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नातेदार



आफिस का कार्य खत्म हो गया था दिव्यांश वापसी के लिए मुम्बई से दिल्ली आने की तैयारी करने लगा। प्रातः 5.45 पर मुम्बई वी.टी. से ट्रेन पकड़नी थी। होटल मैनेजर से ज्ञात हुआ कि सुबह 6 बजे के बाद ही आटो या टैक्सी रेलवे स्टेशन तक जाने के लिए मिलेगी। काफी सोच-विचार करने के बाद दिव्यांश ने निर्णय लिया कि अगर वह रात में ही रेलवे स्टेशन चला जाए तो बेहतर रहेगा।
सारा सामान लेकर वह स्टेशन पर आ गया। वेटिंग रूम में पहुँचने पर वेंटिग रूम के इंचार्ज ने उसे बताया कि रात में यहाँ सामान-चोर आते हैं। अतः अपने सामान के प्रति सावधानी रखें। दिव्यांश अपने बैगों में चेन लगा कर आराम से लेट गया। थोड़ी देर में उसे नींद आने लगी, सारे प्रयासों के बाद भी जब वह नींद नहीं रोक पाया तो वह वहीं अपने सामान के साथ लेट गया।
रात तीन बजे अचानक दिव्यांश की नीद टूट गई, वह उठकर देखता है तो उसका सामान तो सुरक्षित था परन्तु जेब में हाथ डालते ही उसके होश उड़ गए जेब में से उसके पर्स का अता-पता नहीं था। शर्ट की जेब से भी रूपए गायब थे। रेलवे टिकट शर्ट की अन्दर वाली जेब में था इसलिए वह बचा रह गया। जेब में कुल मिलाकर 16 रूपए सिक्कों के रूप में थे।
दो घण्टे के बाद ट्रेन आने वाली थी। हैरान परेशान दिव्यांश ने बैंच के नीचे देखा तो उसके जूते भी गायब थे। अब वह और भी परेशान हो गया।
उसे परेशान देखकर रूम इंचार्च ने दिव्यांश से कहा'-
क्या हुआ साहब ?
“मैंने ते पहले ही कहा था कि यहाँ रात में चोर घूमते हैं?”
नंगे पैर कैसे वह ट्रेन में बैठेगा? उसे कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था। चप्पल पड़ी हैं। उन्हें पहन कर अपनी यात्रा कर ली। सूट के साथ पुरानी चप्पल का संयोग बड़ा अजीब लग रहा था। पर क्या करे मजबूरी थी। वह बुर्जुग के साथ चप्पल लेने चला गया। एक बार उसके मन में विचार आया कि कहीं चोरों के साथ यह बुर्जुग भी तो नहीं मिला है। फिर सोचा कि ऐसा होता तो वह उसकी मदद ही क्यों करता। बुजुर्ग ने साथ में चाय पीने को भी कहा पर दिव्यांश ने मना कर दिया ।








बुझे-बुझे मन से दिव्यांश ट्रेन में जा बैठा। ट्रेन में बैठते ही चाय की तलब लगी। मन को सम्हालने की कोशिश की परन्तु सुबह उठते ही चाय पीने वाला व्यक्ति कब तक अपने को रोकता? 16 रूपये में 26 घण्टे का सफर तय करना था अतः पैसे खर्च करने का भी मन नहीं कर रहा था ।
सामने वाले बर्थ पर मारवाड़ी परिवार बैठा था। कुछ ही देर में उस परिवार ने अपने खाने का सामान निकाल लिया। पूरा परिवार एक साथ बैठकर खाना खाने लगा। यह सब देख कर दिव्यांश खीझ उठा। दिव्यांश से जब नहीं रहा गया तो उसने बड़ी हिम्मत करके 5 रूपये के बिस्कुट तथा एक कप चाय ले ली 10 रूपय खत्म हो गए अब सिर्फ 6 रूपय बचे थे।
