प्रार्थना से बाहर और अन्य कहानियां(लेखक--गीता श्री)
समीक्षक-रंजना जायसवाल
स्त्री की आजादी -एक यक्ष प्रश्न
किसी स्त्री को एक रिश्ते से आजाद होने में कितना वक्त लगता है ?कितने फैक्टर काम करते हैं एक स्त्री की आजादी में |कितने लोग मिलकर तय करते हैं उसकी कैद |क्या मौत ही स्त्री की आजादी का एक मात्र रास्ता होती है ?.इन सारे प्रश्नों से जूझती है गीताश्री की नवीनत्तम कहानी पुस्तक –‘प्रार्थना के बाहर और अन्य कहानियाँ”|.अक्सर कह दिया जाता है कि स्त्रियों में साहस की कमी है इसलिए वे गुलामी में जीती रहती हैं |पर क्या सच!इस विषय पर स्त्रियां क्या कहती हैं ...“कैसे छोड़ दूँ इस आदमी को ,बाहर के सौ कमीने को झेलने से अच्छा है ,घर में एक को झेलना...|” ‘अब वो ऐसा ही है क्या करें ,कहाँ जाएँ ..सारे रास्ते तो बंद हैं ,अब उम्र भी नहीं रही ..उसे तो किसी भी उम्र में लड़कियाँ मिल जाएँगी,हमारा क्या होगा ...बच्चों को लेकर कहाँ जाऊं ..मैं नौकरी भी तो नहीं करती ...ये जीवन तो गया ...जाने दो ...काट लेंगे जीवन ...मैं उसके दायरे में रहकर तलाश रही हूँ अपना लक्ष्य ..मेरा नियंत्रण उनके हाथ में ...पूछना पड़ेगा जी ...नहीं तो घर में तांडव हो जाएगा ...|”अनगिनत स्त्रियों की ये अनगिनत आवाजें कोलाज में कोलाहल में भले बदल जाए,इस सवाल का सही जबाव नहीं दे पा रही कि स्त्री क्यों नहीं आजाद हो पा रही है आज भी |लेखिका अपनी कहानियों के स्त्री-पात्रों द्वारा इस सवाल का जबाव ढूँढती है और काफी हद तक सफल भी होती है |इस दृष्टि से ‘उर्फ देवी जी’कहानी महत्वपूर्ण है | गाँव-कस्बों में स्त्री का गोरा रंग आज भी बहुत महत्व रखता है |लाली की एक दादी अपने काले रंग के कारण ना केवल पति की उपेक्षा झेलती हैं ,बल्कि पुरानी घरारी की ऊंची सलाखों के पीछे कैद कर दी जाती हैं |गाँव के बच्चे उन्हें देखने आते हैं और पगली समझकर ताली बजाते हैं ,पर वह ना तो सिन्दूर लगाना भूलती हैं,ना अपना धर्म |पति दूसरी पत्नी के साथ आराम से जीवन जीते रहते हैं |उनके अंतिम समय में लाली दादी को आजाद करने के लिए कुण्डी खोल देती है ,पर दादी नहीं भागती|वे खुली कोठरी में भी बंदी की तरह लेटी रहती हैं |तब लाली को दादी द्वारा मुक्ति ना स्वीकारने का रहस्य ज्ञात होता है -‘आखिर कोई तब कैसे उड़ेगा जब उसके पंख उड़ना ही भूल गए हों ...|तब शायद मुक्ति नहीं पाती बल्कि उसके बाद के जीवन से जुड़ी आशंकाएं कपकपा देती हैं ..अगर कोई बंधन को ही मुक्ति मान ले तो क्या गलत है ?...मुक्ति तभी सुहाती है जब तक उसकी कामना शेष रहे अन्यथा तो मुक्ति से भी भय लगता है ..|’
