मेरी प्रिय लघुकथाएं Krishna manu द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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मेरी प्रिय लघुकथाएं

तालीम


पुलिस इन्स्पेक्टर जरूरी काम निपटाकर उठने ही वाला था कि एक आदमी सहमा-सकुचाया उसके टेबल के पास आकर खड़ा हो गया।

-' क्या बात है?' पुलिस इंस्पेक्टर ने सामने की कुर्सी की ओर इशारा किया। उस आदमी के बैठने के बाद उसने फिर पूछा- क्या बात है? तफ्सील से बताइये। '

-' इंपेक्टर साहब, मैं तो बुरी तरह लूट गया। पांच लाख रुपये साइबर अपराधियों ने ठग लिए ।' धीरे- धीरे उस आदमी ने सारा वृतांत कह सुनाया।

सुनकर इंस्पेक्टर सकते में आ गया। नाराजगी उसके चेहरे से झांकने लगी-' तो तीसरी बार भी आपने ओ टी पी उस फोन करनेवाले को बता दिया। आप तो पढ़े लिखे लगते हैं। क्या करते हैं आप?'

-' मैं इनकम टैक्स इंस्पेक्टर हूँ।' कहकर उसने सिर झुका लिया। पुलिस इंस्पेक्टर कुछ कहने ही जा रहा था कि उसका मोबाइल बज उठा।

-' आप आवेदन में सारा कुछ डिटेल में लिखकर टेबल पर रख जाइए। मुझे अभी जरूरी काम से एस पी आफिस जाना है।'

उसने लिखना शुरू किया था कि ड्यूटी पर उपस्थित सिपाही ने नजदीक आकर पहले ताल देकर खैनी होठ में दबाया फिर बोला-' का साहब ? बैंक में, ए टी एम में सगरो ( सब जगह) चेतावनी लिखा होता है। फोनो में चेतवानी आता है। फिर भी आप ठगा गए। एक बार नहीं, तीन - तीन बार ओटीपी बता दिए। अरे महाराज, कोदो दे के पढ़े थे का?'

-कृष्ण मनु
14/1/21

लघुकथा



तीसरा आदमी



दिल्ली दंगे का ताप इस छोटे शहर के सिर पर भी चढ़ चुका था।

वे तीन थे जो रोज शाम को मिलते थे, हंसते- बतियाते थे। चाय -साय चलता था। टाटा बाई करते हुए वे अपने घर की राह पकड़ते थे।

आज भी तीनो मिले। बात पर बात चली। बात का रुख न जाने कब सम्प्रदाय, धर्म, अधिकार, नागरिकता आदि जंजालों की ओर मुड़ गया। उनके बीच आवाज का वॉल्यूम तेज होता चला गया। वे जोर जोर से चीखने लगे।

बीच का तीसरा आदमी उन्हें रोकता रह गया। लेकिन वे कहाँ रुकने वाले थे!

कल तक वे इंसान थे। आज हिन्दू मुसलमान बन चुके थे।#
- कृष्ण मनु




मौत


सहकर्मियों के कहने पर बिना सोचे-समझे अपना बसेरा छोड़कर इस तरह तपती दोपहरिया में ऊपर सूरज की आग और नीचे सड़क की गर्मी के बीच पिघलता हुआ वह अब पछता रहा था।

जख्मी पैरों को घसीटते हुए भूखा- प्यासा वह कहां जा रहा है? सैंकड़ों मिल दूर स्थित अपना गांव । पर गांव में भी क्या धरा है? दो रोटी भी मयस्सर नहीं।

भूख मिटाने की कोई जुगत होती अगर गांव में तो वह शहर आता ही क्यों? माना कि कोरोना महामारी में कारखाना बंद हो गया। नौकरी छूट गई और भूखों मरने की नौबत आ गई। तो भाग कर भी क्या मिल रहा? क्या वहां सरकारी व्यवस्था या दानियों द्वारा खाना नहीं मिलता? कोई और नहीं तो अड़ोसी-पड़ोसी भूख से मरने नहीं देते।

धौकता सीना, पीठ से लगा पेट। प्यास से पपड़ी पड़े होठ। उसे लगा जीवन डोर अब टूटने वाला है।

उसने पपड़ी पड़े होठ पर जीभ फेरते हुए सूरज की ओर देखा। सहसा उसकी आँखों के आगे चिंगारियां फूट पड़ीं, सांस ने साथ छोड़ दिया और वह कटे वृक्ष सा सड़क पर गिर कर चेतनाशून्य हो गया।

साथ चल रहे मजदूरों ने देखा। उनके सूखे चेहरे और सूनी आंखें पाषाण में तब्दील हो चुके थे। उनमें किसी तरह की प्रतिक्रिया नहीं हुई। वे आगे बढ़ गए।

उस मजदूर के साथ मानवीय संवेदना की भी मृत्यु हो चुकी थी।#

कृष्ण मनु

परिचय
लेखन विधा: लघुकथा, कहानी,व्यंग्य, कविता
प्रकाशित पुस्तकें: पांचवां सत्यवादी और मुट्ठी में आक्रोश(लघुकथा संग्रह), कोहरा छंटने के बाद और आसपास के लोग(कहानी संग्रह), तीन बाल कहानियों का संग्रह।
संपादन: स्वतिपथ लघु पत्रिका और लघुकथा संकलन हम हैं यहाँ हैं का संपादन

सम्मान: विभिन्न साहित्यिक संस्थानों द्वारा 7 बार सम्मानित।

पता: ईमेल- kballabhroy @gmail.com
Mo. 9939315925
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