(1) पैसों की कमी तभी समझ में आती है जब हमारी जरूरतें पहाड़ सरीखी हो तथा पैसों का अस्तित्व तिनके के समान हो। जरूरतों के सामने भले ही इन तिनकों की कोई औकात न हो परन्तु डूबते को तो तिनके का ही सहारा होता है। कारण कुछ भी हो, चोर, लुटेरे, पाकेटमार ये कहीं से भी प्रकट होकर हमें बेबस व दीन बना देते हैं। हम असहाय होकर खून का घूट पीने को मजबूर हो जाते हैं।
कहा गया है कि गरीबी में आटा गीला। जब हमारे पास पैसों की कमी हो तो हर काम में हमारा संकोच आड़े आने लगता है। वह संकोच धन, मान, प्रतिष्ठा सभी को लेकर होता है। दिव्यांश के सामने आज परिस्थितियाँ नयी-नयी प्रश्नावलियाँ लेकर खड़ी थीं जो उसकी सोच की नयी-नयी दिशाएँ दे रही थी।
प्रातः के दस बज रहे थे। भूख से दिव्यांश का बुरा हाल था। क्या करे समझ में नहीं आ रहा था? मारवाड़ी परिवार खा-पीकर अपनी-अपनी बर्थ पर फैला पड़ा। था। पेट भरा हो तो छोटे-बड़े लोग सभी चैन से सो जाते है। दिव्यांश की स्थिति ऐसी थी कि वह किससे क्या कहे ? दिव्यांश की जेब में सिर्फ 6 रूपये थे। अचानक दिव्यांश ने सोचना शुरू कर दिया कि जब वह 20-20 लोगों की टीम को सेल्स में ट्रेनिंग देता है, उन्हें उनके प्रत्येक प्रश्न का उत्तर देता है, तब आज जब वह ऐसी स्थिति में है तो क्या वह अपने लिए कोई रास्ता नहीं निकाल सकता है ?


दिव्यांश एक दृढ़ इच्छा शक्ति वाला समर्पित व्यक्ति था। उसने समय के हर रूप को समझा था, परखा था व जाना था। वह लोगों को प्रेरित भी करता था। तथा उन्हें उनमें गुणवत्ता बढ़ाने के उपाय भी बताया करता था। वह सच्चे अर्थो में ज्ञान साधक की तरह दूसरों को कार्य निष्पादन के लिए सहयोग करने का अभ्यासी था। आज वह उन्हीं स्थितियों में स्वयं को पा रहा था, जिनमें फंसे व्यक्तियों को उबरने के लिए लोगों को सीख दिया करता था। आज सच्चे अर्थो में उसके ज्ञान, अनुभव पालक के रूप में उसकी परीक्षा थी।
किसी भी सहज व्यक्ति की भाँति दिव्यांश में भी अनेक खूबियाँ थी, कमियाँ थी, किन्तु उसके अन्दर पूरी ईमानदारी से सच स्वीकारने का साहस भी था। उसके भीतर का एक प्रेमान्वेषी किशोर हर स्थिति में जीतता था और उसका कमबख्त मन पराजय स्वीकार करने की तैयार न था। अपने लिए ही सोचते-सोचते उसे लगा कि रास्ता निकल सकता है।
उसने सामान को लॉक किया तथा पैण्ट्री कार की तरफ चल दिया। पैण्ट्री कार उसके डिब्बे के बाद था। पैण्टी कार में वहाँ के कर्मचारियों ने उससे पूछा कि उसे क्या काम है ? दिव्यांश ने पैण्ट्री कार के मैनेजर से बात करने की इच्छा बताई। तब एक कर्मचारी ने उसे वहाँ पहुँचा दिया।
मैनेजर एक सूट पहने आदमी को पुरानी चप्पल में देखकर चौंक गया। मैनेजर ने कुछ बोलने के लिए मुँह खोला ही था कि दिव्यांश ने उसे एक साँस में अपनी आप बीती कह सुनाई। पैण्ट्री कार का मैनेजर तथा उसके साथी दिव्यांश की स्थिति व परेशानी को सुन अचम्भित हो गए। दिव्यांश के प्रति सभी के मन में सहानुभूति जाग उठी।
पुनः मैनेजर कुछ बोलने को हुआ कि दिव्यांश ने अगला प्रश्न मैनेजर से पूछ लिया कि वह रहने वाला कहाँ का है?
