अपराधी कौन ? राज कुमार कांदु द्वारा क्लासिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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अपराधी कौन ?

अदालत परिसर में काफी गहमागहमी थी लेकिन अदालत कक्ष में नीरव शांति थी जहाँ नृशंस हत्या के एक आरोपी की सुनवाई चल रही थी।


सरकार द्वारा मुफ्त वकील दिए जाने के प्रस्ताव को मुस्कुरा कर नकारते हुए मुजरिम गोपाल ने कहा, "हुजूर ! मुझे अपना गुनाह पता है और उसका अंजाम भी पता है लेकिन मुझे कुछ कहना है ...और मैं समझता हूँ अपनी बात कहने के लिए किसी वकील की जरूरत नहीं मुझे ! अगर आप इजाजत दें तो मैं शुरू करूँ ?"


जज साहब की गंभीर वाणी कक्ष में गूँजी, " इजाजत है !"


"शुक्रिया हुजूर !" कुछ पल की खामोशी के बाद गोपाल ने कहना शुरू किया, " हुजूर ! मुझपर लगे सभी आरोप सही हैं, मुझे इससे इंकार नहीं लेकिन मेरी पूरी बात सुनकर आप इसपर विचार अवश्य कीजियेगा कि इस पूरे प्रकरण में वास्तविक अपराधी कौन है ?"


उसकी खामोशी के साथ ही जज साहब की गंभीर आवाज एक बार फिर गूँजी, " तुम बिना रुके अपनी बात कहते रहो ! तुम्हारी हर बात रिकॉर्ड हो रही है और उस पर पूरा पूरा ध्यान दिया जाएगा।"


कृतज्ञ नजरों से उन्हें देखते हुए गोपाल ने अपनी बात आगे बढ़ाई, "हुजूर ! अपनी घरवाली व दो छोटे बच्चों के साथ मेरी जिंदगी हँसी खुशी कट रही थी। शहर में साइकिल रिक्शा चलाकर मेरी गृहस्थी अच्छे से चल रही थी। बच्चे बड़े हो रहे थे, उन्हें कोई कमी न रहे इसीलिए मेरी पत्नी कजरी भी नजदीक के शहर में काम पर जाने लगी।


उस दिन शहर से पैदल ही गाँव आ रही मेरी कजरी को गाँव के ही तीन लोगों ने सरेआम रास्ते से उठा लिया और पास के खेत में ले जाकर तीनों ने उसके साथ जबरदस्ती अपना मुँह काला कर लिया। मनमानी करने के बाद तीनों ने कजरी को जुबान बंद रखने की धमकी दी और उसे घर के नजदीक तक पहुँचा दिया।


संयोग से मैं भी उसी समय शहर से वापस आ गया था।पहली नजर में उसकी हालत देखकर मुझे लगा शायद उसकी तबियत ठीक नहीं है लेकिन जब उसने अपने साथ हुई दरिंदगी के बारे में बताया तो मेरी आँखों में खून उतर आया। बिना आगापीछा सोचे मैं पहुँच गया उन दरिंदों के घर पर। गाँव के इन सफेदपोशों के सामने मेरी कोई हैसियत नहीं थी और न ही इनके खिलाफ किसी गाँववाले का साथ मुझे मिलनेवाला था। सो आप समझ सकते हैं, मेरा क्या हाल हुआ होगा ? मार मार कर अधमरा कर दिया था मुझे उन दरिंदों ने लेकिन अन्याय के खिलाफ लड़ने का मेरा जज्बा अभी कम नहीं हुआ था और न ही अभी मेरे अंदर की आग शांत हुई थी।


मुझे कानून पर भरोसा था सो उसी वक्त कजरी को अपने रिक्शा पर बैठाकर थाने पहुँच गया उसके साथ हुई दरिंदगी की रपट लिखाने लेकिन वहाँ जाने पर पता चला कि वहाँ रपट भी पैसे लेकर लिखी जाती है और उस समय मेरे पास पैसे नहीं थे।


एक सिपाही ने तो ऐसी भद्दी बात कही थी जिसे सुनकर मेरा खून खौल उठा था। कसम से कहता हूँ हुजूर, अगर उस समय कजरी के प्रति अपनी जिम्मेदारी का अहसास नहीं होता तो वहीं उसका टेंटुआ दबा देता, चाहे मुझे बाद में फाँसी ही क्यों न हो जाती ! खैर किसी तरह कजरी के साथ मैं वापस घर आ गया।