‘सोनमछरी’ कहानी में स्त्री के ‘स्वनिर्णय’ को महत्व दिया गया है |रूम्पा का पति शंकर की नाव गंगा के तूफ़ान में फंसकर बहती हुई जाने कहाँ चली गयी थी |सबने सोचा शंकर नहीं रहा |रूम्पा दुःख से पगला सी जाती है |उसे इस दुःख से अमित उबारता है और बाद में गाँव वालों की सहमति से उससे विवाह भी कर लेता है |दोनों का जीवन पटरी पर आया ही था कि पता चलता है शंकर वापस आ रहा है |दरअसल उसकी नाव बहती हुई पद्मा नदी में जा गिरी थी |वहाँ उसे गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया था|वहाँ साल भर सजा काटने के बाद शंकर समेत कई मछुआरों को बांगला देश सरकार ने रिहा कर दिया था |इस खबर से रूम्पा गहरे सदमें में चली जाती है और लोगों के चेहरे पर सवाल उठता है,जिसका जबाव सिर्फ रूम्पा के पास है |अमित उसे फिर सांत्वना देता है ‘रूम्पा को लगा इन बांहों में कितना भरोसा,कितनी उम्मीद,कितनी सांत्वना भरी हुई है |इन बांहों में दैहिक उत्तेजना का ताप नहीं है |ये कुछ मांगती नहीं,देती हैं |’अमित उसपर कोई दावा पेश नहीं करता ,फिर भी रूम्पा उसके महत्व को जानती है |अमित ने मुसीबत में उसे सहारा दिया था |उसके साथ घर-परिवार , बच्चों के सपने देखे थे |क्या वह उसे छोड़ सकती है ?वह आज भी अमित के साथ शंकर की झुग्गी में रह जरूर रही है,पर पूरे तन -मन से अमित की हो चुकी है |वह जानती है कि शंकर का कोई दोष नहीं ,पर अमित भी तो निर्दोष है |गाँव में आवाजें उठ रही हैं कि –‘रूम्पा पर शंकर का पहला हक है....वह पहला पति है,तलाक भी नहीं हुआ,कानून भी उसके साथ होगा |’इन सारी आवाजों को दरकिनार कर रुम्पा अमित के साथ उसी तरह चली जाती है |जैसे गंगा कभी-कभी अपना पाट बदल लेती है |
“एक रात जिंदगी” नामक कहानी में स्त्री के ‘रखेल’रूप की त्रासदी का चित्रण है |ऊपर से देखने पर उसका जीवन सहज सा लगता है,पर क्या सच ही ऐसा होता है? कहानी में ५५ साल की शाइस्ता एक साँवली बोल्ड स्त्री है |जिसका बेटा और उसकी गर्लफ्रेंड विवाह से पूर्व एक साथ रहकर एक-दूसरे को समझ रहे हैं ..लड़की बिंदास है और लड़का मस्त |उसकी बेटी भी ‘लिव इन’ में है अपने ब्वायफ्रेंड के साथ | शाइस्ता ना केवल उन्हें समर्थन दे रही है बल्कि उनके लिव-इन के बारे में सबको बताती भी है | वह तो यह भी नहीं छिपाती कि उसका भी एक पुरूष मित्र है ,जिसे उसके बच्चे समर्थन देते हैं | वह उसके बारे में बताते हुए गर्व का अनुभव करती है ,उसकी दी हुई डायमंड रिंग हमेशा पहने रहती है |कोई कुंठा ,कोई झिझक नहीं |हम कह सकते हैं इससे बड़ी आजादी क्या होगी ?पर जब स्त्री खुलती है तो उसके बिंदास चेहरे के पीछे से शोषित स्त्री का चेहरा झाँकने लगता है |उसकी बातों में उसका दुःख रह-रहकर झलक आता है |रिश्तेदारों के लिए वह रिजेक्टेड माल है ...वे उसे अपना नहीं मानते क्योंकि वह अपने पति की ब्याहता नहीं थी |पति उसके बॉस थे |मात्र १९ साल की उम्र में ५३ साल के बॉस ने उसे अपने पास रख लिया था |उन्हें एक जवान देह की जरूरत थी ,जिसे वे अपनी मगरूर बीबी के सामने पेश कर सके...उसके सामने उस देह को भोग सकें |वह कहती है –‘मैं जवान तो हुई ही नहीं कभी ...गरीब होना कितना बड़ा पाप है ..मेरे परिवार को पैसे की जरूरत थी ..|’एक-एककर माँ समेत दोनों भाईयों को सेटल किया |वही माँ जो पहले कहा करती थी कि –‘इस आदमी से शादी करने की उम्र तो मेरी है ,तुम क्यों कर रही हो ?’जिसका मन रखने के लिए हमने कन्वर्ट होकर शादी की ,बाद में उनके साथ हो गयी |
