उजाले की ओर ---संस्मरण
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नमस्कार स्नेही मित्रों !
नहीं जानती कि मेरे मित्र कहाँ रहते हैं ,यह भी नहीं जानती कि वे मेरी बातों से कितना इत्तेफ़ाक रखते हैं | यह भी नहीं मालूम कि वे मेरे लेखन को कितनी रुचि से पढ़ पाते हैं लेकिन एक बात ज़रूर है कि मुझे महसूस होता है कि वे सब मेरे अपने परिवार का हिस्सा हो गए हैं |
जीवन में बहुत सी बातों का हमें कोई ज्ञान नहीं होता ,न ही पता चलता है कि हम किससे कितने बाबस्ता हैं किन्तु धरती पर जन्म लेते ही हम किसी न किसी रूप में एक-दूसरे से जुड़ तो जाते ही हैं | कोई अदृश्य डोर तो होती ही है जो हमें इशारा करती है और हम उस ओर चलने लगते हैं जैसे कोई पतंग किसी डोर के पीछे चलती है | हाँ,डोरी पकड़ने वाले हाथ हमें दिखाई नहीं देते वो हमें महसूस होते हैं |
जीवन की इस ऊहापोह की स्थिति में कोई एक नहीं ,सब घिरे ही रहते हैं कभी न कभी ,अहसासों के पोटले में गाँठें लगती ही रहती हैं और वो भी इतनी सख़्त कि हम जब तक उन पर तवज्जो न दें तब तक वे अपने आप सख़्त और सख्त होती जाती हैं | कुछ लोग ऐसे याद आते हैं जिनसे हमारा मिलना सालों से नहीं हुआ था और सालों बाद मिलकर एक सुखद अहसास व तृप्ति का अनुभव होता है |मुझे तो ऐसे बहुत बार हुआ है ,होता ही रहता है | ज़रूर आप सबको भी ऐसे अनुभव हुए होंगे | आखिरकार हम सब उन्हीं पाँच तत्वों से तो मिले हैं जिन्हें न जाने कहाँ से बनाकर दुनिया में भेजा गया है |
मैंने इस बार का ज़िक्र कई बार किया है कि मेरे पिता अपने ज़माने के हिसाब से बहुत अधिक शिक्षित थे | स्वाभाविक होता है ,जब माता-पिता अधिक शिक्षित होते हैं बच्चों से उनकी अपेक्षाएँ बहुत अधिक बन जाती हैं | बस--यही मेरे साथ हुआ |
विवाह के लंबे वर्षों बाद मैंने पीएच.डी की | पापा बड़े खुश थे कि चलो उनके अनुसार तो उनकी बिटिया शिक्षा ग्रहण नहीं कर पाई किन्तु देर-अबेर ही सही उसका रुझान तो दुबारा से शिक्षा की ओर हुआ |
एक बार वे वेदों की व्याख्यान -सीरिज़ के लिए कहीं विदेश में आमंत्रित थे ,जैसे वे अधिकतर जाते रहते थे |इस बार वहाँ से लौटते हुए वे मुंबई से मेरे पास अहमदाबाद आए |
उन दिनों मैं अपने पीएच.डी के सबमिशन की तैयारी कर रही थी | वो अपने जीवन में मेरे पास बहुत कम आए थे ,रहे तो बहुत ही कम थे |
उस बार वे मुझे पढ़ाई में संलग्न देखकर बहुत प्रसन्न थे और अपने आप ही उन्होंने मुंबई से मेरे पास आकार दो दिन बाद की दिल्ली की फ़्लाइट बुक कारवाई थी |
यानि,पापा मेरे पास दो दिन रहने वाले थे ,इसकी मुझे व परिवार को बहुत प्रसन्नता व तसल्ली थी | बच्चे भी नाना जी से देश-विदेश की बातें सुनने के लिए उत्सुक थे |
बच्चे उस समय 'टीन-एज़'में थे और उन्हें अपने नाना जी को अपनी बहुत सी कार्यों से प्रभावित करने का अवसर मिलने वाला था |
उन्हें क्या मालूम कि उनके नाना जी किसी और ही मिट्टी के बने हैं जो आसानी से न किसीसे प्रभावित होते हैं ,न ही किसीके बारे में आसानी से कोई राय क़ायम करते हैं |
ख़ैर--पापा आए | बच्चे अपने मित्रों में खूब ढिंढोरा पीटकर आए थे कि उनके नाना बहुत बड़े फिलॉस्फ़र हैं | एक दिन तो पता नहीं कहाँ चला गया | पापा बच्चों के लिए काफ़ी सामान लाए थे लेकिन उनमें पुस्तकें बहुत अधिक थीं सो बच्चों का मन कोई बहुत खुश नहीं था |
अगले दिन बच्चों के कई टीन-एज़ मित्र उनके नाना जी से मिलने आए | साथ में उनके माता-पिता भी थे |
इधर-उधर की बातें होती रहीं |पूछने पर पापा ने अपनी कार्य-प्रणाली के बारे में बताया | सब लोग अपने-अपने अनुसार उनकी प्रशंसा के पुल बाँधने लगे |
पापा कुछ असहज होते रहे |जब काफ़ी सारी बातें हो गईं और पापा से रहा न गया तब उन्होंने कहा ;
"आप लोगों को धन्यवाद देता हूँ ,अपना कीमती समय निकालकर मुझसे मिलने आए लेकिन आपसे एक बात शेयर करना चाहता हूँ कि मैं आज भी छात्र हूँ और ताउम्र छात्र बना रहूँगा |"
कुछ देर चुप रहकर पापा ने फिर कहा ;
" एक बात आपसे कहना चाहता हूँ ,सदा छात्र बने रहिए | हमें सबसे कुछ न कुछ सीखना होता है | जीवन में हम सीखने ही आए हैं तो क्यों न अंतिम क्षण तक कुछ न कुछ सीखकर ही इस दुनिया से प्रस्थान किया जाए |"
पापा की बात सुनकर सब चुप हो गए थे और उबकी बात पर सोचने के लिए विवश भी | वे समझ गए थे कि वे अपनी प्रशंसा सुनने के मूड में नहीं थे |
सस्नेह
आपकी मित्र
डॉ. प्रणव भारती