मैनेजर ने उसे बताया कि वह समस्तीपुर बिहार का रहने वाला है। तो दबी हुई मुस्कराहट से दिव्यांश ने कहा कि मेरी ससुराल बिहार में ही पड़ती है। कुछ ही देर में दो अजनबी ऐसे बात करने लगे, जैसे जाने कितने दिनों से एक दूसरे को जानते हैं।
मेनेजर ने अपने साथी कर्मचारी से नाश्ता काफी लाने को कहा। नाश्ता कॉफी पर दिव्यांश भूखे जानवर की तरह टूट पड़ा।


मैनेजर ने एक नाश्ता और मंगा कर दिया। भरपूर नाश्ता कर लेने के बाद एक कॉफी और दिव्यांश ने ले ली। यह सब देखकर मैनेजर की आँखों में ऑसू आ गये। उसने अपने साथी कर्मचारियों से कहा कि दिव्यांश को उनके बर्थ पर वो जो कुछ खाने को माँगे उन्हें दे दिया जाए। कोई भी उनसे पैसा नहीं माँगेगा।
दिव्यांश मैनेजर के इस दरिया दिली से बहुत प्रभावित हुआ। उसने दिव्यांश से कहा‘आप परेशान ना हों, अपनी सीट पर जायें जो चाहिए माँग लें।' “दिव्यांश ने मैनेजर से कहा”:“मै तो पूरे बिहार को अपनी ससुराल मानता हूँ।” मेनेजर हँसने लगा
दिव्यांश ने मैनेजर से झेंप मिटाते हुए कहा“मैं पूरा पेमण्ट चेक से या दिल्ली रेलवे स्टेशन पर कैश में करने को तैयार
मेनेजर ने कहा‘जाइए थोड़ी देर में लंच तैयार हो जाएगा। आपकी लंच में क्या भिजवाऊँ, नानवेज का आर्डर देकर दिव्यांश अपने बर्थ पर पहुँच गया।
बर्थ पर बैठा दिव्यांश अपनी पूर्व की स्थिति, बदलते घटना क्रम तथा उसके बाद की स्थितियों पर विचार मग्न था। वह पैण्ट्री कार मेनेजर के स्वभाव से अत्यन्त प्रभावित था। उसके जीवन में कई लोग अब तक आए थे परन्तु इस तरह का कोई भी व्यक्ति शायद ही आया हो । औरों के बारे में वह क्या सोचे, वह स्वयं यदि पैण्ट्री मैनेजर की जगह होता तो शायद मुसीबत में पड़े किसी अनजान व्यक्ति की इतनी मदद न कर पाता। उसे यह निर्णय करना कठिन हो रहा था कि यह बदलाव उसके हुनर से आया, अनुभव से आया अथवा सामने वाले की अतिशय दरियादिली से।
मानवीय गुणों से युक्त व्यक्ति समाज में वंदनीय तो होता ही है। साथ ही साथ वह एक मिसाल भी कायम करता है। आज दिव्यांश के मन में जो भाव आ रहे हैं क्या ये स्थायी हैं अथवा कठिनाई में पड़े होने के कारण ही आज इन विचारों से वह जुड़ा है?