पति ने मुझे बहुत चाहा |मेरी खातिर मुसलमान बना |मेरे परिवार को संभाला |मुझे दो प्यारे-प्यारे बच्चे दिए ...बस पारिवारिक जीवन में शामिल नहीं किया |शादी तो की ,पर मेरे साथ नहीं रहे |जब वे मरे तो मुझे दूर से देखने भर की इजाजत भर दी गई |जायजाद में एक पाई भी नहीं मिली |जब तक रहे बहुत ऐश में रही ...उसके बाद जो जिया ,जो भोगा ...वह अकल्पनीय है ,किसी के लिए ...|’
अब शाइस्ता अपनी कहानी बेचना चाहती है ..अपनी यातना के कुछ साल सबके सामने लाना चाहती है |उसे लगता है कि प्रकाशकों की दिलचस्पी उसकी कहानी में अवश्य होगी क्योंकि पति का घराना काफी प्रभावशाली रहा है |कभी उस घराने ने सरकार की नीतियों तक को प्रभावित किया था ,उन्हें अपने हक में बदलवाया था |वह कहती है कि ‘घराने में षड्यंत्रों की अनगिनत दास्ताने दबी हैं ,खुलेंगी,तो दुनिया चौंक जाएगी |उसके पास सबूत भी है |’
शाइस्ता नहीं जानती कि वह ठगी जा चुकी है |किसी विवाहित अमीर की रखेल की जिंदगी तभी तक सुखी रहती है,जब तक पुरूष जीवित रहता है |निश्चित रूप से पुरूष के मन में भी खोट था ,वरना वह उसके और उसके बच्चों के लिए अलग से कुछ कर जाता |अपनी माँ और पति के मर जाने के बाद ही वह आजाद हो पाती है पर तब तक जिंदगी उसके हाथ से फिसल चुकी होती है |उसे ना तो समाज स्वीकार करता है ना रिश्तेदार |अपने बच्चे भी दूर हो जाते हैं |वह कहती भी है –बच्चे कब के मेरी दुनिया से बाहर जा चुके ..|बच्चे बड़े होकर पिता का नाम अपने साथ लगाने से इंकार कर देते हैं जबकि स्त्री उसी मोह से बंधी है और अपना हक पाना चाहती है |जबकि अपने खर्चों के लिए वह फिर से एक बूढ़े रईस की रखेल बनने की ओर अग्रसर है |वह बताती है कि पति की मृत्यु के बाद बेहद अकेली थी ..बच्चे अपनी दुनिया में और वह एक बड़ी हवेली में अकेली ...कोई दोस्त भी नहीं |ऐसे हालात में भावात्मक व आर्थिक सुरक्षा हेतु वह उस बुजुर्ग से अमीर व्यक्ति को अपना सब कुछ मान बैठी ..जो पब्लिक प्लेस में उससे इसलिए परहेज करता है कि उसकी अपनी फैमिली है |बच्चे,बहू,पत्नी ,भरा -पूरा परिवार है ..| यानी एक दुष्चक्र से आजाद होने के बाद वह दूसरे दुष्चक्र में प्रवेश कर चुकी है |
कैसी विडम्बना है कि इस समाज में बुजुर्ग पुरूषों तक को दूसरी स्त्री से संबंध रखने का कोई खामियाजा नहीं भुगतना पड़ता ,जबकि स्त्री को उस बात की सजा मिलती है |भले ही उसने यह सब किसी विवशता में की हो | इसलिए स्त्री को ही सावधान रहने की जरूरत है |कहानी के अंत में एक पात्र कहती भी है ..’जो पुरूष अपनी पत्नी के नहीं होते ,वे बाहरवालियों के क्या होंगे |ये बात औरतों की समझ में क्यों नहीं आती ...क्यों वे शादीशुदा पुरूषों के चक्कर में ...कब अक्ल आएगी उन्हें ..?’
