स्त्री’ का ‘प्रकृति’ होना
राहुल शर्मा
स्त्री और प्रकृति एक दूसरे के पूरक है। इनका सामंजस्य ठीक वैसा ही है जैसा ‘पुस्तक ‘और ‘लेखक’ का, ‘कैनवास’ और ‘चित्रकार’ का । एक लेखक या चित्रकार कल्पनाशीलता के माध्यम से यथार्थ को उभारता है। एक ऐसा ही अनुभव रंजना जायसवाल के कविता संग्रह ‘स्त्री है प्रकृति’ को पढने के दौरान होता है। चौरासी कविताओं से सुसज्जित यह संग्रह ‘संघर्ष के यथार्थ’ को चरितार्थ करता है। कवयित्री का अनुभव, ‘पका हुआ अनुभव’ है। शायद यही वजह है कि संग्रह की कविताएं संघर्ष और उसमें आए बदलावों के सूक्ष्म अध्ययन का परिणाम जान पड़ती हैं। इस संग्रह में प्रकृति के उपादानों के साथ-साथ उन त्यौहारों का भी वर्णन है जिनका स्त्री अस्मिता से गहरा संबंध है। एक तरह से यह संग्रह ‘अस्तित्व का अस्तित्व में विलयन’ है जो आवश्यक है पर अनुत्तरित है।
‘स्त्री है प्रकृति’ अर्थात ‘स्त्री और प्रकृति’ का सामंजस्य ‘अधिकारों के हनन’ के इस दौर की चुनौतियों को पूरी तरह से दर्शाता है और उसके विरूद्ध खड़ा नज़र आता है। आज ‘स्त्री’ और ‘प्रकृति’ की हालत लगभग एक सी है। दोनों ‘विकास’ की शिकार हैं। एक को उसके सभी अधिकारों से लैस कर दिया गया है पर हालात में कोई बदलाव नहीं आया है और ‘प्रकृति’ की हालत भी वही है। विकास की आंधी ने कांक्रीट के जिन जंगलों को उगाने की ज़मीन तैयार की है उसमें उसके कायाकल्प के बहाने उसका दोहन ही नज़र आता है। अर्थात इसके केंद्र में एक अस्तित्वाद है। रामविलास शर्मा की एक बात याद आती है कि मनुष्य को अपने जीवन का उद्देश्य स्वयं निश्चित करना चाहिये तभी उसका जीवन सार्थक हो सकता है और बाहरी संसार की निरर्थकता को अर्थ प्रदान कर सकता है। पुस्तक का आवरण चित्र इस बात को प्रमाणित करता है। एक स्त्री का गर्व से उठा माथा इस बात की पुष्टि करता है।
संग्रह की पहली कविता ‘कर्म’ में यही अस्तित्ववादी दर्शन है। ‘फल’ और ‘पेड़’ दोनों हमारा ध्यान खींचते हैं जिनकी परिणति विद्रोहात्मक है। अपनी-अपनी वस्तविकता से दोनों वाकिफ़ हैं। इस कविता पर थोड़ा और गौर करें तो हम पाएंगे कि यह कविता एक स्त्री के जीवन का आख्यान है –
पकते ही/ टपकने लगते हैं फल/ छोड़कर पेड़ का मोह/ पेड़ भी नहीं दिखाता/ उन पर कोई छोह/ जानते हैं दोनों/ जीवन है विद्रोह ।
‘आज़ादी का सुख’ कविता के केंद्र में एक कहानी है ‘घूरे’ और ‘गमले’ के फूल की। कविता में ‘घूरे’ की प्रतीकात्मकता का प्रयोग स्त्री जीवन में आज़ादी के सुख को दर्शाने के लिए हुआ है जो आज भी उसके लिए एक सपना है। यह तुलनात्मकता कहीं न कहीं स्त्री जीवन की उस सच्चाई को भी दर्शाती है जिसकी चाह ‘गमले के फूल’ जैसी है जो अपनी नियति को जानकर उदास है। यह कविता एक तरह से कवयित्री की गहन अंतर्दृष्टि को भी दर्शाती है जो घूरे और गमले के फूलों में ‘स्त्री की चाह’ देखती हैं -
