तेरी मेरी कहानी है - अतुल प्रभा राजीव तनेजा द्वारा पुस्तक समीक्षाएं में हिंदी पीडीएफ

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तेरी मेरी कहानी है - अतुल प्रभा


वैश्विक महामारी कोरोना के आने के बाद मेरे ख्याल से दुनिया का एक भी शख्स ऐसा नहीं होगा जो इससे किसी ना किसी रूप में प्रभावित ना हुआ हो। सैनिटाइज़र, मास्क के अतिरिक्त हाइजीन को ले कर तरह तरह की सावधानियां तो खैर सभी ने अपनी अपनी समझ के हिसाब से अपनाई ही। इसके अलावा अगर ज़रूरी खानपान और मेडिकल से जुड़े व्यवसायों को छोड़ दें तो लॉक डाउन और इसके बाद उत्पन्न हुई परिस्थितियों की वजह से बाकी सभी के रोज़गार अथवा कामधंधों पर इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ा और बहुतों के धंधे तो बिल्कुल ठप्प हो गए या होने की कगार पर पहुँच गए। इस महामारी की वजह से पूरी दुनियां में लाखों लोगों ने अपनो जान गंवाई तो बेहतर इम्युनिटी, अच्छी किस्मत एवं उपलब्ध डॉक्टरी सुविधाओं के ज़रिए लाखों लोग अस्पताल से ठीक हो कर भी बाहर निकले।

दोस्तों..आज मैं इसी कोरोना काल से जुड़ी एक दिल को छू लेने वाली कहानी से आपको रूबरू करवाने जा रहा हूँ जिसे 'तेरी मेरी कहानी है' के नाम से लिखा है अतुल शर्मा 'प्रभा' ने। आत्मकथा शैली में शुरू हुई यह कहानी कभी फ़्लैशबैक के ज़रिए तो कभी वर्तमान में चलती हुई कोरोना की वजह से हुए देशव्यापी लॉक डाउन के बीच फँस चुके लेखक, उसकी पत्नी प्रभा, माँ और बच्चों की बात करती है कि किस तरह उनके हँसते खेलते परिवार के सभी सदस्य एक के बाद एक कर के कोविड 19 के शिकार हुए और उसके बाद उनका जीवन पूरी तरह बदल गया।

इस कहानी में कहीं पहली नज़र का प्रेम थोड़ी पारिवारिक नानुकुर के बाद विवाह की परवान चढ़ता दिखाई देता है। तो कहीं इसमें विवाह के बाद सास बहू के बीच आपसी समझ, स्नेह और प्यार के माहौल में पनपती दिखाई देती है। कहीं इसमें मध्यमवर्गीय परिवारों के संघर्ष से जुड़ी बातें पढ़ने को मिलती हैं तो कहीं इसमें विनम्रता, सरलता और सेवाभाव की प्रतिमूर्ति, प्रभा के घर में आने के बाद से घर में आयी खुशहाली का जिक्र होता दिखाई देता है।

यह किताब एक तरफ़ जहाँ लेखक और उसके परिवार के बाकी सदस्यों के बीच के आपसी स्नेह, प्रेम, समझ, विश्वास और आपसी लगाव की बातें करती है। तो वहीं दूसरी तरफ़ लेखक के उस कंजूस बड़े भाई की बात भी करती है जो कपट..लंपटता और ढीठता के बल पर सबका सांझा मकान हड़पने की फ़िराक में दिखाई देता है।

डायरीनुमा शैली में लिखी गयी यह कहानी कहीं कोरोना की विभीषिका और उसकी वजह से सबकी जीवनशैली में आए विभिन्न बदलावों जैसे सोशल डिस्टेंसिंग और सैनिटाइज़ेशन की बात करती दिखाई देती है। तो कहीं इसी वजह से डॉक्टरों..केमिस्टों और पैथलैब वालों की चाँदी कटती भी दिखाई देती है। कहीं इसमें कोरोना की भयावहता के बीच तमाम तरह की दुश्वारियों..तकलीफ़ों.. दिक्कतों से जूझता मध्यमवर्गीय परिवार दिखाई देता है। तो इसी किताब में कहीं सुनसान गलियों, मोहल्लों और हर तरह की दिक्कत के बीच परिवार के परिवार एक के बाद एक इस खतरनाक बीमारी की चपेट में आते दिखाई देते हैं।

कहीं कोरोना काल में बाज़ारों में ऑक्सीज़न सिलेंडरों की किल्लत और ज़रूरी दवाओं की होती कालाबाज़ारी का जिक्र पढ़ने को मिलता है। कहीं आशा और निराशा के भँवर में डूबी आम जनता इन सब वजहों से त्राहिमाम..त्राहिमाम करती दिखाई देती है।

कहीं सनातनधर्मीय कर्मकांडों का तार्किक ढंग से खंडन करता लेखक दिखाई देता है। तो कहीं वह अंत मे खुद ही हर तरफ़ से निराश हो..ज्योतिषियों..पंडितों की शरण में जाता एवं उनके निर्देशानुसार सभी कर्मकांडों को श्रद्धापूर्वक पूरा करता दिखाई देता है।

बेतरतीब पन्नों में धीमी रफ़्तार से चलती हुई ये कहानी कभी उत्सुकता जगाती..कभी रोमांचित करती तो कभी गुदगुदाती हुई अंत तक पहुँचते पहुँचते बहुत कुछ सोचने को मजबूर कर देती है। इस सीधी..सरल कहानी में कुछ जगहों पर वर्तनी की त्रुटियों के अतिरिक्त बहुत जगहों पर लेखक मूल कहानी से भटक कर खामख्वाह में इधर उधर की बुद्धिजीविता भरी ग़ैरज़रूरी बातें भरता दिखाई दिया। जिनसे बचा जाना चाहिए था।

अंत में चलते चलते एक ज़रूरी बात कि अपने शुरुआती लेखन के दौरान मैं छोटे छोटे वाक्यों को अलग अलग पंक्तियों में लिख कर अपनी कहानी को खामख्वाह में बड़ा करने अर्थात अधिक पेज भरने का प्रयास करता था। ऐसी ही कुछ कमी मुझे इस किताब में भी दिखाई दी। छोटे छोटे संवादों को अलग अलग पंक्ति में लिख कर किताब की मोटाई बढ़ाने के बजाय अगर उन्हें एकसाथ दिया जाता तो कहानी और ज़्यादा प्रभावित करती।

पाठकीय नज़रिए से अगर देखूँ सीधी..सरल भाषा में लिखी गयी यह कहानी मुझे शिल्प और तारतम्यता के मोर्चे पर हालांकि थोड़ी कच्ची लगी लेकिन लेखक का लेखकीय कौशल भविष्य में उनकी कलम से और बेहतर एवं परिपक्व कहानियों की उम्मीद जगाता दिखाई देता है।

वैसे तो यह किताब मुझे लेखक की तरफ़ से उपहारस्वरूप मिली मगर अपने पाठकों की जानकारी के लिए मैं बताना चाहूँगा कि बढ़िया क्वालिटी में छपी इस 190 पृष्ठीय किताब के पेपरबैक संस्करण को छापा है नोशन प्रैस ने और इसका मूल्य रखा गया है 230/- रुपए जो कि कंटेंट को देखते हुए मुझे थोड़ा ज़्यादा लगा। आने वाले उज्ज्वल भविष्य के लिए लेखक एवं प्रकाशक को बहुत बहुत शुभकामनाएं।