निश्चित रूप से शाइस्ता जैसी स्त्रियाँ मुक्ति के भ्रम में भटकाव की शिकार हैं |
‘गोरिल्ला प्यार’नामक कहानी में नायिका अर्पिता की मुक्ति का रास्ता भी अंतत:भटकाव का शिकार हो जाता है क्योंकि उसका पुरूष साथी पारंपरिक गोरिल्ला पुरूष में बदल जाता है |अर्पिता स्त्री पुरूष के पुरातन रिश्ते का सुख तो उठाना चाहती है ,पर पारंपरिक ढंग से नहीं |’उसने शादी के बाद शादीशुदा जोड़ों को प्रेमहीन जीवन जीते देखा था ,शादी के बाद प्रेमी-युगलों को कुम्भलाते देखा था ,इसलिए उसने वयस्क होने से थोड़ा पहले ही तय कर लिया था कि वह अपनी जिंदगी में मर्द को उतनी ही जगह देगी,जितने में उसका अपना अस्तित्व बचा रहे ,साथ ही बचा रहे प्रेम|क्योंकि मर्द को जैसे ही ज्यादा जगह दी,जाती है ,वह मित्र से तुरंत मालिक के अपने वेश में आ जाता है|और वह मालिक सब कुछ को ‘चीज”बना देता है ...कमबख्त प्रेम को भी ...|’ अर्पिता को इसी से डर लगता है | इसी कारण वह अपने प्रेमी इंद्र से पहले ही स्पष्ट कर देती है कि उनका रिश्ता कैसा होगा –‘इंद्र हम साथ नहीं रहेंगे..एक छत के नीचे नहीं रहेंगे |हम जीवन भर मिलेंगे |फिर-फिर मिलेंगे|हर बार हम प्रेमी और प्रेमिका की मानिंद मिलेंगे ..हम जीवन एक संग जिएंगे ,लेकिन विवाह नहीं ...नो फेरे...नो बंधन...और तो और लिव-इन भी नहीं |’इंद्र की सोच भी उसी की तरह थी ,इसलिए वे सब कुछ साझा करते हैं |पर इंद्र का पुरूष-मन उसे हासिल करते ही जाग जाता है |वह उसे सिर्फ अपना बनाए रखना चाहता है |वह शक करता है कि अर्पिता के अपने बॉस से रिश्ते हैं |वह प्रेमपूर्ण क्षणों में उसपर इल्जाम धर कर चल देता है और दस दिनों तक न लौटता है ना ही उसका फोन उठाता है |इन दस दिनों में अर्पिता विचारों के बवंडर में फंसी रहती है और भीतर ही भीतर बदलने लगती है |वह सोचती है- ‘क्या उस दिन मीनाक्षी ने सच कहा था कि हर रिश्ता कुछ वक्त के बाद एकनिष्ठ विश्वास मांगने लगता है|उसके रिश्ते में भी उम्मीदें जागेंगी |’और यही हुआ है |वह समझ जाती है कि औरत-मरद के बीच कुछ अनोखा नहीं घट सकता ...वे नर-मादा ही बने रहेंगे ..|इंद्र का इस तरह बदलना ..एक मालिक की तरह बर्ताव करना उसे खल जाता है और उसके भीतर एक नए खेल का भाव सिर उठाता है |वह फेसबुक पर चैट करके आकाश नामक पुरूष को बुलाती है और उसके घर जाकर उससे शारीरिक संबंध बनाती है |उसे लगता है कि इससे उसकी मुक्ति का मार्ग प्रशस्त होगा |वह भूल जाती है कि देह की यह आजादी उसके भटकाव की शुरूवात है जिसका अंत कभी सुखद नहीं हो सकता |आकाश के घर से लौटते वक्त इंद्र का फोन आता है |वह उसके पास वापस आना चाहता है ,पर पहले की तरह अलग-अलग नहीं ,साथ रहने के लिए |वह कहता है –‘अब हम साथ-साथ रहेंगे ...