पूरी ज़िन्दगी जीनी है उन्हें/ कमरे की शोभा बनकर/ वे सपने में भी नहीं सोच सकते/ धूप हवा बारिश में भींगने/ खुलकर जीने/ और अपनी आज़ादी के बारे में/ इसलिए उदास हैं /कुछ गमले के फूल।
‘आज सुबह की बारिश को देखकर’ कविता में एक मीठी चुहल है सूर्य और मेघों के संघर्ष की। कविता में जिस चित्रात्मकता के दर्शन होते हैं वह कवयित्री और प्रकृति के मधुर संबंधों को दर्शाते हैं। इस कविता को ‘उम्मीद की कविता’ भी कह सकते हैं वह इस अर्थ में कि वर्तमान की स्थिति दिन प्रतिदिन भयावह होती जा रही है। ज़िन्दगी के सुखों को दु:ख कब अपनी चपेट में ले ले रहा है यह कहा नहीं जा सकता, कवयित्री को इस सत्य की अनुभूति है। इसलिए वह विपरीत परिस्थितियों में किसी के साथ के मिलने की उम्मीद रखती है –
भाग रहे थे इत-उत पशु-पक्षी कीट/ काँपने लगी थर-थर लगभग सारी सृष्टि/ जबकि कुछ देर ही हुई थी आतंकी वृष्टि/ उनचास पवनों की फौज ने/ दिया जब सूरज का साथ/ भाग गए आतंकी उखड़ गए उनके पाँव/ सूरज अपनी जीत पर मुस्कुराया/ आकाश में सुख का इंद्रधनुष तन आया।
परम्परा, प्रकृति और स्त्री के संबंधों को दर्शाती कविता है ‘हरितालिका तीज’। इस कविता में दो दृश्य हैं। प्रथम दृश्य में तीज, जो भारतीय परम्परा और संस्कृति का अभिन्न हिस्सा है। जिसमें नवविवाहित स्त्री के घर उसके मायके से साड़ी, हरी चूड़ियाँ, फल, अनरसा जैसी चीजें भेजी जाती हैं। ऐसा जान पड़ता है मानों पूरी पृथ्वी खुशी से झूमते हुए मेंहदी रचकर, झूला झूलते हुए कजरी गा रही हो। लेकिन इस कविता का दूसरा दृश्य ट्रैजिक है और महत्वपूर्ण भी। 21वीं सदी में जीते हुए भी आज एक स्त्री अपने निर्णय लेने के लिए स्वछंद नहीं है। आज भी उसे इस पुरूष सत्तात्मक समाज के आगे अग्नि परीक्षा देनी पड़ती है। तभी तो इस कविता में ‘एक बहन के रेगिस्तान होने’ की त्रासदी है –
छोटी ने किया था प्रेम-विवाह/ बहिष्कृत होकर सबसे रेत-रेत हो गयी/ भुगत रही हैं खमियाज़ा आज भी/ उसकी संतानें।
स्त्री जिजीविषा को दबाने वाली पुरूष सत्तात्मक मानसिकता पर करारा प्रहार करती कविता है ‘बोनसाई’। ‘बोनसाई’ पर यदि अलग-अलग दृष्टि डाली जाए तो एक ओर यह स्त्री की उन आकांक्षाओं का प्रतीक है जिसकी चाहत हर स्त्री को होती है तो दूसरी ओर सिकुड़ती जा रही प्रकृति है जिनका सामंजस्य करते हुए कवयित्री ने स्त्री विमर्श पर नए ढंग से विचार किया है। मनुष्य की अदम्य लालसा और शौकीनियत ने उसे इतना आलसी बना दिया है कि वह कम में सब कुछ हासिल कर लेने का आदि हो चुका है। यही से शुरुआत होती है दमन की, शोषण की –
मीठे पानी की तलाश में/ कमरे में हरियाली कैद करने की/ तुम्हारी लालसा ने/ बनाया मुझे बोनसाई।