दूसरे दिन अपने एक मित्र से कुछ पैसे उधार लेकर मैं कजरी के साथ वापस थाने पर पहुँच गया इस उम्मीद में कि अब तो रपट अवश्य लिखी जाएगी, लेकिन यह भी मेरी भूल ही साबित हुई जब वहाँ पहुँच कर अपना नाम बताते ही मुझे गिरफ्तार करके दो सिपाहियों ने पीटना शुरू कर दिया। पता चला उन तीनों दरिंदों ने ही मेरे खिलाफ जान से मारने की धमकी देने का झूठा रपट पहले से लिखवा रखा था। कजरी के बार बार हाथ जोड़कर मुझे छोड़ देने की मनुहार करने के बाद उनमें से एक सिपाही बोला, " ठीक है, तू कहती है तो छोड़ देता हूँ इसको और तेरे को भी लेकिन समझा देना अपने मरद को कि अपनी औकात में रहे। बड़े लोगों से पंगा न लिया करे।"


कुछ देर के बाद उसने कजरी को अपने पास बुलाया और बोला, " जान से मार देने की धमकी देने की नामजद रपट लिखाई गई है तेरे मरद के खिलाफ ! अगर तू चाहती है कि हम तेरे और इसके खिलाफ कोई कार्रवाई न करें तो तुझे माफीनामा लिखकर देना होगा।"


मुझे कुछ नहीं पता कि उस सिपाही ने कागज में क्या लिखा था। उसने मेरा और कजरी का अँगूठा जबरदस्ती उसपर लगवा लिया और हमें थाने से बाहर धकेल दिया। अब हम क्या करते ? हमें तो बस कानून का ही सहारा था।

हम बेबस और लाचार थे और मजबूर थे गाँव में रहते हुए उन दरिंदों की उपहास उड़ाती नजरों को झेलने के लिए। उन्हें देखते ही कजरी के अपमान की याद सीने में ज्वाला बनकर धधक उठती। आप ही बताइए हुजूर, अपनी पत्नी से प्यार करनेवाला कोई पुरुष उसका अपमान कैसे बरदाश्त कर सकता है ? उसपर से गाहेबगाहे उन दरिंदों द्वारा हमारा उपहास उड़ाना जले पर नमक छिड़कने का कार्य करता था। कजरी के लिए न्याय पाने का मैंने हरसंभव प्रयास किया लेकिन उन दरिंदों के पैसे और पहुँच के आगे मैं हमेशा ही कमजोर व नकारा साबित हुआ।

खैर, ईश्वर ने न्याय किया और उन तीनों में से दो दरिंदे कोरोना महामारी की भेंट चढ़ गए। जी को थोड़ी राहत मिली, जब उनके तड़प तड़प कर मरने की खबर मिली लेकिन अभी भी न्याय अधूरा था। मुख्य दरिंदा अभी भी जिंदा था।

न्याय पाने के लिए मैंने एक योजना बनाई और उसे पूरा करने में जी जान से जुट गया।


पत्थर की खदान में काम करनेवाले एक मजदूर से बहाना बनाकर मैंने पत्थरों में विस्फोट करनेवाला थोडासा विस्फोटक ले लिया। उस शक्तिशाली विस्फोटक को रात के अँधेरे में मैंने उस दरिंदे के ट्यूबवेल में मोटर की स्विच के साथ इस कदर जोड़ दिया कि स्विच ऑन करते ही बिजली स्पार्क हो और विस्फोटक में आग लग जाए। मेरी योजना सफल रही और दूसरे दिन सुबह जैसे ही उस दरिंदे ने ट्यूबवेल के मोटर का स्विच ऑन किया विस्फोटकों ने अपना काम कर दिया था। एक ही पल में वह दरिंदा इस कदर टुकड़ों टुकड़ों में उड़ गया था कि उसके घरवालों को उसके टुकड़े इकट्ठा करने में भी खासी मशक्कत करनी पड़ी थी। मैं चाहता तो बचने का प्रयास कर सकता था लेकिन नहीं ...मुझे देश व समाज को एक संदेश देना था और इसीलिए उस दरिंदे के टुकड़े होने का दृश्य प्रत्यक्ष देखकर आत्मसंतुष्टि होने के बाद मैं स्वयं थाने में हाजिर हो गया।

हुजूर...अगर हमें पुलिस प्रशासन व कानून से न्याय मिल गया होता तो हमें इस कदर अपराधी न बनना पड़ता, कानून अपने हाथ में न लेना पड़ता...तो इसीलिए मेरा आपसे सवाल है, कृपया बताएं ...गरीबों, मजलूमों व मजबूरों को दबाए रखने का, उन्हें वक्त बेवक्त प्रताड़ित करने का, उनके स्वाभिमान से खेलने का यह सिलसिला कब तक चलता रहेगा ? मजलूमों पर होनेवाले अत्याचार की अँधेरी रात की क्या कोई सुबह नहीं ? क्या मेरे द्वारा किये गए अपराध के लिए पुलिस प्रशासन, कानून और समाज दोषी नहीं ? बस हुजूर मेरे इन प्रश्नों का जवाब मुझे मिल जाए, बाकी मैं कानून का मुजरिम तो हूँ ही,.. आप जो सभी सजा देंगे मुझे मंजूर होगा हुजूर !" कहते हुए गोपाल ने दोनों हाथ जोड़ लिए और खामोश हो गया।

