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तड़प--भाग(३)

मतलब तू उसे पसंद करने लगा है,सियाशरन बोला।।
हाँ !यार! वो मुझे अच्छी लगने लगी है,शिवदत्त बोला।।
तूने उसका नाम पूछा,सियाशरन ने कहा।।
हाँ!शिवन्तिका नाम है उसका,शिवदत्त बोला।।
ये तेरे नाम से मिलता जुलता है,सियाशरन बोला।।
हाँ!यार! ये तो मैने सोचा ही नहीं,शिवदत्त बोला।।
लेकिन यार!वो अच्छे घर से दिखती है और तू मामूली से स्कूल मास्टर का बेटा,सियाशरन बोला।।
ये तो तू ठीक कह रहा है यार!शिवदत्त बोला।।
लेकिन अब कर भी क्या सकते हैं,इश्क पर किसका जोर चला है आज तक ,वो तो हो ही जाता है,सियाशरन बोला।।
तू सही कहता है यार!शिवदत्त बोला।।
और ऐसे ही दोनों दोस्तों के बीच बातें चलतीं रहीं और उधर दोनों सहेलियाँ मोटर में बैठकर बातें कर रही थीं,शिवन्तिका बोली....
तू क्या उस लफंगे से इतनी देर तक बातें कर रही थी?
वो ही तो पूछ रहा था और मैं उसके सवालों के जवाब दे रही थी,सुहासा बोली।।
बड़ा आया सवाल पूछने वाला,शिवन्तिका बोली।।
इतना भी बुरा नहीं है,उस दिन हमारी मदद की थी तो मैं भी बातें करने लगी,सुहासा बोली।।
मैं खूब अच्छी तरह से जानती हूँ ऐसे लफंगों को,शिवन्तिका बोली।।
ऐसा मत बोल,तुझे कितनी प्यार भरी आँखों से देख रहा था,सुहासा बोली।।
मैं उसकी आँखें फोड़ दूँगीं,शिवन्तिका बोली।।
ऐसा नहीं कहते मेरी जान,वो तेरा आशिक है,सुहासा बोली।।
आशिक....माई फुट...मैं ऐसों से बात करना भी पसंद नहीं करती,शिवन्तिका बोली।।
यार! तू तो ऐसे बिहैव कर रही है जैसे कि उसने तेरी भैंसें चुरा ली हों,सुहासा बोली।।
भैसें....ये कैसा मुहावरा पेश कर रही है तू! शिवन्तिका बोली।।
अब तू इतनी देर से समझ ही नहीं रही है कि वो तुझे पसंद करने लगा है,इसलिए ऐसा मुहावरा बोलना पड़ा,सुहासा बोली।।
ठीक है...ठीक है....उसकी ज्यादा तरफदारी मत कर,शिवन्तिका बोली।।
तरफदारी नहीं करती,सच्ची बात बोली है मैने ,सुहासा बोली।।
और ऐसे ही दोनों सहेलियों के बीच बात जारी रही....
शिवन्तिका ने सुहासा को उसके घर छोड़ा और अपने घर पहुँचीं तो उसे देखकर चित्रलेखा बोली...
आ गईं आप!
जी! राजमाता!शिवन्तिका बोली।
आपसे कुछ जुरूरी काम था,चित्रलेखा बोली।।
जी कहिए राजमाता! ,शिवन्तिका ने पूछा।।
हम दो दिनों के लिए गाँव वाली जमीन का मुआयना करने जा रहे हैं,होटल का काम तो मैनेजर साहब सम्भाल लेंगें और घर के लिए तो इतने नौकर हैं ही,वो कल पास के गाँव के स्कूल के हेडमास्टर साहब आएंगे,हम उनके स्कूल को हर साल चन्दा देते आएं हैं,लेकिन इस बार हम भूल गए,उन्होंने संदेशा भिजवाया तब हमें याद आया,
हमने चेक काटकर रखा है,वे कल आएंगे तो उन्हें दे दीजिएगा और कल आप ना काँलेज जाएंगी और ना कहीं बाहर घूमने ,क्योंकि उस चेक को वैसे भी बहुत देर हो चुकी है देने में,कितने गरीब बच्चों का भला होता है उन पैसों से तो कोई भी कोताही नहीं होना चाहिए,कल हेडमास्टर साहब को किसी भी हालात में चेक मिल जाना चाहिए,चित्रलेखा बोली।।
जी! राजमाता! कोई कोताही नहीं होगी,शिवन्तिका बोली।।
राजमाता चित्रलेखा ने अपनी बात पूरी की और चलीं गईं।।

दूसरे दिन राजमाता ने गाँव की ओर प्रस्थान किया,इधर हवेली में शिवन्तिका अकेली थी,पूरे दो दिन के लिए उसका राज ही राज था पूरी हवेली पर इसलिए उसने टेलीफोन करके सुहासा को भी बुला लिया,दोनों सहेलियाँ कमरें में गप्प लड़ा रहीं थीं कि तभी धनिया उनके कमरें में आकर बोली....
