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दो व्यंग्य



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बस...दो मिनट

शुक्रगुज़ार हूँ सोशल मीडिया। एहसान मंद हूँ तुम्हारा। तुमने मुझे वाणी दी, रवानी दी वर्ना हम जैसे टटपूँजिए को पूछता कौन? तुम उस रेडीमेड फूड की तरह हो जिसका रैपर हटाया और खाया। किसी तरह का कोई झंझट नहीं। अब तो बस लिखता हूँ और झट मीडिया में डालता हूँ। दस पढ़ते हैं तो एकाध दो शब्द लिख भी डालते हैं। न भी लिखें तो क्या तुमने एक आप्सन 'पसंद" का रख छोड़ा है। बस उंगली से स्पर्श मात्र से 'लाइक' पाकर लेखक मन झूम-झूम उठता है। हींग लगा न फिटकरी रंग भी चोखा हो गया।

बाप रे बाप वो पिछला जमाना याद आता है तो शरीर का रोंगटा खड़ा हो जाता है। ओह, कितना दुखदाई था वो प्रिंटमीडिया वाला जमाना। अरे बिल्कुल दादागिरी थी उनकी भाई। लिखो, शंसोधित करो, परिष्कृत करो, लिफाफा में भरो, पता लिखो, टिकट चिपकाओ तब पोस्ट आफिस की तरफ रुख करो। धड़कते दिल से अपनी प्रिय रचना को मंत्रमंजूषा में तिरोहित करो। इतना 'यह-वह' करो और सम्पादक जी के टेबुल तक जाकर अगर रचना दम तोड़ गई तो अपना दम निकल जाता था।

असली स्थिति की शुरुआत तो तब होती थी जब रचना भेजकर इंतज़ार करना पड़ता था। न रात चैन, न दिन चैन। तड़पत बीतत दिन-रैन। जब देखो तब रास्ते पर नजर। न जाने कब आ जाए डाकिया ? शंका बनी रहती थी। उन्हीं दिनो गाना भी तो बन गया था- 'डाकिया डाक लाया.....' ।

अब खुशी का पैगाम लाया या फिर दुख का सामान लाया, यह तो अपनी-अपनी किस्मत की बात होती थी। रचना स्वीकृत हो गई तो खुशी का पैगाम और सखेद वापस तो दुख का सामान। हालांकि दुख के सामान ही अधिक होते थे।

मुझमें शुरू से ही धैर्य का अभाव रहा है। मन थोड़ी धीर धरो में कभी विश्वास ही नहीं रहा। सौभाग्य से उन दिनों कोई काम-धाम भी नहीं था। दौड़ पड़ता था डाक घर। डाकिया के आने से लेकर पत्र-छंटाई तक टकटकी लगाए देखता रहता था। उस वक्त के उतावलेपन को मैं शब्दों में बयान नहीं कर सकता।

रचना लिखने से लेकर भेजकर इंतज़ार करने तक सौ पापड़ बेलने पड़ते थे। और आज ..........। धन्य हो सोशल मीडिया। एकबार पुनः आभार तुम्हारा । पापड़ बेलने से बचा लिया। लिखो, डालो और पढ़वा लो। है न दो मिनट का खेल! मम्मी मम्मी भूख लगी....बस दो मिनट#

✏कृष्ण मनु


व्यंग्य

.....चाय पर बुलाया है।


यह चाय भी अजीब शै है जो मुंह को लग जाए तो मरते दम तक साथ निभाए।

कुछ लोग कहते हैं- चाय से अधिक गर्मी चाह में होती है। होती होगी । लेकिन मेरे लिए चाय की गरमी ही प्यारी है। बस इधर ओठों से लगायी, उधर 'संडास' जाने की तलब आयी। दादा जी वाला चूरण जाए तेल लेने।

चार दोस्त मिले तो जुबान से एक ही आवाज निकले- चाय हो जाए।

प्रायः लोग कहते मिलेंगे- चाय-पानी बाबू को पिलाओ, काम हो जाएगा।

बड़े से बड़ा काम चाय पार्टी के दौरान निपटते देखे गए हैं यहाँ तक कि शादी-ब्याह की बातें भी। तभी तो नायिका कहती है:
'शायद मेरी शादी का ख़याल दिल में आया है इसीलिए मम्मी ने तुझे चाय पर बुलाया है।'

वाह चाय !- तबले के धुन पर ज़ाकिर हुसैन कह दें तो मुर्दा भी चाय के लिए तड़प उठे।

इसी एक कप चाय के लिए बेचारे शौकीलाल जी का बीवी द्वारा ऐसी-तैसी झेलनी पड़ी। 'आओ, हंस लें जरा' में पूरी दास्तान पढ़ें।

?कृष्ण मनु







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