साहेब सायराना - 24 Prabodh Kumar Govil द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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साहेब सायराना - 24

दिलीप कुमार का अफ़साना हो या सायरा बानो की कहानी...या फ़िर दोनों का एक साथ सुहाना सफर, कम से कम देखने वालों के लिए तो मौसम हमेशा ही हसीं रहा।
यहां एक बात जानना बहुत ज़रूरी है। चाहे ये दोनों ही हिंदी फ़िल्मों के कोहिनूर रहे हों, मगर हिंदी दोनों की ही मातृभाषा नहीं थी।
दिलीप कुमार पाकिस्तान के पेशावर में पैदा हुए और वहीं उनका बचपन गुज़रा। संपन्न जमींदार परिवार से ताल्लुक रखने के कारण लिखाई- पढ़ाई में भी उर्दू के साथ- साथ अंग्रेज़ी का बोलबाला रहा। जैसा कि हिंदी फिल्मजगत का प्रचलन रहा, यहां अधिकांश पेपरवर्क अंग्रेज़ी में ही होता था। कई कलाकार इंगलिश अथवा उर्दू में लिखी स्क्रिप्ट्स व डायलॉग्स के साथ ही सुगमता अनुभव करते थे। वैसे भी यहां लेखकों की जमात में उर्दू,अरबी, फ़ारसी का प्रयोग करने वालों की भरमार थी। कई संपन्न घरों के बच्चे अंग्रेज़ी माध्यम से ही पढ़ लिख कर आते थे। इस बात का असर फिल्मी कथानकों, संवादों और गीतों में ही नहीं बल्कि फ़िल्मों के नामों तक मैं नज़र आता था। फ़िल्म के पर्दे पर कलाकारों के क्रेडिट्स अर्थात नामावली तो लगभग शत - प्रतिशत अंग्रेज़ी में ही होती थी। स्वाभाविक था कि दिलीप कुमार की उर्दू और अंग्रेजी भी बेहतरीन थी।
लेकिन एक दिन लता मंगेशकर के किसी गीत के किसी शब्द के उच्चारण पर सहज ही दिलीप साहब ने कटाक्ष कर दिया जिससे दीदी नाराज़ हो गईं। कई दिनों तक दोनों के बीच अबोला रहा।
इस बात ने दिलीप कुमार को भीतर से व्यथित कर दिया। वे शायद मन ही मन भाषा पर की गई अपनी टिप्पणी पर पछताए। लेकिन इसके बाद वो भाषाओं के ज्ञान और सम्मान को लेकर इतने सतर्क हो गए कि उन्होंने कई भाषाएं सीखीं। वो पढ़ते भी बहुत थे। हर क्षेत्र की बेहतरीन चीज़ें और बातें उनका ध्यान आकर्षित करती थीं।
उन्हें गंगा जमना फ़िल्म में ठेठ गंवई भाषा बोलते देख लोग दंग रह गए। उन्होंने कई फ़िल्मों में उन लोगों को भी आड़े हाथों लिया जो अधकचरी अंग्रेज़ी जानते हुए भी उसका रौब जमाते हैं। यूं तो फ़िल्मों में संवाद कोई लेखक ही लिख कर देता है पर सब जानते हैं कि दिलीप साहब न केवल अपने संवादों में ख़ूब दख़ल देते थे बल्कि कई बार तो उन्हें अपने मनमाफिक बदलवा भी डालते थे। केवल शब्दों में ही नहीं, बल्कि संवादों की अदायगी तक में उनकी बात सर्वोपरि रखी जाती थी। इस तरह उन्होंने कुछ निर्देशकों को भी निर्देशन की तालीम दी।
फ़िल्म के पर्दे पर चाहे नाम बदल कर यूसुफ खान दिलीप कुमार हो गए पर उनकी फिल्मों के नाम- दीदार, मुसाफ़िर, मुगले आज़म,दिल दिया दर्द लिया, कोहिनूर, अंज़ाम, पैग़ाम, इज्ज़तदार भी रहे तो संघर्ष,मधुमति,देवदास, राम और श्याम,मशाल,गोपी, कर्मा और बैराग भी। वो धार्मिक उन्माद के परे सर्वधर्म समभाव का प्रतीक रहे।
सायरा बानो की आरंभिक शिक्षा विदेश में अंग्रेज़ी माध्यम में होने पर भी उनके हिंदी उच्चारण तथा देशी संस्कृति पर उनकी पकड़ बेमिसाल रही। उनके शोख भोलेपन को फ़िल्मों में खूब भुनाया गया। वो उन गिनी चुनी अभिनेत्रियों में शामिल हैं जिन्होंने फ़िल्म समीक्षकों की नहीं बल्कि फ़िल्म दर्शकों की सुनी। पड़ोसन, शागिर्द, गोपी, बैराग जैसी फ़िल्मों में साधारण निचले तबके की ज़िन्दगी का उन्होंने जैसा प्रदर्शन किया उससे लोग उनके मुरीद हो गए।
बहुत कम लोगों ने इस बात पर ध्यान दिया होगा कि सायरा बानो ने मल्टीस्टारर फिल्मों में काम नहीं किया। उनके साथ किसी अन्य मुख्य अभिनेत्री को कास्ट नहीं किया गया। इसका कारण शायद उनका वही "परी चेहरा" रहा जिसके साथ स्क्रीन शेयर करने में दिलचस्पी किसी अन्य नायिका ने नहीं दिखाई। जबकि उन्होंने दो नायकों वाली फ़िल्में कीं, जैसे - आई मिलन की बेला, हेराफेरी, नहले पे दहला आदि।
कुछ लोग कह सकते हैं कि सायरा बानो की फ़िल्मों का दौर ही कुछ ऐसा था कि उस समय मल्टीस्टारर या दो नायिकाओं वाली फ़िल्में बनती ही नहीं थीं किंतु उसी दौर में मीना कुमारी- वहीदा रहमान, वहीदा रहमान- माला सिन्हा, साधना- शर्मिला टैगोर, आशा पारेख- रीना रॉय, हेमा मालिनी- ज़ीनत अमान, नूतन- आशा पारेख, साधना - नंदा, रेखा- राखी को लोगों ने ख़ूब देखा है।