बिटिया! गाँव से कोई आया है मालकिन को पूछता है।।
हाँ!हेडमास्टर साहब होगें,मैं जाकर देखती हूँ,इतना कहकर शिवन्तिका गेट पर पहुँची तो शिवदत्त खड़ा था,शिवदत्त को देखते ही शिवन्तिका का पारा चढ़ गया और वो बोली....
तुम मेरे घर तक पहुँच गए,तुम्हारी इतनी हिम्मत।।
मेरी बात तो सुन लीजिए मोहतरमा! शिवदत्त घिघियाया।।
मुझे कुछ नहीं सुनना ,दफ़ा हो जाओ मेरे घर से,शिवन्तिका चीखी।।
तभी पीछे से सुहासा भी आ गई और बोली...
इतना किस पर चिल्ला रही है?
इन जनाब पर,घर तक सूँघते हुए चले आएं,शिवन्तिका बोली।।
जी आपको घर का पता किसने बताया? सुहासा ने पूछा।।
जी! मेरे पिताजी ने,शिवदत्त बोला।।
आपके पिताजी भी आपकी तरह लफंगे हैं क्या? शिवन्तिका बोली।।
सुनिए! बाप पर मत जाइए,नहीं तो मुझसे बुरा कोई ना होगा,शिवदत्त बोला।।
अरे,उसकी पूरी बात तो सुन ले ,सुहासा बोली।।
हाँ! बको क्या बकना चाहते हो?शिवन्तिका बोली।।
मैं तो बस यही कहना चाह रहा था कि मेरे बाबूजी की तबियत ठीक नहीं थी इसलिए उन्होंने मुझे भेजा है राजमाता चित्रलेखा के पास चेक लेने के लिए,शिवदत्त बोला।।
तो क्या तुम हेडमास्टर साहब के बेटे हो? शिवन्तिका ने पूछा।।
जी! हाँ! मोहतरमा! और आप मुझे ना जाने क्या समझ रही हैं? गरीब जरूर हूँ लेकिन बेगैरत नहीं हूँ,लोगों की इज्जत करनी मुझे भी आती है,लेकिन आप तब से मेरी बेइज्जती पर बेइज्जती किए जा रहीं हैं,कितना फायदा उठाएगी आखिर आप मुझ जैसे भोले इन्सान का,शिवदत्त बोला।।
भोले तो आप कहीं से नज़र नहीं आते श्रीमान! अगर आपको ऐसा लगता है तो ये आपका भ्रम है और शिवन्तिका माँफी माँग बेचारे से,अंदर बुला ले चाय ठंडा पूछ लें,सुहासा बोली।।
भोला नहीं हूँ तो लम्पट भी नहीं हूँ,मोहतरमा! शिवदत्त बोला।।
ठीक है....ठीक है....बस बहुत हुआ,माँफी माँगती हूँ आपसे,चुपचाप भीतर आ जाइए,शिवन्तिका बोली।।
शिवदत्त भीतर आया कुछ देर बैठा,चाय पी और कुछ देर दोनों से बात की और फिर बोला....