हमेशा-हमेशा के लिए ...शादी भले ना करना ,लिव इन...अलग-अलग नहीं ..|’ यहाँ साफ़ दीखता है कि जब तक पुरूष की सामंती मानसिकता नहीं बदलेगी |उसके अंदर का गोरिल्ला नहीं बदलेगा ,स्त्री की मुक्ति मुकम्मल नहीं होगी और देह की आजादी भटकाव बन कर रह जाएगी |एक के बाद दूसरा पुरूष फिर तीसरा ...|यह स्त्री को नए बंधनों में जकड़कर अवसादग्रस्त ही करेगा,मुक्त नहीं |
‘प्रार्थना के बाहर’की प्रार्थना अपनी सोच को लेकर स्पष्ट है |वह सिविल सर्विस की तैयारी करने दिल्ली आई है और रचना के किराए के घर में साथ रहती है |दोनों के विचारों में जमीन –आसमान का अंतर है|प्रार्थना ‘मुक्त भोग’ में विश्वास रखती है |एक साथ कई पुरूष-मित्र रखती है ,उन्हें घर बुलाकर हमबिस्तर होती है |इसी क्रम में वह एक बार गर्भवती भी हो गयी और घर पर ही एबार्शन कराने लगी |यह सब कहानी की नायिका रचना को डरावना लगता है |वह जब उससे पूछती है –.’ये लड्केबाजी...घर बुलाना...उनके साथ हम बिस्तर होना ...पता नहीं कैसे मैनेज करती है,पढ़ाई और यारबाजी |’तब प्रार्थना की आँखों में आखेट से लौटे बनैले पशु की चमक उभर आती है |वह कहती है –‘मेरे लिए यह कुंठाओं से मुक्ति का मार्ग है |ये मेरे तनाव और बोरियत को दूर करके मुझे एकाग्र बनाता है मेरे लक्ष्य के प्रति ...|’ ‘ एक साथ इतने ब्वायफ्रेंड’ के उत्तर में वह कहती है –मेरे लिए कोई एक व्यक्ति महत्वपूर्ण नहीं है |महत्वपूर्ण है मेरा रास्ता...मेरी पसंद...मेर आनंद ...और आनंद का कोई चेहरा नहीं होता...जो जितना दूर साथ चले..चले...नहीं तो भाड़ में जाए |मैंने किसी से कमिटमेंट नहीं किया ना लिया |रचना प्रार्थना को बुरी लड़की समझती है ,पर वही प्रार्थना आगे चलकर ना केवल उत्तर प्रदेश केद्र की आई.ए.एस नियुक्त होती है ,बल्कि बाद में उसे पदोन्नति देकर मानव संस्थान विकास मंत्रालय में संयुक्त सचिव बनाया जाता है..|इस खबर को सुनकर रचना दुखी हो जाती है क्योंकि इन दस सालों में अपनी सारी अच्छाइयों के बावजूद वह १५ हजार पाने वाली एक मामूली पत्रकार ही बन पाई है ,जिसे अपने बॉस का रोब सहना पड़ता है |दफ्तर के अलावा उसका एक घर भी है ,एक पति है बिस्तर से लेकर रसोई तक जिसकी जरूरतें करीने से पूरी ना हों तो वह हिंसक हो जाता है |रचना को लगता है कि उसकी जिंदगी उसके हाथ से फिसल गयी है |वह अपना आत्मविश्लेषण करती है कि आखिर उससे गलती कहाँ हुई ?दिल्ली आकर भी उसने प्रार्थना की तरह अकेले रहने की आजादी का बेजा लाभ नहीं उठाया...