Book Review Writing contest Ranjana Jaiswal द्वारा पुस्तक समीक्षाएं में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

Book Review Writing contest

संवाद करती परछाइयाँ –बालेश्वर सिंह
रंजना जायसवाल के कविता –संग्रह ;मछलियाँ देखती हैं सपने की समीक्षा

रंजना जायसवाल के प्रथम काव्य –संग्रह के बारे में परमानंद श्रीवास्तव ने फ्लैप पर लिखा है कि-संभव है कि उसमें एक तरह का कच्चापन और अनगढ़पन लगे .....|वे एक बड़े आलोचक हैं और उनकी दृष्टि बड़ी पैनी है |उन्होंने संकलन की कविताओं की खुलकर प्रशंसा की है |ठीक ही की है |कागज पर लिखने भर का नहीं वास्तविक दुनिया से जिरह करने ,पूछने ,उलझने का साहस |’उनके द्वारा प्रयुक्त 'उलझने' शब्द बहुत महत्वपूर्ण है |उसमें जो व्यापकता है वह शायद टकराहट शब्द से ध्वनित नहीं होती |फिर भी मुझे लगता है कि परिपक्वता और सुगढ़पन की तरह कच्चापन और अनगढ़पन भी जीवन के रंग हैं |जैसे –जैसे आदमी सभ्य होता जाता है। परिपक्वता आती रहती है और अनगढ़पन घटता जाता है |कविता के साथ भी यही बात है |हर उम्र में तीखा –सा रंदा चलता रहता है |प्रश्न यह है कि सभ्यता किसी व्यक्ति का कितना शिष्टाचारी और कितना आदर्श बनाती है |रंजना की कविताओं से गुजरते हुए मुझे लगा कि वे आदमी हैं और एक कुंभकार की तरह मूर्तियाँ गढ़ रही हैं |मेरे जैसा पाठक तो कदाचित यही चाहेगा कि थोड़ा अनगढ़पन बचा रहे और छिपी हुई सुंदरता का उत्सव मनाता रहे |वर्तमान यथार्थ इतना जटिल हो गया है जिसे विश्लेषित करने के लिए जटिलता के साथ –साथ सहजता भी जरूरी है |जटिलता बनाम सहजता का विमर्श अभी खत्म नहीं हुआ है |
ठीक उसी फ्लैप पर परमा बाबू के नीचे सदानन्द साही ने लिखा है –‘रंजना जायसवाल की कविताएं स्त्री-मन की कविताएं हैं –एक स्वतंत्र स्त्री मन की कविताएं |स्त्री मन उत्सुकता और कुतूहल जगाता है जबकि स्वतंत्र स्त्री मन अनेक प्रश्नों और आशंकाओं को जन्म देता है |
’सही बात है |फिर भी ,मेरी समझ में स्त्री मन और स्वतंत्र स्त्री मन बड़े टेढ़े प्रसंग हैं |उन्हें यूं लेना आसान नहीं है |सुना था कि मेरी स्टोपस ने शायद wise parenthood किताब लिखने से पहले साठ-सत्तर देशी-विदेशी पुरूषों से संबंध स्थापित किया था |किया होगा !तन के साथ मन भी रहा होगा |पुरूष ऐसा नहीं करता |अगर करता है तो आदम नहीं पशु है |स्त्री मन एक सिंधु है |वहाँ सब कुछ है –पानी ,बालू,तरंगें और मोती इत्यादि |सिर्फ पैठने की जरूरत है |जहां स्वतंत्र स्त्री मन वर्जनाओं से टकराता है वहीं निराले बंधन में बंधने की उदात्तता में मुक्ति का अनुभव करता है |केदारनाथ सिंह की एक कविता है—'जो एक स्त्री को जानता है |' वे लिखते-लिखते कह डालते हैं –
चौंको मत इसमें कोई अजूबा नहीं है
जो एक स्त्री को जानता है
उसके लिए कुछ भी-कुछ भी अजूबा नहीं है |'
मुझे लगता है यह कविता अपने आप में एक एपिक है |संकलन की कविता ‘क्योंकि यहाँ तुम रहते हो’ से मेरी समझदारी को भी समर्थन का कुछ आभास मिल ही जाता है |
जायसवाल जी की प्रकृतिऔर परिवेश से हार्दिक अंतरंगता है |'चिड़िया' पर उनकी अनेक कविताएं हैं |वे उन्हीं की भाषा में उन्हीं की बातों से अपनी बात कह डालती हैं |अर्थात वे उनके दुख-सुख ,राग-विराग का हिस्सेदार बनती हैं |यह उनकी संवेदना की गहरी विशेषता है |'चिड़िया उदास है ' कवितामें उपेक्षितों-वंचितों के प्रति गहरी चिंता व्यक्त की गयी है-
चिड़िया
उदास है
उसे सुबह अच्छी लगती है
पर देख रही है वह
धरती के किसी कोने पर