अब चलता हूँ,बाबू जी इन्तज़ार करते होगें,अभी बैंक से चेक भी भुनवाना है,फिर साइकिल से वापस गाँव जाऊँगा।।
ठीक है तो आप को अगर इतने काम हैं तो आप जा सकते हैं,सुहासा बोली।।
और शिवन्तिका जी! अपनी बतमीजी के लिए आपसे माँफी चाहता हूँ,शिवदत्त बोला।।
मैं भी माँफी चाहती हूँ,मैने आपसे इतने गलत तरीके से बात की,शिवन्तिका बोली।।
कोई बात नहीं और इतना कहकर शिवदत्त चला गया।।
उस दिन के बाद से शिवदत्त और शिवन्तिका की मुलाकातें होने लगीं,कभी सियाशरन की दुकान पर तो कभी किसी बगीचे में और इस तरह से दोनों एक दूसरे के काफी नजदीक आ गए,नजदीकियांँ बढ़ी तो नजदीकियों ने प्यार का रूप ले लिया,अब दोनों ही एक दूसरे को बेइंतहा चाहने लगें,
इस कारण अब शिवन्तिका रोज ही घर देर से लौटने लगी और उसे रोज़ ही राजमाता के आगें बहाना बनाना पड़ता,लेकिन राजमाता ने भी धूप में बाल सफेद नहीं किए थे,उनके पास लोगों को पहचानने का तजुर्बा था और एक दिन उन्होंने पता करवा ही लिया कि आखिर शिवन्तिका जाती कहाँ हैं?
उन्हें पता चला कि उनकी पोती एक मामूली से मास्टर के बेटे को अपना दिल दे बैठी है तो घर पर तूफान आ गया और उन्होंने शिवन्तिका को समझाने की कोशिश की वें बोलीं...
एक साधारण से लड़के को हम अपना दामाद नहीं बना सकते,माना कि पढ़ा लिखा है लेकिन हमारी हैसियत का नहीं है।।
लेकिन मैं उससे प्यार करती हूंँ राजमाता! शिवन्तिका बोली।।
ये प्यार-व्यार कुछ ही दिनों का भूत होता है,कुछ ही दिन में सब भूत उतर जाएगा,राजमाता चित्रलेखा बोलीं।।
हम दोनों एकदूसरे को बेइन्तहा चाहते हैं राजमाता! हमें अलग मत कीजिए,शिवन्तिका गिड़गिड़ाई।।
हमारे जीते जी ये कभी नहीं हो सकता,हम ये कभी नहीं होने देगें,चित्रलेखा बोलीं।।
लेकिन क्यों? राजमाता! आप मेरी खुशी के लिए इतना भी नहीं कर सकतीं,शिवन्तिका बोली।।
एक दिन आपके पिताजी भी ऐसे ही गिड़गिड़ाए था और हमने उनकी बात मान ली थी और उसका हमने बहुत बड़ा खामियाजा भुगता था,चित्रलेखा बोलते बोलते रो पड़ी।।
ये क्या कह रही हैं आप राजमाता? शिवन्तिका बोली।।
हाँ! आपके पिता जी भी ऐसे ही किसी साधारण सी लड़की को चाहने लगें थे और उन्होंने हमारे सामने उससे शादी करने की जिद़ की,हम अपने बेटे के आगे मजबूर हो गए और हमने उनकी शादी करा दी,लेकिन हमें ये नहीं मालूम था कि वो लड़की हमारे बेटे को नहीं उसकी दौलत को चाहती थी,कुछ दिन तक तो सब बहुत अच्छा चला,तुम भी पैदा हो गईं।।
हमारी बहु के दूसरी जगह नाजायज सम्बन्ध थे,एक दिन हमारे बेटे को उसके नाजायज सम्बन्धों के बारें में पता चल गया ,उस रात दोनों में बहुत झगड़ा हुआ,यहाँ तक कि हमारे बेटे ने केवल उसे डराने के इरादे से पिस्तौल निकाल ली लेकिन उसकी पत्नी ने उसके हाथ से पिस्तौल छीनकर उसे ही गोली मार दी।।
हम गोली की आवाज़ सुनकर उनके कमरें में पहुँचे तो हमारा बेटा लहुलुहान होकर फर्श पर पड़ा था और उसकी जान जा चुकी थी,अपने इकलौते बेटे की लाश देखकर हमारा कलेजा काँप गया और फिर हमने खुद को स्थिर कर पुलिस को टेलीफोन किया पुलिस आईं और हमारी बहु को लेकर जेल चली गई।।
इससें पहले की हमारी बहु पर मुकदमा चलता,उसने जेल में ही किसी धारदार चीज से अपनी कलाई काट ली,रात भर खून बहा और सुबह तक वो मर गई,ये था उस प्यार का अंजाम,अब फिर हम में दम नहीं है वैसा मंजर देखने का,इसलिए ये प्यार-व्यार का फितूर जितनी जल्दी अपने दिमाग से निकाल देगीं तो हम दोनों के लिए अच्छा होगा और इतना कहकर चित्रलेखा अपने कमरें में चली गई।।

क्रमशः.....
सरोज वर्मा....


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