कभी कोई मनमानी नहीं की |शराब-सिगरेट से दूर रही |पुरूषों के साथ अपनी दोस्ती को एक सीमा से आगे नहीं बढ़ने दिया |दोस्त-परिचित उसे भली लड़की मानते रहे |फिर क्यों करियर से लेकर परिवार तक जिंदगी के हर मोर्चे पर वह मात खाती रही ...और जो बुरी लड़की थी उसने दुनिया जीत ली |अच्छी और बुरी लड़की की पारम्परिक अवधारणा उसके मन में जड़ जमाए रहती है |जबकि प्रार्थना इस अवधारणा से मुक्त दिखती है |
प्रार्थना की आँखों की चमक बनी रहती है और आत्मविश्वास कभी कम नहीं होता है |अपने किसी भी कृत्य पर उसे कभी अफ़सोस नहीं होता है | वह रचना को अपने कृत्य की कभी कोई सफाई नहीं देती | रचना को ही हर बार झुकना पड़ता है | दुविधा रचना को है जो आज भी अधिकांश स्त्रियों की समस्या है |वे निर्णय ही नहीं ले पातीं कि क्या गलत है क्या सही ?प्रार्थना को कोई दुविधा नहीं ,वह आज की उन स्त्रियों का प्रतिनिधित्व करती है ,जिन्हें अपने लक्ष्य और जीवन को लेकर कोई दुविधा नहीं |वे परम्परा को नहीं ढोतीं |बने-बनाए लकीरों पर नहीं चलतीं |अपनी जिंदगी को अपनी तरह जीना चाहती हैं और अच्छे-बुरे परिणामों को खुशी से झेलती हैं |कोई पछ्त्तावा नहीं ,अपराध-बोध नहीं |प्रार्थना तब भी आत्मविश्वास नहीं खोती,जब एबार्शन की पीड़ा से गुजर रही है और रचना उसे घर से निकालने पर तुली है |वह साफ़ कहती है –‘दो दिन तक मैं यहीं रहूंगी ...तुम्हें जो करना है कर लो,मुझे फर्क नहीं पड़ता ..समझी!’उसकी स्पष्ट और निर्णायक आवाज के सामने रचना नहीं टिक पाती | उसे भला-बुरा कहते हुए वह भाग खड़ी होती है और अपनी सहेली के घर छिपकर दो दिन रहती है |एक तरफ उसे लगता है कि प्रार्थना ने उसका इस्तेमाल किया है ,दूसरी तरफ उसे चिंता व पछतावा होता है कि प्रार्थना को उस हाल में अकेला छोडना उचित नहीं था |कहानी में यद्यपि कई जगह प्रार्थना को गलत लड़की कहा गया है ,पर सिर्फ देह-शुचिता के आधार पर लड़की का मूल्यांकन पितृसत्तात्मक सोच है |प्रार्थना अपने लक्ष्य के प्रति एकाग्र है |मुक्त यौन को छोड़ दें ,तो उसके व्यक्तित्व में कोई कमी नहीं दीखती |और मुक्त यौन पर उसके अपने तर्क हैं |
संग्रह की कई कहानियाँ स्त्री यौन मुक्ति पर खुलकर बहस करती हैं |लेखिका ने बड़े साहस से कुछ ऐसे मुद्दे उठाए हैं ,जो अक्सर लेखिकाएं नहीं उठाती |’ताप’ ऐसी ही कहानी है जिसमें एक विवाहित लड़की को अपने ही माता-पिता की सेक्सुअल समस्या से जूझना पड़ता है |हमारे समाज के पुरूषों को ही नहीं,स्त्रियों को भी यह भ्रम है कि पुरूष कभी बूढ़ा नहीं होता |वह बुढापे में भी सेक्स क्षमता रखता