अदालत कक्ष में नीरव स्तब्धता छाई हुई थी। मेज पर रखे कागज पर कुछ लिखने के बाद जज साहब की नजरें गोपाल के चेहरे पर गड गईं। इसी के साथ अदालत कक्ष में उनकी धीर गंभीर आवाज एक बार फिर गूँजने लगी, " हमें तुमसे पूरी सहानुभूति है गोपाल ! जो भी हुआ तुम्हारे व तुम्हारी पत्नी के साथ बेहद शर्मनाक व दुःखद है। तुम्हारी इस बात में दम है कि कोई भी स्वाभिमानी पुरूष अपनी पत्नी का अपमान सहन नहीं कर सकता लेकिन क्या तुम्हें यह नहीं पता कि हमारा यह आजाद देश संविधान की धाराओं के अदृश्य बंधन से मजबूती से बँधा हुआ है ? हमारे देश में कानून का राज है अर्थात यहाँ हर कार्य कानून की सहमति से कानूनी धाराओं का उल्लंघन किए बिना करने की बाध्यता इस देश के हर नागरिक के लिए है फिर वह तुम जैसा कोई आम आदमी हो या फिर कोई बहुत खास आदमी ! कानून सभी के लिए बराबर है।


इधर देखो, ये न्याय के देवी की मूर्ति है। जानते हो, इनकी आँखों पर पट्टी क्यों बँधी है ? इनकी आँखों पर पट्टी इसलिए बँधी है ताकि जब न्याय करने की जिम्मेदारी इनपर आए तब इन्हें अपने सामने खड़े वादी और प्रतिवादी में से कोई अपना नजर न आ जाए...कहीं न्याय प्रभावित न हो जाए। आँखें बंद कर वादी प्रतिवादी को देखे बिना मुहैय्या कराए गए सबूतों की रोशनी में ही इन्हें मुल्जिमों में से असल मुजरिम का चेहरा नजर आता है और तब फैसला निष्पक्ष होता है। अदालतों ने बड़ी ईमानदारी से अपना कार्य किया है और इसीलिए सबका अंतिम विश्वास कानून पर ही टिका हुआ है। लोग यह कहते भी सुने गए हैं कि देश में कानून का राज है और यही सच है। ऐसे में तुमसे पूरी सहानुभूति व संवेदना व्यक्त करते हुए इतना जरूर कहूँगा कि तुम्हारी कही हर बात का संज्ञान लेते हुए इस मामले में जिस जिसने भी लापरवाही की है उनकी जाँच होगी और दोषी पाए जानेपर उनके खिलाफ सख्त कार्रवाई होगी। ..फिर वह चाहे थाने का कोई पुलिसकर्मी हो या अधिकारी। एक बात और रियायत तुम्हें भी नहीं मिलेगी, क्योंकि हम नहीं चाहते कि समाज व देश में यह संदेश जाये कि यदि आप सही हो तो कानून को हाथ में ले लो। नहीं...कानून हाथ में लेना कभी भी स्वीकार्य नहीं हो सकता। तुम्हारे ऊपर सोची समझी साजिश के तहत हत्या का मुकदमा चलाया जाएगा और जुर्म साबित होने पर कानून की धाराओं के मुताबिक सजा भी दि जाएगी।"

"हा ..हा.. हा..!" अचानक गोपाल विक्षिप्तों की मानिंद ठहाका लगाकर हँस पड़ा, " एक बार फिर गरीब, मजलूम व मजबूर की आवाज अनसुनी रह गई। मुझे अपने सवाल का जवाब मिल गया हुजूर ! मैं समझ गया हूँ कि बड़े रसूखदारों के रहमोकरम पर जीना, उनकी ठोकरों को प्रसाद समझना, चुपचाप जुल्मोसितम सहना ही गरीबों, वंचितों व मजबूरों की नियति रही है, आज भी है और भविष्य में भी रहेगी। इस अँधेरी रात की कोई सुबह नहीं......सुना आपने जज साहब ! इस अँधेरी रात की कोई सुबह नहीं ....! हा ..हा ...हा !" और एकबार फिर गोपाल का ठहाका गूँज उठा अदालत कक्ष में !


जज साहब के चेहरे पर बेबसी के भाव उभरे और कुर्सी से उठकर अदालत कल तक के लिए मुल्तवी करने की घोषणा कर अपने चैम्बर में चले गए।