दिव्यांश मन ही मन ईश्वर को धन्यवाद दे रहा था। पैन्ट्री कार मैनेजर से उसकी बात-चीत के बाद उसकी क्षुधा पूर्ति ने उसके विश्वास का स्तर काफी बढ़ा दिया था। कान्फीडेन्स लेबल ने उसे अपने हुनर पर भरोसा करने का पर्याप्त अवसर व कारण दे दिया था। मानव-मानव का लगाव तो आदिकाल से भारत एवं भारतीयता की पहचान मानी जाती है। परोपकार की भावना ने आज दिव्यांश की काफी सम्बल दिया था। अपने जीवन में उसने एक परिवर्तन की आहट भी सुनी इस घटना के बाद । जब तक कि वे दुर्घटना में न बदल जाएँ। आज ऐसे ही एक चक्र से अपने को उबरा हुआ पा रहा था दिव्यांश। बर्थ पर बैठा सोच रहा था, यदि आज हमें यह सहयोग न मिलता तो? पैन्ट्री कार मैनेजर अटेंड ही न करता तो ? रूखा व्यक्ति भी तो हो सकता था वह। इस तरह की तमाम ऊहापोह ने दिव्यांश के मनमस्तिष्क में तूफान सा मचा रखा था। वह सोच रहा था कि यदि वह स्वयं इस घटना की कड़ी में मैनेजर की जगह होता तो क्या ऐसी सहूलियत किसी को दे पाता, जिसका तलबगार इस समय वह स्वयं था।
जरूरतें आदमी को अतिशय विनम्र बना देती हैं। उसकी अकड़ न जाने कहाँ खो जाती है। वह हर कहीं सहजता व सरलता का चित्र देखने लगता है। अहं जाने कहाँ चला जाता है, वाणी कोमलता के सारे कीर्तिमान तोड़ देती है। शरीर में विनम्रता लोच मारने लगती है। आँखों में मानवीय करूणा, उदारता की चमक दिखने लगती है। ललाट उपकार के प्रतिकार की सलवटों से व्यक्त करने लगता है। होठों से कठोरता लुप्त हो जाती है। मुस्कुराहट अपने प्राकृतिक स्वरूप में होती है। बनावट व व्यंग्य का कहीं नामोनिशान तक नहीं होता। आज दिव्यांश के सामने ये सारे तथ्य मुखर हो उससे वार्तालाप कर रहे थे।
शायद नहीं। आज के प्रोफशनल युग में जहाँ सबकुछ पैसा हो गया है। आदमी रिश्ते भी पैसे को देखकर बनाता व बिगाड़ता है ? दिव्यांश अपने आप को इस तरह से सक्षम नहीं पा रहा था; पर इस घटना ने उसकी जिन्दगी बदल कर रख दी थी। हमारी बॉडी लैंग्वेज से लेकर वाणी, व्यवहार सभी कुछ हमें सहयोग का पात्र बनाए रखने में सहयोग देता है। नकारात्मकता कहीं दूर अंधकार में विलीन हो जाती है। तथा सकारात्मक ऊर्जा के आलोक में मन की सारी शक्तियाँ सहयोग की भावना की ओतप्रोत बनाए रखना अपना प्रमुख कर्त्तव्य मानती हैं।


आँखों से नीद को कोसों दूर पाकर दिव्यांश विचारों के हिण्डोले में झूलता अपने अतीत में खोया कहीं शून्य में निहार रहा था। उसके दिमाग ने जहाँ यह प्रतिफल उसकी योग्यता को माना। वही मन मानवता के प्रति कृतज्ञ था। मन एवं मस्तिष्क के जद्दोजहद में दिव्यांश खोया रहा। आस-पास के परिवेश से कहीं दूर वह नये परिवेश का सृजन कर रहा था। परिस्थितियों ने उसे एक नया कलेवर प्रदान किया था।
एक बजे पूरा मारवाड़ी परिवार सो कर उठ गया है और पुनः खाने का सामान खोलकर बैठ गया दिव्यांश को यह देखकर आश्चर्य हुआ कि मारवाड़ी परिवार ने अनौपचारिक या इंसानियत के नाते एक बार भी उसे खाने के लिए नहीं पूछा, जब व्यक्ति के सामने ऐसी स्थिति आती है तो उसे अपने सामने की स्थितियाँ अच्छी नहीं लगती है।