मनुष्य के ‘कम में सब कुछ हासिल करने’ की इसी प्रवृति का परिणाम है ‘प्रकृति स्त्री है’ कविता। मानव और प्रकृति के संबंध को दर्शाती इस कविता की ‘चित्रात्मक जिज्ञासा’ ही इस कविता का सार है जो ‘मनुष्य की कल्पना’ को ‘प्रकृति की कल्पना’ के आगे बौना सिद्ध करती है। ‘प्रकृति’ और ‘स्त्री’ हमेशा से ही शोषण के शिकार हुए हैं। इसलिए यह कविता एक ‘तड़प’ की कविता है जिसमें एक स्त्री को प्रकृति में एक स्त्री ही नज़र आती है। कविता के कैनवास पर प्रकृति का जो स्त्री रूप उकेरा गया है वह वास्तव में रचनात्मक है, जिसे गहरे अनुभूत किया गया है –
जानती हूँ तुम स्त्री हो/ इसलिए ऐसी हो/ और इसलिए तुम्हें नष्ट करने की/ की जा रही हैं कोशिशें/ भुलाकर इस बात को/ कि वे भस्मासुर तुम्हारी ही कल्पना हैं/तुमसे ही है उनका अस्तित्व।
नई और पुरानी पीढी के द्वंद्व को दर्शाती कविता है ‘आलूवाद’। ‘पीढीगत अंतराल’ पर यह कविता एक तरह से तंज करती है। यह तंज भावात्मक है जो बाज़ार की चपेट में आ चुकी मानसिकता पर प्रहार करती है। यह मानसिकता इतनी भयावह है कि इसमें ‘यथार्थ के प्रति एक तरह का नकार’ देखने को मिलता है। तभी तो ‘सब कुछ चुकते जाने का एहसास/ उन पर इतना भारी है कि भूल गए हैं/ कि ‘नए’ पराए नहीं उनके ही अपने हैं’ और ‘भूल गए हैं ‘नए’ भी कि वे/ बूढी आँखों के ही युवा सपने हैं’ इन पंक्तियों में पीढीगत अंतराल के दंश को महसूसा जा सकता है। उपभोक्तावाद ने मनुष्य को इतना आत्मकेंद्रिक बना दिया है कि संबंधों में एक यांत्रिकता आ गई है।
‘अग्नि-वर्षा’ कविता के केन्द्र में किसान है। इस कविता के शीर्षक से बात शुरू की जाए तो इसमें ‘अग्नि’ और ‘वर्षा’ दो विपरीत चरित्र वाले प्राकृतिक तत्व हैं लेकिन कवयित्री ने दोनों को मिलाकर एक नया प्रतीक निर्मित किया है। यह प्रतीक दु:ख को अभिव्यक्त करता है। यह बहुत बड़ी विडम्बना रही है कि अपने यहाँ सबका पेट भरने वाला स्वयं भूखा रहता है चाहे वह परिवार हो या किसान। यह एक तरह से इनकी नियति है –
आकाश ने/ यह कैसा जल बरसाया/ कि खेतों में खड़े/ गेहूँ जल गए/ काला पड़ गया/ उनका सुनहरा रंग/…………गेहूँ की सुनहरी आभा से/ चमकते किसानों के/ चेहरे स्याह पड़ गए।
‘गेहूँ की सुनहरी आभा का काला पड़ना’ और ‘सुनहरी आभा से किसान के चेहरे का स्याह पड़ना’ जीवन-आधार के छिन जाने के दर्द को दर्शाते हैं।
‘ज़िन्दगी की चैत में’ कविता ‘हरी मटर के प्रौढ’ होने और उसकी महत्त्ता को प्रतिपादित करती कविता है। हिन्दू कैलेन्डर का पहला महीना है चैत। एक तरह से देखा जाए तो यहाँ ज़िन्दगी की उत्तरावस्था का चित्रण है। यह कविता एक जिज्ञासा उत्पन्न करती है कि क्या जीवन अपनी उत्तरावस्था में अर्थ विहीन हो जाता है? आखिर वे कौन से कारण हैं कि इस अवस्था में सभी प्रिय साथ छोड़ने लगते हैं? इन प्रश्नों पर यह कविता सोचवाती है? एक तरह से यह कविता वृद्ध विमर्श को हमारे सामने लेकर आती है। जिनकी नियति बद से बदतर (वर्तमान के संदर्भ में) होने के बावजूद भी उस बात की याद दिलाती है जिसमें घर में एक वृद्ध की उपस्थिति के महत्व को बतलाया जाता रहा है। कविता के मटर की स्थिति भी ऐसी ही है जिसे मिट्टी कुछ यूँ समझाती है –
