदले में उसे क्या कहना,क्या करना होगा।
माँ का ठिकाना आ गया था। प्रतीक ने कार को बे्रक दिया, साथ ही उसका दिमाग भी एकदम कुंद हो गया। कार के झटके से माँ की नींद भी खुल गई। उतरने के लिए उन्होंने प्रतीक का सहारा लेना चाहा। जयन्ती ने पीछे से उतर कर माँ को पकड़कऱ प्रतीक को किनारे कर दिया। आगे की परिस्थिति से लड़ने के लिए जयन्ती का ही मोर्चाबन्दी करना ज़रूरी था । माँ उतरीं । सामने लगा ‘वृद्धाश्रम’ की बोर्ड पढ़ा। बहुत धीमी आवाज़ में ‘बेटा यह क्या किया?’ कह कर चुप रह गईं। माँ सब देखकर स्तब्ध थंी, प्रतीक माँ की प्रतिक्रिया से स्तब्ध था. जयन्ती वöाश्रम के आॅफिस की ओर चली, माँ से नज़रें बचाकर प्रतीक भी उसके पीछे भागा। माँ कुछ देर अवाक खड़ी रहीं फिर गेट के अन्दर जाकर लाॅन में बनी एक पटिया पर बैठ गईं। पोको ने माँ के चरणों पर अपना सिर जमा लिया। पीली पड़ी माँ पत्ते सी काँप रही थीं। जयन्ती ऐसे वक्त में बहुत व्यवहारिक हो जाती है, वह भावनाओं में नहीं बहना चाहती। माँ को छूने भर से कुछ विस्फोटक हो सकता है, उसे प्रतीक की ओर से भी खटका है कि माँ की ऐसी सूरत उसे कमज़ोर न कर दें।उसने पास खड़ी सहायिका को इशारा किया। सहायिका ने बड़े प्यार से माँ को खड़ा किया और आश्रम की ओर अन्दर को ले चली। प्रतीक पैर छूने को बढ़ा माँ ठिठकीं, उनका हाथ यत्रंवत् प्रतीक के सिर पर फिरा, लेकिन मुंह से एक भी शब्द नहीं निकला। प्रतीक और जयन्ती चकित थे, निशब्द थे। एक अकेला पोको माँ के पीछे भागा। आवाज़ निकाल कर वह रोने लगा। माँ ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। बिना देखे, बिना मिले वह आगे बढ़ गईं। जिस कटु और असहय परिस्थिति का सामना करने से प्रतीक बच रहा था, माँ ने उसे उस सबसे मुक्ति दे दी। पोको बहुत बेचैन रहा। रोता ही रहा और बार-बार छूटकर माँ के पीछे भागने की कोशिश करता रहा।

वापिस लौटते हुए जब जयन्ती पोको को गुप्ता जी को सौंपने लगी तो प्रतीक सिर्फ उसकी ज़रा सी एलर्जी की खातिर किए गए जयन्ती के इतने बड़े त्याग से अभिभूत हो गया। पोको ने बहुत बवाल मचाया। वह वृद्धाश्रम से लौटने के बाद से ही बेचैन था, और भी बेचैन हो गया। उसने इतना शोर मचाया कि जयन्ती रो पड़ी और निढाल होकर कार की सीट पर पड़ गई। जयन्ती का रोना रुक नहीं रहा था। कहने को यह वक्त जयन्ती के रोने का तो था नहीं, गर्व करने का था। आज उसने जीवन का सबसे बड़ा सौदा कर लिया था।

पोको को छोड़ने के बाद से ही जयन्ती सुबकती जा रही थी। सुबकते हुए ही बोली- ‘प्रतीक माँ से ज़्यादा तो पोको ने हमारी भावनाओं का मान रखा। देखा, हमारे लिए कितना बेचैन था, और तुम्हारी माँ ! अपनों को मुड़कर एक बार देखने का मन भी उनका नहीं हुआ ? ’प्रतीक भी इस सत्य को नकार नहीं सका।

घर का ताला खोलते हुए जयन्ती का ध्यान बाहर लगी नेम प्लेट पर चला गया। थोड़ी धूल जमा थी। उसे पोंछा, लिखा था -‘जयन्ती. प्रतीक मेड फाॅर ईच अदर’। धूल हटा कर जयन्ती प्रतीक से लिपट गई और फिर अपनी सामान्य दिनचर्या में जुट गई। प्रतीक पहले ही लेट हो चुका था, सीधे अपने आॅफिस की ओर भागा।

 

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