हँसी की एक डोज़- इब्राहीम अल्वी राजीव तनेजा द्वारा पुस्तक समीक्षाएं में हिंदी पीडीएफ

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हँसी की एक डोज़- इब्राहीम अल्वी

कई बार कुछ कवि मित्र मुझसे अपनी कविताओं के संग्रह को पढ़ने का आग्रह करते हैं मगर मुझे लगता है कि मुझमें कविता के बिंबों..सही संदर्भों एवं मायनों को समझने की पूरी समझ नहीं है। इसलिए आमतौर पर मैं कविताओं को पढ़ने से बचने का थोड़ा सा प्रयास करता हूँ। हालांकि कई बार मैंने खुद भी कुछ कविताओं जैसा कुछ लिखने का प्रयास भी किया मगर जल्द ही समझ आ गया कि फिलहाल तो कविताएँ रचना या उन पर कुछ लिखना मेरे बस की बात नहीं। ऐसे में अगर कोई मित्र स्नेहवश अपना कविताओं का संकलन मुझे भेंट करता है तो मैं सकुचाहट भरी सोच में डूब जाता हूँ कि उस पर क्या लिखूँ?

साथ ही खुद के एक हास्य व्यंग्यकार होने के नाते अगर कहीं मुझे हास्य या व्यंग्य से सराबोर रचनाएँ दिखें भले ही वह गद्य या फिर पद्य शैली में हों तो मेरा मन खुद ही उन्हें आत्मसात करने के लिए उतावला हो उठता है। अब ऐसे में जब बड़े प्रेम से मेरे कवि मित्र इब्राहीम अल्वी जी ने अपनी हास्य कविताओं का संकलन 'हास्य की एक डोज़' मुझे प्रेम से भेंट किया तो मैं खुद को इसे यथाशीघ्र पढ़ने से रोक नहीं सका।

आइए..अब बात करते हैं इस मज़ेदार काव्य संकलन की तो इस संकलन की कविताओं में इब्राहीम जी अपनी कविताओं के ज़रिए ऐसी ऐसी चीज़ों..बातों की कल्पना कर लेते हैं जिनसे हमारा रोज़ का वास्ता होते हुए भी हम उनके बारे में ऐसा कुछ कभी सोच नहीं पाते।

जैसे कि आमतौर पर कहा जाता है कि..

"जहाँ ना पहुँचे रवि..वहाँ पहुँचे कवि।"

अर्थात जहाँ रवि अर्थात सूर्य की रौशनी भी नहीं पहुँच पाती, वहाँ भी कवि अपनी कल्पना की उड़ान के ज़रिए आसानी से पहुँच जाता है। इसी की एक बानगी के रूप में इब्राहीम जी ने पक्षियों..जानवरों इत्यादि से ले कर रोज़मर्रा की खानपान की चीज़ों एवं सब्ज़ियों जैसे आलू..टमाटर..प्याज़..नींबू..अण्डे..
मुर्गे तक को नहीं बख्शा।

उनकी किसी कविता में वे ईश्वर से उन्हें इन्सान के बजाय कुत्ता या फिर पक्षी बनाने की प्रार्थना करते दिखाई देते हैं जबकि वे उसे मनुष्य जन्म दे कर कवि बनाना चाहते हैं। उनकी किसी कविता में तनावमुक्त रहने के लिए सुबह शाम हँसी की डोज़ लेने की बात की जाती दिखाई देती है। तो किसी अन्य कविता में वे मज़ेदार ढंग से दिन प्रतिदिन महँगे होते प्याज़ की व्यथा का जिक्र करते नज़र आते हैं।

उनकी किसी अन्य कविता में भैंसे की माँ का दूध याने के भैंस का दूध पीने की वजह से भैंसे और इन्सान में आपस में भाई भाई का संबंध स्थापित किया जा रहा है। तो किसी अन्य कविता में शरीर के बाकी अंगों की पेट के प्रति ईर्ष्या से तंग आ जब वह भूख हड़ताल कर बैठता है। किसी अन्य कविता में गधा इलैक्शन लड़ने की सोच रहा है तो कहीं किसी अन्य कविता में वे बन के बुद्धू..लौट के फिर वापिस घर को आ रहे हैं। किसी कविता में उन रिटायर हो चुके बूढ़ों की व्यथा झलकती है जिनकी अब उनकी अपनी औलादें ही इज़्ज़त नहीं करती। तो किसी अन्य कविता में बुढ़ापे में बत्तीसी निकलवाने के बाद वे बोलना कुछ चाहते हैं मगर अर्थ का अनर्थ करते हुए बोला कुछ और जा रहा है।

