बचपन में एक समय ऐसा भी था जब मैं फंतासी चरित्रों एवं राजा महाराजाओं की काल्पनिक कहानियों से लैस बॉलीवुडीय फिल्मों का दीवाना हुआ करता था। कुछ बड़ा हुआ तो दिमाग़ ने तार्किक ढंग से सोचना प्रारम्भ किया और मुझे
तथ्यों पर आधारित ऐतिहासिक चरित्रों एवं पौराणिक घटनाओं से प्रेरित फिल्में.. किताबें और कहानियाँ रुचिकर लगने लगी। उसके बाद तो इस तरह की जितनी भी सामग्री जहाँ कहीं से भी..जिस किसी भी रूप में उपलब्ध हुई..अपनी तरफ़ से मैंने उसे पढ़ने का पूरा पूरा प्रयास किया।
समय के साथ साथ एक ही विषय पर अलग अलग लेखकों के लेखकीय नज़रिए से लिखी गयी सामग्री, जिसमें किसी से भावों..मनोभावों पर ज़ोर दिया तो किसी ने भावनाओं की अपेक्षा तथ्यों को ज़्यादा महत्त्वपूर्ण करार दिया, को भी पढ़ने का मौका मिला। दोस्तों.. आज मैं कल्पना और तथ्यों के मेल से जन्मे एक ऐसे उपन्यास की बात करने वाला हूँ जिसे 'अम्बपाली-एक उत्तरगाथा' के नाम से लिखा है हमारे समय की प्रसिद्ध कथाकार गीताश्री ने।
मूल रूप से इस उपन्यास में 600-500 ई.पू. के बौद्धकाल में जन्मी वैशाली राज्य की प्रसिद्ध नृत्यांगना, आम्रपाली उर्फ़ 'अम्बपाली' के अपने ऐश्वर्ययुक्त विलासी जीवन से हुए मोहभंग के बाद, सब कुछ त्याग, बुद्ध की शरण में जाने की कहानी है। इस उपन्यास में बातें हैं उस अम्बपाली की, जिसके बारे में कहा जाता है कि वह इतनी ज़्यादा सुंदर थी कि लिच्छवि कुल की परंपरा एवं नियमों में बँधे होने के कारण उसके पिता को उसे, अपनी सहमति से सर्वभोग्या बनाना पड़ा अर्थात वह किसी एक की अमानत ना हो कर पूरे राज्य..पूरे समाज के मनोरंजन के लिए निमित मात्र हो गयी। स्वयं की इच्छा ना होते हुए भी अम्बपाली ने राजनर्तकी का पद तो स्वीकार किया मगर अथाह धन दौलत और ताकत पाने की अपनी मनचाही शर्तों के पूरा हो जाने के बाद।
इस उपन्यास में कहानी है उस अम्बपाली की, जिसे समय के साथ किसी ना किसी से प्रेम तो अवश्य हुआ मगर विडंबना यह कि नियमों में बँधी होने के कारण वह उनमें से किसी भी एक की ना हो सकी। साथ ही इस उपन्यास में कहानी है वैशाली के दुश्मन राज्य, मगध के राजा बिंबिसार से ले कर उसके बेटे अजातशत्रु तक के अम्बपाली पर मोहित हो.. उसे अपनी पटरानी बनाने की इच्छाओं.. इरादों और मंसूबों की, जिन्हें नियमों से बँधी होने के कारण उसने कभी भावनात्मक तरीके से तो कभी दृढ़ता से नकार दिया।
इस उपन्यास में कहानी है वैशाली की राजकुमारी, उस चेलना की जिससे बिंबिसार ने, अम्बपाली के उससे गर्भवती होने के बावजूद भी, विवाह किया। हालांकि इस विवाह में उसकी अपनी खुद की इच्छा या सहमति नहीं बल्कि अम्बपाली की ही मर्ज़ी थी कि इससे दोनों शत्रु राज्य आपस में एक दूसरे के शत्रु ना रह कर मित्र बन जाएँगे। साथ ही उपन्यास की गति में रवानगी एवं रोचकता बढ़ाने के लिए तथा उस समय के माहौल एवं परिस्थितियों से पाठकों को परिचित कराने के लिए लेखिका ने अम्बपाली की दासियों..सखियों एवं अन्य साध्वियों के माध्यम से कुछ काल्पनिक कहानियों को भी गढ़ा है। जो उपन्यास में मुख्य कहानी के साथ समांतर रूप से चलती हैं। इन कहानियों के माध्यम से लेखिका ने उनकी दशा..मनोदशा का ख़ाका खींचने का प्रयास किया है कि किस तरह अपनी अपनी परेशानियों से आज़िज़ आ..उन्होंने बौद्ध धर्म को अपना लिया।
इसी उपन्यास में बौद्ध धर्म के प्रचार.. प्रसार एवं मठ स्थापना के लिए अम्बपाली कभी धन धान्य से तो कभी अपने आम्रवन इत्यादि को दान दे कर महात्मा बुद्ध की मदद करती नज़र आती है। तो कहीं वह उनकी अनुयायी बन..नयी साध्वियों को बौद्ध धर्म की शिक्षा एवं उपदेश देती तथा उन्हें अपनी कहानी को कहने एवं लिपिबद्ध करने के लिए प्रेरित करती नज़र आती है।
इस उपन्यास में कहीं तथागत के महानिर्वाण से जुड़ी बातें हैं तो कहीं उसके बाद उसकी अस्थियों के ले अपनी अपनी दावेदारी ठोंकते मगध एवं वैशाली के लोग नज़र आते हैं।
इस बात के लिए लेखिका की तारीफ़ करनी होगी कि उन्होंने कहानी के समयकाल के हिसाब से उपन्यास की भाषा को यथासंभव शुद्ध हिंदी रखने का प्रयास किया जो कि बेहद ज़रूरी भी था लेकिन इससे मुझ जैसे गंगा जमुनी भाषा के आदि पाठक को इसे पढ़ने में कहीं कहीं थोड़ी असहजता भी हुई। साथ ही उपन्यास में दो एक जगह लेखिका ने ग़लती से अँग्रेज़ी शब्दों का इस्तेमाल भी कर दिया जैसे कि..
