साहेब सायराना - 22 Prabodh Kumar Govil द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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साहेब सायराना - 22

दिलीप कुमार का बाद का जीवन भी बेहद अनुशासित और व्यवस्थित रहा। सायरा बानो उनकी दिनचर्या में समयपालन का पूरा ध्यान रखतीं। उनका कामकाज देखने वाले अन्य सहायक भी इस बात का ध्यान रखते कि साहब या मेम साहब को शिकायत का कोई मौका न मिले।
एक दिन दिलीप कुमार अपने बंगले के बैठक कक्ष में बैठे थे। उनसे कुछ लोग मिलने के लिए आए हुए थे। लोग कहीं बाहर से आए थे और वार्ता भी कुछ औपचारिक थी अतः उनकी सहायिका नर्स को थोड़ा संकोच हुआ कि मीटिंग में बैठे साहब को दवा की गोली कैसे खिलाई जाए। कहीं बीच में डिस्टर्ब किए जाने पर साहब डांट न दें। पर दवा का समय हो चुका था अतः गोली खिलाना भी ज़रूरी था। मैडम सायरा बानो की सख़्त ताकीद थी कि साहब को दवा खिलाने में डॉक्टर की दी हुई हिदायतों का पूरा ध्यान रखा जाए। इसमें कहीं कोई कोताही न बरती जाए।
हिम्मत करके नर्स ने पानी के गिलास की ट्रे उठाई और एक छोटी प्लेट में पेपर नेपकिन पर गोली रख कर ड्राइंग रूम में प्रवेश किया। मेहमानों को पानी पिलाया ही जा चुका था और उनके लिए चाय - नाश्ते की तैयारी हो रही थी। पर ये गोली साहब को नाश्ते से पहले दी जानी ज़रूरी थी।
नर्स धीरे- धीरे साहब की ओर बढ़ी। नर्स दिलीप कुमार के कुछ नज़दीक पहुंची ही थी कि दिलीप साहब ने हाथ के इशारे से उसे वापस लौट जाने को कहा। धीरे से बुदबुदाए- वापस जाओ, डिस्टर्ब मत करो...और ज़ोर - शोर से बातचीत में मशगूल हो गए। मेहमान भी कुछ संकोच में पड़े कि साहब हमारी वजह से दवा तक नहीं खा रहे हैं। पर उन्हें कुछ भी कहे कौन? सब सहमे से बैठे रहे।
उधर नर्स ने भीतर जाकर सकुचाते हुए मैडम को बताया कि साहब गोली नहीं खा रहे हैं।
सायरा जी ने आव देखा न ताव, साड़ी के पल्ले को कमर में खोंसा, नर्स के हाथ से झपट कर ट्रे पकड़ी और दनदनाती हुई ड्राइंग रूम में चली आईं। उन्होंने सीधे दिलीप साहब के नज़दीक पहुंच कर तिपाई पर ट्रे रखी, फ़िर अपने हाथों से पकड़ कर साहब का मुंह खोला और उठा कर गोली उसमें ठूंस दी। फिर पानी का गिलास उनके मुंह से लगाया और नेपकिन से साहब का मुंह पौंछते हुए गिलास को ट्रे में रखते हुए वापस चली आईं। वो जैसे तमतमाते हुए आईं वैसे ही लौट भी गईं।
साहब हड़बड़ा कर रह गए। निरीह से भोलेपन से जाती हुई मेमसाब को देखते रहे। उधर मेहमानों की भी जैसे सांस रुक गई, सन्नाटा छा गया।
क्षणभर बाद जब ट्रे उठाने के लिए सहमी हुई नर्स भीतर आई तो साहब उसे घूरते हुए बोले- कह देना अपनी मैडम को, ये गुंडागर्दी यहां नहीं चलेगी, हां!
मेहमानों ने भी बड़ी मुश्किल से अपनी मुस्कान दबाई। शायद उन्हें अतीत की कई फ़िल्मों के दृश्य अचानक याद आ गए हों। लेकिन यहां न कोई डायरेक्टर था और न कोई संवाद लेखक।
ये साहेब और मेमसाब की ओरिजिनल परफॉर्मेंस थी। कोई कुछ न बोला।
दिलीप कुमार की व्यवस्थित ज़िन्दगी के पीछे सायरा बानो की मेहनत की ये छिपी हुई भूमिका बहुत कम लोग जानते होंगे क्योंकि ये बातें किसी स्टूडियो के सेट पर तमाम यूनिट के सामने कैमरे और फ्लैश लाइट के सामने मीडिया की उपस्थिति में नहीं घटती थीं। ये साहेब की उस सदी भर की लंबी ज़िन्दगी का हिस्सा थीं जिसमें साहेब की फ्रेंड, फिलॉसफर और गाइड सायरा बानो बनी रहीं।
भारतीय फिल्म जगत की ये एक अनूठी मिसाल है जहां नित नई प्रेम कहानियां पल- पल बनती बिगड़ती रहती हैं।