एक अन्य कविता में मुँह के अंदर बत्तीस दाँत, जीभ को ताना दे रहे हैं कि उसकी हरकतों की वजह से उन्हें बहुत दिक्कत होती है। तो किसी अन्य कविता में मोटे आदमी की दिक्कतों का मज़ेदार ढंग से वर्णन किया गया है। किसी कविता में बुर्के वाली मोहतरमा के साथ बस में बैठ वे इतरा रहे हैं तो कहीं किसी कविता में वे फेसबुक पर चैटिंग और फिर डेट का प्लान बना रहे हैं। किसी कविता में कागज़ के माध्यम से वे जीवन में डॉक्युमेंट्स की अहमियत बता रहे हैं। तो किसी अन्य कविता में वे रोड एक्सीडेंट में घायल को अस्पताल पहुँचा कर अब खुद पछता रहे हैं कि पुलिस अब उन्हें खामख्वाह में परेशान कर रही है।

उनकी किसी कविता में जहाँ दिन प्रतिदिन महँगी होती दालों पर कटाक्ष किया जाता नज़र आता है। तो वहीं किसी अन्य कविता में एक नवीन प्रयोग के तौर पर पेड़ों के कटने से होने वाले नुकसानों को बताने के लिए वे एक साथ कई बाल कहानियों के संदर्भ भी इस बात से जोड़ते नज़र आते हैं। इसी संकलन की किसी कविता में वे अपनी कविता के ज़रिए भिखारी और नेता में समानता स्थापित करते दिखाई देते हैं। तो किसी अन्य कविता में गाँव के सीधे साधे भोले जीवन और शहर के निष्ठुरता भरे जीवन की बात कर उनमें ज़मीन आसमान के फ़र्क को बताते दिखाई देते हैं।

उनकी किसी कविता देश में भिखारियों की बढ़ती सँख्या के प्रति चिंता जताई जाती दिखाई देती है। तो किसी अन्य कविता में पत्नी के गुज़र जाने के बाद उसकी याद में तड़पता पति दिखाई देता है। किसी कविता में वे शहर के प्रदूषण भरे जीवन और गाँव के सादे जीवन के बीच का फ़र्क दिखाते नज़र आते हैं तो किसी अन्य कविता में मूँछों की महिमा का वर्णन पढ़ने को मिलता है। किसी कविता में आदमी की एक्सपायरी डेट निकलती दिखाई देती है तो किसी कविता में डॉक्टरों द्वारा लड़की का दिल पहलवान के दिल से बदला जाता दिखाई देता है । किसी अन्य कविता में वे पत्नी और माँ के बीच मंझधार में फँसे दिखाई देते हैं कि पत्नी से पहले प्रेम करें या फिर माँ की सेवा पहले करें।

उनकी किसी कविता में करुणात्मक ढंग से सड़क पर करतब दिखाने वाले छोटे बच्चों के माध्यम से देश के विकास पर सवाल उठाया जाता नज़र आता है। तो किसी अन्य कविता में मोबाइल जैसी तकनीक के आ जाने से डाक और चिट्ठियों के लुप्तप्राय होने या उनकी महत्ता के कम होने अथवा खत्म होने की बात उठायी जाती दिखाई देती है।

इसी संकलन की किसी कविता में देश की अर्थव्यवस्था के कैशलैस होने से नक़द रुपया इस्तेमाल करने के आदि लोगों को इससे ही रही परेशानी की बात की गयी है। तो किसी अन्य कविता में जीभ और आँखों की बात की गयी है कि इनके सही एवं संयमित इस्तेमाल से जहाँ एक तरफ़ बिगड़े काम बन जाते हैं तो वहीं दूसरी तरफ़ इनके बेलगाम होने से बने हुए काम भी बिगड़ जाते हैं। एक अन्य कविता घर छोड़, परदेस में काम कर पैसा कमाने गए उन लोगों की बात करती है कि वे ना घर के..ना घाट के अर्थात कहीं के नहीं रहते।

इसी संकलन की किसी अन्य कविता में भारत के विभिन्न इलाकों के विभिन्न रहन सहन के तौर-तरीकों और खानपान की भिन्नताओं से ही देश के सौंदर्य..एकता और अखंडता की बात की गई है। तो किसी अन्य कविता में शहर के शोर-शराबे और तौर तरीकों से दूर पुनः वापस गाँव लौट जाने की बात की गई है। एक अन्य कविता शारीरिक क्रियाओं जैसे खांसी और उबासी की बात करती है कि वे किसी खास इलाके..तबके या धर्म की मोहताज नहीं है।

