मेरी लघुकथाएं - मधुदीप गुप्ता राजीव तनेजा द्वारा पुस्तक समीक्षाएं में हिंदी पीडीएफ

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मेरी लघुकथाएं - मधुदीप गुप्ता

आमतौर पर अपने भावों को अभिव्यक्त करने के लिए हम सब एक दूसरे से बोल..बतिया कर अपने मन का बोझ हल्का कर लिया करते हैं। मगर जब अपने मनोभावों को अभिव्यक्त करने और उन्हें अधिक से अधिक लोगों तक संप्रेषित करने का मंतव्य किसी लेखक अथवा कवि का होता है तो वह उन्हें दस्तावेजी सबूत के तौर पर लिखने के लिए गद्य या फिर पद्य शैली को अपनाता है।

आज बाकी सब बातों से इतर, बात सिर्फ गद्य शैली की एक तेज़ी से उभरती हुई विधा, लघुकथा की। लघुकथा तात्कालिक प्रतिक्रिया के चलते किसी क्षण-विशेष में उपजे भाव, घटना अथवा विचार की नपे तुले शब्दों में की गयी एक ऐसी अभिव्यक्ति है जिसमें आपके मन मस्तिष्क को झंझोड़ने की काबिलियत एवं माद्दा हो। लघुकथा याने के एक ऐसी छोटी कथा जिसे आसानी से एक..डेढ़ पेज या फिर इस से भी कम जगह में आसानी से पूरा किया जा सके।

दोस्तों..आज लघुकथा से संबंधित बातें इसलिए कि आज मैं प्रसिद्ध लेखक मधुदीप गुप्ता जी की लघुकथा संग्रह 'मेरी चुनिंदा लघुकथाएँ' की बात करने जा रहा हूँ। साहित्य को पचास वर्ष देने के बाद हाल ही में उनका देहांत हुआ है।

सरल एवं धाराप्रवाह शैली में लिखी गयी उनकी रचनाओं में कहीं नारी सशक्तिकरण की बात मज़बूती से होती दिखाई देती है तो कहीं लव ज़िहाज़ का मुद्दा सर उठाता दिखाई देता है। कहीं लिव इन..मी टू में बदलता दिखाई देता है तो कहीं विदेश में बस चुके बच्चों के बूढ़े हो चुके माँ बाप, उनके वियोग में तड़पते दिखाई देते हैं।

इस संकलन की रचनाओं में कहीं मज़बूरिवश कोई अपने मन की इच्छाओं को मारता दिखाई देता है तो कहीं किसी अन्य लघुकथा में छोटे बड़े नेताओं के शातिरपने और झूठे वादों की पोल खुलती दिखाई देती है। इस संकलन की रचनाओं में कहीं कर्तव्यपरायण डॉक्टर दिखाई देता है तो कहीं लूट की मंडी बन चुके प्राइवेट अस्पताल भी दिखाई देते हैं। कहीं किसी रचना में स्वार्थी भाई हद से भी ज़्यादा नीचे गिरते दिखाई देते हैं तो कहीं किसी रचना में रक्तदान की महत्ता का वर्णन पढ़ने को मिलता है।

कहीं किसी रचना में पैसा दे वोट खरीदने की बात नज़र आती है तो कहीं किसी अन्य रचना में गरीबों के घर..खेत सब के सब बैंक नीलाम करते नज़र आते हैं तो कहीं कोई धूर्त बैंकों के कर्ज़े पर ही ऐश करता दिखाई देता है। कहीं किसी रचना में विधायकों की चार गुणा तक बढ़ती तनख्वाह पर कटाक्ष होता दिखाई देता है। तो कहीं इसी संकलन की किसी अन्य लघुकथा में सरकारी स्कूलों की मिड डे मील स्कीम में धांधली होती दिखाई देती है जहाँ पढ़ाना लिखाना छोड़ सरकारी आदेश पर अध्यापकों की उसी में ड्यूटी लगाई जाती दिखाई देती है।
इसी संकलन में कहीं किसी रचना में काम की तलाश में गाँव से शहर आए लोगों का शहर के निष्ठुर स्वभाव की वजह से मोहभंग होता दिखाई देता है। तो किसी अन्य लघुकथा में हमारे देश में ईस्ट इंडिया कंपनी के प्रवेश ले कर आज़ादी और फिर से विदेशी निवेश को अनुमति दे ग़ुलामी की तरफ़ बढ़ने की पूरी घटना को चंद दृश्यों के माध्यम से दर्शाया जाता दिखाई देता है । कहीं कोई लघुकथा रक्तदान की कीमत और ज़रूरत को समझाती प्रतीत होती है। तो कहीं कोई अन्य लघुकथा हमारे देश की इस विडंबना की तरफ़ इशारा करती नज़र है कि यहाँ के परिवारों में भी पढ़े लिखे के मुकाबले मेहनतकश सदस्य को दूसरे से कमतर समझा जाता है।
इस संकलन में कहीं सांकेतिक रूप से किसी रचना में जन आंदोलन के ज़रिए तख्तापलट होता दिखाई देता है। तो कहीं कोई लघुकथा मतलबपरस्त राजनैतिक पार्टियों की अवसरवादिता की पोल खोलती नज़र आती है। कहीं कोई लघुकथा इस बात की तस्दीक करती दिखाई देती है कि तथाकथित सन्त महात्मा भी धन दौलत और मोह माया के बंधनों से आज़ाद नहीं हैं।

इसी संकलन की रचनाओं में कहीं निराशा और अवसाद के बीच भी उम्मीद की किरण जलती दिखाई देती है। तो कहीं कोई अन्य लघुकथा में निजी द्वेष और रंजिश को भूल कोई फौजी अपने कर्तव्य का पालन करता दिखाई देता है। कहीं कोई रचना बड़े प्राइवेट अस्पतालों की धनलोलुपता की बात करती नज़र आती है। तो कहीं छोटी जाति के युवकों के ज़्यादा पढ़ लिख जाने से तथाकथित ऊँची जात वाले ईर्ष्या और द्वेष की वजह से चिढ़ कर बौखलाते नज़र आते हैं।

इसी संकलन की किसी लघुकथा में चायनीज़ खिलौने के भारतीय खिलौनों की बनिस्बत सस्ते होने की बात से हमारे देश की गिरती अर्थव्यवस्था पर कटाक्ष मिश्रित चिंता जताई जाती दिखाई देती है। तो किसी अन्य लघुकथा में सामूहिक बलात्कार का शिकार हुई युवती के पुलिस स्टेशन में एफ.आई.आर लिखवाने पर उसका पति ही उसे इसके लिए हतोत्साहित करता नज़र आता है कि.. अब इससे फ़ायदा क्या?

इस किताब की एक अन्य लघुकथा इस बात की तस्दीक करती नज़र आती है कि आम आदमी के लिए बिगड़ते वैश्विक संबंधों और दुश्मन देश की नापाक हरकतों जैसे बड़े बड़े मुद्दों कर बजाय रोज़ रोज़ बढ़ती महँगाई ज़्यादा मायने रखती है।

104 पृष्ठीय इस उम्दा लघुकथा संकलन के पेपरबैक संस्करण को छापा है दिशा प्रकाशन ने (जो कि मधुदीप जी का अपना ही प्रकाशन था) और इसका मूल्य रखा गया है 125/- रुपए। जो कि क्वालिटी एवं कंटैंट को देखते हुए बहुत ही जायज़ है।