नहीं हो रही है
सुबह |
उसी प्रकार आज के वर्तमान सामाजिक जीवन,अर्थात विश्व-ग्राम की विडम्बना पर चिड़िया के मार्फत व्यंग्य किया गया है |'चिड़िया तुम '–कविता की अंतिम पंक्तियाँ हैं –‘चिड़िया / आजकल तुम/ चिड़े से/ वैसे ही/ गुपचुप बतियाती दिखती हो/ जैसे गाँव के घर में/ बतियाती हैं बूढ़ी दादी/ दादा से |’
यह दृश्य अब शहरों –कस्बों में गांवों से कहीं ज्यादा देखने को मिलता है |'बौना' कविता भी तथाकथित संभ्रांत जीवन-शैली पर कटाक्ष है |सच पूछिए तो आज के जटिल यथार्थ को व्यंग्य ही धारदार रूप से उकेरता है –
'चलना पड़ता
घुटनों के बल
रेंगना पड़ता
कुहनियों पर
होना पड़ता है बौना
उस ऊंचाई पर पहुँचने के लिए
जहां से दिखते हैं
सब बौने ...|’
‘मेरे गाँव में आज भी' जड़ों से सिंचित –पुष्पित लोकधरमी कविता है |ऊंची उड़ानें और पाताल से बात करने वाली रंजना जी गाँव को नहीं भूल पाई हैं |वहाँ मौजूद वास्तविकता से उनका संवाद चलता रहता है |इस कविता को पढ़ते हुए त्रिलोचन अचानक आकर खड़े हो जाते हैं –मैं उस जनपद का कवि हूँ |
रंजना जी हमें बतला रही हैं –मेरे गाँव /आज भी .....बूढ़ी सधवाओं की / बड़ी सुर्ख टिकुली से शर्मा जाता है चाँद / नव-बधुओं के चेहरे की डिप्टी से /फीकी पड़ जाती है बिजली / बाबा की लाठी की फटकार से/ मुंह अंधेरे ही भाग जाता है आलस/ ....और नाराज होकर निकली दादी / चूजों को दाना खिलाती /मुगी को देखकर लौट आती है घर /खोइछे में मुढ़ी और बताशे लेकर |
स्त्री की शक्ति ,नियति अथवा समझौता जो भी संज्ञा दी जाए ‘प्रत्यारोपण’कविता में बड़े ही कलात्मक ढंग से व्यक्त हुई है ।उसमें अंतर्निहित टीस प्राण फूँकती है –
स्त्री
धान का बिजड़ा
एक खेत से उखाड़कर
रोप दी जाती है
दूसरे में
यह सोचकर
कि जमा ही लेगी
अपनी जड़ें |
प्राकृतिक दृश्यों को वैयक्तिक और सामाजिक उत्सवों से जोड़ने की कला कोई रंजना से सीखे |’दुल्हन बरसात’ कविता में उत्कंठा के स्वर मन मोह लेते हैं –
झींगुर बजा रहे हैं
शहनाई....बूंदें नाच-गा रही हैं
मेढक चीख-चीखकर बता रहे हैं सबको
लौट आई है
सावन भैया की बारात
लेकर दूलहन बरसात |
संकलन में प्रेम पर भी कुछ कविताएं हैं |प्रेम में असली चीज अनुभूति होती है जो जानवरों से विलगाती है |प्रेम सब करते हैं |कविता में उसकी अभिव्यक्ति जरा कठिन काम है |आप की ,मेरी और सबकी अनुभूति को जो समेट ले ,वही सफल कविता है |एक ऐसी ही कविता है ‘प्रेम खत्म नहीं होता ‘
प्रेम /खत्म नहीं होता /कभी .../दुख उदासी / थकान/ अकेलेपन को थोड़ा और बढ़ाकर जिंदा रहता है |’आज के परिवेश में भी प्रेम पर कविता लिखने में कवयित्री में हिचक के बजाय सहजता है |कहीं कुछ भी अन्यथा नहीं |सच कहिए तो उनकी कविताएं पढ़कर परिवेश छती पीटने लगता है –हाय,मैं इतना गिर गया हूँ |
संकलन में अपेक्षाकृत दो-तीन बड़ी कविताएं हैं |उनमें संवेदना से अधिक विवरण है |रंजना की छोटी-छोटी कविताएं पढ़ने पर ऐसा अहसास होता है कि आदमी चाहे तो जीवन की गंभीर बातें संकेतों में कह सकता है |जरा में विराट की झलक छोटी-छोटी कविताओं की विशेषता है |अच्छा होता ‘कैसे बना जाता है घोडा ‘कविता से ‘और सीख लो कैसे बना जाता है घोडा ' पंक्तियों को हटा दिया जाता|कथ्य से उनका संगत नहीं बैठता |साथ ही ‘तुम्हारा भय’ कविता से 'आडंबर' शब्द और अंतिम दो पंक्तियाँ हटा दी जातीं तो कविता और संश्लिष्ट हो जाती |
---डा रंजना जायसवाल –मछलियाँ देखती हैं सपने
प्रकाशक-लोकायत प्रकाशन ,11,जयनगर ,गैलेट बाजार ,वारणसी
मूल्य–पेपर बैक-60,सजिल्द-120