किसी कविता में शारीरिक कमी के चलते पैदा हुए लोगों अर्थात किन्नरों की व्यथा कही गई है। तो किसी कविता में बढ़ती महंगाई की बात तो किसी कविता में इस बात की तस्दीक की गई है कि बढ़ती उम्र के साथ सबके पेंच ढीले हो जाते हैं। इसी संकलन की किसी अन्य रचना में गाँवों के शहरीकरण के बाद आए बदलावों की बात की गयी है। किसी रचना में अन्दर की बात कह इब्राहीम जी बहुत सी बातों को छुपाते हुए भी उनके बारे में बहुत कुछ कह गए हैं।

किसी कविता में नकली डिग्रियों के दम पर लग रही सरकारी नौकरियों पर कटाक्ष किया जाता नज़र आता है। तो किसी शरारती कविता में लिफ़्ट में लिखे वाक्य को अमली जामा पहना इब्राहीम जी बिना ब्याह किए ही छह बच्चों के बाप बनते नज़र आते हैं।

कहने का मतलब ये कि इब्राहीम जी की रचनाओं में जहाँ एक तरफ़ हल्की फुल्की बातों के ज़रिए हास्य उत्पन्न किया जाता नज़र आता दिखाई देता है तो वहीं दूसरी तरफ़ उनकी कई रचनाएँ गहरे कटाक्ष और विसंगतियों को भी अपने में समेटे नज़र आती हैं।

कई बार हम किसी शब्द का दूसरों से ग़लत उच्चारण सुन कर या फिर कई बार किसी खास शब्द को ले कर हमारा खुद का ही उच्चारण सही नहीं होता तो उसे लिखते वक्त हम जस का तस उतार देते हैं। इस स्तर पर भी इस संकलन में कुछ जगहों पर कमी दिखाई दी। दरअसल किसी से बात करने या कहीं कुछ बोलते वक्त तो खैर..इससे काम चल जाता है या चल सकता है। मगर जब बात उसी शब्द को लिखने या उसके कहीं..किसी किताब में छपने की आती है तो उस शब्द का सही तरीके से बिना किसी वर्तनी की अशुद्धि के लिखा या छपा होना निहायत ही ज़रूरी हो जाता है।

वर्तनी की त्रुटियों के अतिरिक्त प्रूफरीडिंग के स्तर पर भी इस संकलन में कई कमियाँ दिखाई दी। उदाहरण के तौर पर पेज नम्बर 14 में लिखा दिखाई दिया कि..

'देखकर तीनों के चेहरे की नमक'

यहाँ 'चेहरे की नमक' के बजाय 'चेहरे का नमक' आएगा।

इस बाद पेज नंबर 19 पर लिखा दिखाई दिया कि..

'जीभ बोली, मैं तुम्हारा परिचय दुनिया से करती हूँ
खट्टे मीठे और तीखे स्वाद चखाती हूँ'

यहाँ 'मैं तुम्हारा परिचय दुनिया से करती हूँ' की जगह 'मैं तुम्हारा परिचय दुनिया से कराती हूँ' आएगा।

पेज नंबर 21 पर लिखा दिखाई दिया कि..

'जब ये इस तरह करता है ये मेरा चित्र चरित्र हनन'

इस वाक्य में दो बार 'ये' शब्द का इस्तेमाल किया गया जबकि किसी भी 'ये' शब्द को हटाने से ही वाक्य सही बन पाएगा।

आगे बढ़ने पर पेज नंबर 32 पर लिखा दिखाई दिया कि..

'मैं कहता हूं सिंगल हूँ, किराया डबल का बता रहा है बड़ी दृढ़ता है'

यहाँ 'बड़ी दृढ़ता' की जगह 'बड़ी धृष्टता' या 'बड़ी ढीठता' आएगा।

इसी पेज पर इसके आगे लिखा दिखाई दिया कि..

'आपके चढ़ाना उतारना भी तो पड़ता है'

'यहाँ 'आपके' की जगह 'आपको' आएगा।

** 'आदत से मजबूर' कविता में कवि अपनी जेब काटने की आदत से मजबूर है लेकिन इसी कविता की एक पंक्ति इस प्रकार लिखी दिखाई दी कि..

'कोई समय हो दिन या रात, सुबह या शाम
फर्क नहीं कुछ, बूढ़ा हो या जवान, हत्या से काम'
यहाँ 'हत्या से काम' का तात्पर्य समझ में नहीं आया कि जेब काटते काटते कवि..हत्या जैसे गंभीर अपराध की तरफ़ कैसे मुड़ गया?

यूँ तो यह मज़ेदार किताब मुझे लेखक द्वारा उपहारस्वरूप मिली मगर अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा कि इसके 116 पृष्ठीय पेपरबैक संस्करण को छापा है शब्दांकुर प्रकाशन ने और इसका मूल्य रखा गया है 200/- रुपए। जो कि मुझे थोड़ा ज़्यादा लगा।