है ,जब कि स्त्री रजोनिवृति के बाद अपनी यह क्षमता खो देती है |यह एक पितृसत्तात्मक धारणा है |सेक्स एक भावना प्रधान क्रिया है |जब इसे मशीनी प्रक्रिया में बदल दिया जाता है,तो धीरे-धीरे इससे विरक्ति होने लगती है |स्त्रियाँ चूँकि ज्यादा संवेदनशील होती हैं इसलिए जल्द ही इस प्रक्रिया से उबकर विरक्त हो जाती हैं ,जिसे उनकी अक्षमता मान ली जाती है और पुरूष अन्य स्त्रियों ही नहीं कम उम्र की बच्चियों तक में रूचि लेने लगता है |शालू की माँ उससे अपने पिता के लिए लड़की का इंतजाम करने के लिए कहती है,क्योंकि वे उसे रात-दिन कोसते रहते हैं कि वह अब किसी काम की नहीं रही |वे कहती हैं –‘मैं तुम्हारे पापा को शारीरिक सुख नहीं दे सकती |मेरी देह में ना वो आग बची है ना मन में चाह ...तुम्हारे पापा को आग चाहिए |चाह हो या ना हो ...चाह हो तो अति उत्तम ...|मैं साठ की होने जा रही हूँ ...पापा ६५ साल के..उन्हें अब भी शरीर की आग जलाती है ...मैं कुछ नहीं कर सकती ...वे मुझसे जबरदस्ती करना चाहते हैं |मैं थक चुकी हूँ |सालों से एक ही काम,ड्यूटी की तरह करते करते ...चाहे मन हो या ना हो ..उनकी मर्जी चलती रही |..मैं अब खुद को नहीं नुचवा सकती ...खाल ही बची है |” यह है स्त्री की तकलीफ |सेक्स में उसे सहभागी ना मानकर मात्र एक चीज मानकर मनमानी करना |उसकी इच्छा –अनिच्छा की परवाह ना करते हुए उसपर अपनी इच्छा थोपना |ऐसी स्थिति में स्त्री के लिए सेक्स आनंद की वस्तु ना रहकर पीड़ा की वस्तु बन जाती है और उसका मन विरक्त होने लगता है |ज्यादातर स्त्रियों के साथ यही स्थिति है |भले ही शर्म की वजह से वह किसी को कुछ नहीं बताए |जबकि ऐसा कुछ नहीं होता |उम्र के साथ दोनों की सेक्स क्षमता घटती है,पर पुरूष अपने अहंकार में इसे मानने को तैयार नहीं होता |कहानी के अंत में भी दूसरी जवान बाजारू लड़की पिता की क्षमता की पोल खोल देती है –‘ये किसी काम का नहीं है ..तुम बेकार में अपना पैसा बर्बाद कर रही हो |बेहतर हो उनके दिमाग का इलाज करवा दो ...सब ठीक हो जाएगा ...|मैं ठरकी बुड्ढों को खूब जानती हूँ ...अंग्रेजी मुहावरा याद है ना ...दी डिजायर इज स्ट्रौंग,बत दी फ्लेश इज वीक ..[वासना मजबूत,देह कमजोर ] |”