पेज नंबर 25 पर लिखा दिखाई दिया कि...
'सोने की पिन से सजे और अलंकृत'
'पिन' हिंदी का नहीं बल्कि अँग्रेज़ी भाषा का शब्द है।
इसी तरह पेज नंबर 268 पर लिखा दिखाई दिया कि..
'एक इंच भी भूमि ना देने के हठ पर वह तन गया।'
यहाँ 'इंच' एक अँग्रेज़ी शब्द है और ये घटना/कहानी लगभग 483 ई.पू. वर्ष की है जब भारत में अँग्रेज़ी का कहीं नामोनिशान तक नहीं था।
उपन्यास के शुरू में बताया गया कि मगध के सम्राट बिम्बिसार को अम्बपाली से प्रेम हुआ मगर उसके इनकार करने पर उन्होंने अम्बपाली के ही कहने पर ही वैशाली की राजकुमारी चेलना से विवाह किया। मगर बाद में पेज नंबर 241 पर लिखा दिखाई दिया कि बिंबिसार की महारानी चेलना तड़प तड़प कर मरी। उपन्यास के शुरू में चेलना से बिम्बिसार के विवाह की बात के बाद सीधा इस पेज पर दिखाई दे लिखा दिखाई दिया कि चेलना तड़प तड़प कर मरी। इस बीच की सारी कहानी उपन्यास से गायब दिखी।
पेज नंबर 172 पर बताया गया कि सिंहा जब आम्रवन में स्थानीय स्त्रियों को देखकर चौक जाती है कि उनमें नगरसेठ की वधु के साथ साथ कुछ जानी मानी गणिकाएँ और एक राजकुमारी भी थी। इससे अगले पेज पर वह खुद ही अंदाज़ा लगा रही है कि देवी अंबा को किसी की अंकशायिनी नहीं बनना था इसलिए वह साध्वी बन गयी। नगरसेठ की भार्या अपने स्वर्ण आभूषणों का भार नहीं उठा पायी होगी, इसलिए वह भी साध्वी बन गयी। राजकुल की राजकुमारी जयंता को अवश्य ही राजप्रासादों में श्वास की घुटन होती होगी, इसलिए सब छोड़-छाड़ कर वह साध्वी बन गयी एवं सामन्त की भार्या अपने स्वामी के आचरण से आहत होगी इसलिए वह भी यहाँ आ गयी।
इन सभी बातों का सिंहा बिना किसी से पूछे स्वयं ही अंदाज़ा लगा रही है जबकि उसे इन सब कारणों के बारे में स्वयं उन स्त्रियों द्वारा अगर बताया जाता तो यह दृश्य ज्यादा स्वाभाविक एवं विश्वसनीय बनता।
अब इसे संयोग कहें या फिर प्रकाशक की ग़लती कि मेरे पास आए उपन्यास की प्रति में जगह जगह छपाई के रंग उड़े हुए दिखाई दिए जिसकी वजह से पढ़ने में कुछ जगहों पर ख़ासी मशक्कत करनी पड़ी। कुछ जगहों पर वर्तनी की चंद त्रुटियों के अतिरिक्त प्रूफरीडिंग के स्तर पर भी कुछ जगहों पर छोटी छोटी कमियाँ दिखाई दीं जिन्हें दूर किया जाना चाहिए।
अगर आप ऐतिहासिक विषयों लिखी गयी सामग्री पढ़ने के शौकीन हैं तो यकीनन यह उपन्यास आपके मतलब का है। आकर्षक कवर डिज़ायन वाले इस 290 पृष्ठीय उपन्यास के पेपरबैक संस्करण को छापा है वाणी प्रकाशन ने और इसका मूल्य रखा गया है 250/- रुपए। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखिका एवं प्रकाशक को बहुत बहुत शुभकामनाएं।