बसंती की बसंत पंचमी - 4 Prabodh Kumar Govil द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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बसंती की बसंत पंचमी - 4

श्रीमती कुनकुनवाला को बेटे जॉन की मेज़ पर रखे लैपटॉप पर दिखती तस्वीर में ये तो दिखाई दे गया कि उनका बेटा ढेर सारी लड़कियों से घिरा बैठा है पर वो ये नहीं जान पाईं कि बेटा एक साथ अपनी इतनी फ्रेंड्स को क्या सिखा रहा है। क्या ये लोग कहीं घूमने जाने का प्लान बना रहे हैं?
वो अभी कुछ सोच पाने की उधेड़ बुन में ही थीं कि एकाएक उनके मोबाइल की घंटी बजी। उन्होंने झपट कर फ़ोन उठाया तो उधर से श्रीमती वीर की बेहद चहकती हुई आवाज़ आई।
वो थोड़ा हैरान हुईं। क्योंकि पिछले कुछ दिनों से उनकी कोई सहेली ख़ुशी से चहक कर फ़ोन करना तो भूल ही गई थी। सब अपनी अपनी समस्या का रोना रोते हुए ही फ़ोन कर रही थीं कि "बाई काम छोड़ गई"! आज आख़िर ऐसी कौन सी ऐसी बात हो गई जो श्रीमती वीर अपनी बाई का दुखड़ा भुला कर इतनी ख़ुश लग रही हैं?
लेकिन उधर से मिसेज़ वीर की बात सुनते ही श्रीमती कुनकुनवाला को उनसे जलन सी हुई। फ़िर भी ईर्ष्या को छिपाते हुए बोलीं- अच्छा, ये तो बहुत अच्छा हुआ? कौन है, कहां की है, अगर उसके पास समय हो तो यहां भी भेज दो न! उन्होंने सवालों की झड़ी लगा दी।
श्रीमती वीर को नई बाई मिल गई थी। वो शान से बता रही थीं कि बहुत होशियार है। पता है, स्कूटी से आती है। काम भी बढ़िया ही कर रही है। ... अरे नहीं नहीं, ये तुम्हारे यहां नहीं आ पाएगी। कह रही है कि समय नहीं है तभी तो स्कूटी लाती है।
कुनकुनवाला बोलीं- अच्छा रखती हूं... लेकिन तभी श्रीमती वीर बोल पड़ीं- पता है आज से आज़ाद मैदान में वो वाली सेल...
श्रीमती कुनकुनवाला ने खीज कर बात बीच में ही काट दी। बोलीं, ओहो, अभी सारा काम पड़ा है, मरने तक की फुरसत नहीं है, अभी सेल किसे सूझेगी?
श्रीमतीवीर मायूस हो गईं। लेकिन फ़िर भी फ़ोन रखते रखते उन्होंने बारह तेरह मिनट और ले ही लिए। अपनी नई बाई का स्वभाव और उसके नैन नक्श के बारे में अपनी सहेली को नहीं बतातीं तो आख़िर किसे बतातीं?

हद हो गई। श्रीमती कुनकुनवाला को इसमें कोई षडयंत्र सा दिखाई दे रहा था। ऐसा कैसे हो सकता है कि एक एक करके उनकी सारी सहेलियों को बाई मिलती जा रही है, और उन्हें लाख खोजने पर भी अभी तक कोई काम वाली नहीं मिली थी।
जब भी उनकी मित्र मंडली की कोई सदस्य फ़ोन करके उन्हें बताती कि उसे एक नई बाई काम करने वाली मिल गई है तो वो ख़ुश होने के बदले अपनी सहेली पर ही गुस्सा हो जाती थीं। मानो सहेली ने कहीं से उनकी बाई को बहला- फुसलाकर या कोई लालच देकर उनसे छीन लिया हो।
वो कई बार पति से कह चुकी थीं, कई बार पड़ोसी लोगों से चिरौरी कर चुकी थीं। और तो और, वो अपने बेटों तक से अनुनय विनय करतीं कि कोई काम वाली या फ़िर काम करने वाला लड़का ही ढूंढ लाएं। पर घरेलू नौकर क्या बाज़ार में बिकते हैं या मंडी में मिलते हैं जो वो पकड़ लाएं?
बेटों से ऐसे जवाब सुनकर श्रीमती कुनकुनवाला खीज कर रह जाती थीं।
कितने ही दिन हो गए थे उन्हें अपने हाथ से बर्तन रगड़ते और झाड़ू पौंछा करते हुए। वो तो अब भूल ही गई थीं कि कभी उनके आदेश निर्देश पर नाचने वाली महरी उनके पास थी। केवल जबान हिलाने की देर थी कि उनके सब काम पलक झपकते ही हो जाते थे और उनका पूरा ध्यान सहेलियों से फ़ोन पर घंटों गप्पें लड़ाने का ही था।
अब तो ऐसा लगने लगा था मानो वो खुद बिना वेतन की कोई नौकरानी हैं जिन पर इतने सारे लोगों के काम करने की ज़िम्मेदारी है। उन्होंने फ़ोन को तो एक तरह से उठा कर ही रख दिया था कि कहीं उनकी बाई वान सहेलियां उन्हें अपनी अपनी काम वालियों के किस्से सुना कर जलील न करें।
फ़ोन की घंटी बजती और...