सामने वाले उसे दुश्मन नजर आते हैं। जबकि दिव्यांश को याद आया कि चेन्नई में जब वह एक बार दिल्ली के लिए चला था तब सिर्फ 20 रुपये में इतना खाना मिला था कि उससे दो आदमियों का पेट भर सकता था। उसने अपने सामने वाले बर्थ पर बैठे एक फौजी से कहा कि वह साथ में खाना खा ले परन्तु फोजी ने उत्तर दिया कि वह खाना खाकर आया है। तब दिव्यांश ने अपना आधा खाना एक भूखे भिखारी को दे दिया था। तभी पैण्ट्रीकार का कर्मचारी 2 नॉनवेज का पैकेट लेकर उसके पास आया । दिव्यांश सीट पर बैठकर तसल्ली के साथ खाना खाने लगा। इस तरह अगले दिन सुबह नौ बजे दिव्यांश ने अपनी चेक बुक के साथ पैण्ट्रीकार मैनेजर के पास पहुँच कर उसे खाने के मूल्य का चेक प्रदान किया।
पर रिश्तों की डोर कहें, इन्सानियत का तकाजा या फिर कुछ और मैनेजर ने चेक लेने से मना कर दिया और बोला -
दिव्यांश जी इससे ज्यादा का तो खाना-नाश्ता ट्रेन में चखने वाले टी.टी. तथा पुलिस वाले मुफ्त में खा जाते हैं। और आप तो अपने हो परन्तु
दिव्यांश ने जबरदस्ती चेक मैनेजर को पकड़ा दिया । दिव्यांश ने उसे इस अच्छे व्यवहार के लिए धन्यवाद भी दिया।
पर दिव्यांश से मैनेजर ने चेक लेने से मना कर दिया और उसने सम्मानपूर्वक चेक वापस कर दिया। दिव्यांश ने मैनेजर की इस उदारता के लिए उसे बहुत धन्यवाद दिया। भूख की छटपटाहट में दिव्यांश की रूह तक कॉप उठी थी एक बार तो दिव्यांश चौबीस घंटे पूर्व की बात सोच-सोच कर परेशान व विचलित हो। उठा था ।


ट्रेन से उतरकर दिव्यांश सीधा अपने घर पहुँचा। जेब तो खाली थी; पर दिमाग खाली नही था। उसने एक आटो वाले को बुलाया तथा अपनी परिस्थितियों को ध्यान में रखकर उससे बोला
‘भाई तिलक नगर चलोगे ।।' जी;... और आटो वाले ने सामान लेकर आटो में रख लिया।
दिव्यांश आटो में बैठ घर के लिए रवाना हो गया। घर पहुँच कर अपनी पत्नी से आटी वाले का किराया मॉग कर उसे देने के बाद थके हारे दिव्यांश ने सामान के साथ घर में प्रवेश किया उसकी पत्नी उसकी ये दशा देखकर हतप्रभ रह गयी। दिव्यांश ने संक्षेप में अपनी कहानी बताई। “चलो जल्दी तैयार हो जाओ; बेटी को देखने वाले आते ही होगें ।” दिव्यांश की पत्नी पुष्पा ने कहा
नहा धोकर तैयार दिव्यांश अभी सोफे पर बैठा ही था कि घर की कॉलबेल बजी । दरवाजा खोलकर देखा तो उसके सामने ट्रेन का पैन्ट्रीकार मैनेजर खड़ा था । अपने आँखों में आश्चर्य तथा जबान पर प्रश्न लिए दिव्यांश उसे सिर्फ घूरता रह गया ।
दूसरी तरफ यही स्थिति पैन्ट्रीकार मैनेजर की भी थी। दोनो लोगों को इस तरह से आश्चर्यचकित देखकर पुष्पा ने कहा
“अरे अन्दर तो आने तो समधी जी को ।' सुनकर दिव्यांश जैसे सोते से जागा।
बोला : हाँ हाँ क्यों नही। तभी पैन्ट्रीकार मैनेजर जो अब तक शान्त था, बोल पड़ा, अरे भई कुदरत का
भी जवाब नहीं आज हमने जिनकी मदद की दी घण्टे बाद ही उनके साथ रिश्ते की डोर भी बँध गई।
क्यों भाई साहब अब आप यह नही कह सकते कि सारा बिहार आपकी ससुराल है बल्कि अब बिहार का कम से कम एक परिवार आपकी नही, आपकी बेटी की ससुराल है।
---डॉ जयशंकर शुक्ल

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