पगली क्यों हो रही यूँ हलकान/ सूखने पर भी नहीं खत्म होगा/ तुम्हारा मान-सम्मान/ रस भले न रहे तुममें/ बचा रहेगा रूप और स्वाद/ भींगकर घुघनी-छोले/ भूनकर चबैना-सत्तू/ दलकर दाल का रूप लोगी तुम/ यहाँ तक कि तुम्हीं से होगी/ नई हरी मटरों की फसल तैयार।
सबसे लंबी कविता ‘सेमल’ चौंतीस खंडों में विभाजित है जो संग्रह को विस्तार देती है। सेमल जीवन का पर्याय है और वह कविता में कई भूमिकाओं में है। इस कविता में सेमल को रक्ताभ बनाता फल्गुन है, सेमल के बहाने धरती द्वारा आकाश को छूने की कोशिश है, बसंत की उम्मीदें हैं, पवन से बेटियों को सही सलामत ससुराल पहुँचने की प्रार्थना है, पिता का एक आदर्श रूप है, जीवन जीने की कला जानने वाला तपस्वी है, उसकी संघर्षशीलता है, पीढीगत अंतराल को पाटने की कोशिशें है, सेमल के सूखे ज़ख्म हैं, पारिवारिक दायित्व बोध है, सेमल के शर्म को दर्शाते फूल है, प्रकृति और सेमल से मनुष्य का द्वंद्व है, उसकी उपयोगिता, संवेदनशीलता, मातृ हृदयता के साथ विपरीत परिस्थितियों से लड़ने का गाँधीवादी तरीका है तथा सेमल की उदारता, मकरंदविहीन फूलों की उदासी और उनकी नियति है। यह एक प्रकार से ‘महत्वपूर्ण महत्वहीनता’ को दर्शाती कविता है जो जीवन के प्रति एक सकारात्मकता को जन्म देती है -
प्रकृति किसी को अकेला नहीं छोड़ती/ ना ही करती है नाउम्मीद/ सेमल को देखकर लगता है।
बरगलायी जाती स्त्री के दर्द का चित्रण ‘फूल नहीं जानता’ कविता में देखने को मिलता है। ‘शिशिर’ कविता में ‘शिशिर’ विछोह का प्रतीक है तो ‘पौधा’ शीर्षक कविता ‘त्याज्यता के दर्द’ दर्शाती कविता है और उस दर्द से उबरने की कोशिश भी इस कविता में दिखाई पड़ती है –
तो क्या अपने एक भी बीज को/ जाया नहीं होने देते पौधे/ हरीतिमा बचाने की चाह में/ उसे हथियार बना लेते हैं।
पूंजीवादी सभ्यता द्वारा प्रकृति के किए जाने वाले दोहन को दर्शाती कविता है ‘बांदीपुर के जंगल’। इस कविता में दो चित्र हैं पहले में ‘हरी-भरी प्रकृति और वन्य पशु-पक्षियों से भरा जंगल हैं’ तो दूसरे में ‘किसी योजना के तहत नष्ट किए जा रहे जंगल हैं’। एक तरह से यह कविता ‘ज़मीन से बेदखल होने के दु:ख’ को अभिव्यक्त करती है –
पशु-पक्षी या तो चिड़ियाघरों में कैद किए जाएंगे/ या फिर शहरों की ओर भागेंगे……कोई नहीं समझ पाएगा/ अपनी ज़मीन से बेदखल होने का दु:ख ।
मधु, बचपन का गाँव, जीने की चाह, बारिश, पवन, हद आदि कविताएँ संग्रह की अन्य कविताएँ हैं जो कवयित्री के प्रेम के दायरे में आने वाली पूरी कायनात को दर्शाती हैं। भाषा के स्तर पर भी संग्रह का कोष समृद्ध है।
कुल मिलाकर इतना ही कि स्त्री सचमुच प्रकृति है और प्रकृति स्त्री।
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पुस्तक – स्त्री है प्रकृति
कवयित्री – रंजना जायसवाल
प्रकाशक – बोधि प्रकाशन
मूल्य – 150 रुपये