‘दो पन्ने वाली औरत’ में अखबार के दफ्तरों की पोल खोली गई है |इन दफ्तरों में भी स्त्री –देह का चमत्कार काम करता दीखता है |आसावरी एक अच्छी पत्रकार है ,प्रतिभाशील है |वह अपने श्रम और प्रतिभा से बॉस का ध्यान चाहती है ,पर बाजी मार ले जाती है रंजना,जिसने अपनी जीत का शॉटकट तलाश लिया है |आसावरी भी बॉस को प्रभावित करने के लिए चश्मा उतार कर उसके सामने बैठती है |तथा वह एक आदमी,एक बॉस ,एक मरद और एक संपादक यानी चारों को अलग-अलग हैंडिल करना जानती है |पर रंजना ,जिसे वह मोटी चमड़ी वाली कहती है ,के आने के बाद बॉस के सामने उसका सिक्का नहीं चल पाता | सारे दाँव खाली चले जाते हैं |वह झुंझलाती है कि ‘क्या मेरी प्रतिभा को रोज-रोज परीक्षाओं से गुजरना होगा |’उसके तनाव को देखकर लगता है कि वह जानी-मानी पत्रकार ना होकर मात्र एक स्त्री है,जिसे दूसरी स्त्री ने परास्त कर दिया है |आज यह समस्या लगभग सारे विभागों में देखने को मिल जाती है |पुरूष बॉस को प्रभवित करने में जुटी लड़कियाँ किसी भी हद तक चली जाती हैं |वे आपस में एक-दूसरे से ईर्ष्या करती हैं ,एक-दूसरे को काटती रहती हैं ,चुगली करती हैं |दुश्मन तक बन जाती हैं ,बॉस की विशेष कृपापात्री बनने के लिए |यानी पुरूष के लिए स्त्री स्त्री की शत्रु तक बन जाती हैं |असावरी बॉस के साथ सीढियां चढती है..चश्मा उतारती है... उसकी छवि बोल्ड स्त्री की है फिर भी बाजी रंजना मार ले जाती है ,जबकि देखने में रंजना एक गम्भीर वेशभूषा वाली झोलू पत्रकार है फिर भी ...|आसावरी सोचती है-‘आखिर उस लड़की में क्या है ,जिसने मुझे अपने वजूद को लेकर आशंका ,डर और असुरक्षा से भर दिया है ?’तब उसे याद आता है कि कैसे रंजना बॉस के सामने अचानक औरत का नक्शा बन जाती है ,जिसमें औरत का पता साफ़-साफ़ होता है |वह सोचती है कि “क्या वह भी एक बार उन रास्तों पर चलकर देखे, जिस रास्ते पर रंजना जा रही है ..और एक के बाद एक उपलब्धियाँ धड़ाधड़ उसके कदम चूम रही हैं| वह रास्ता |उसे अपने पुराने क्षेत्रीय अखबार का अनुभव स्मरण हो आता है|..वहाँ के उसके बॉस ने उसकी जांघें चाहीं थीं और बदले में टूर का आफर दिया था |उसके इंकार करने पर वह उसको उपेक्षित करने लगा था |इस अखबार में बॉस ने ऐसा कोई संकेत नहीं दिया तो क्या वह स्वयं उसे अपनी जाँघों का आफर दे ,,आखिर रंजना उससे कम सुंदर और उम्र में छोटी है | इस बारे में जब वह फिल्म समीक्षक पुनीत वर्मा से बात करती है तो वह मुस्कुराते हुए कहता है –‘आप अब नहीं कर सकती असावरी जी |देर हो गयी है |आपके और रंजना के बीच उम्र का फासला है |साइज की तरह उम्र भी मायने रखती है |आप मुकाबले में मत उतरिए |’यह है आधुनिक पुरूष की दृष्टि में भी स्त्री का सच!’भयावह स्थिति है जब अखबार के दफ्तरों में भी स्त्री देह के रूप में देखी जाती है,तो अन्य जगहों पर उसे क्या कुछ नहीं झेलना पड़ता होगा |आजादी का रास्ता इतना वीभत्स क्यों है स्त्री के लिए ?कब उसकी प्रतिभा उसकी पहचान व सफलता का सबब बनेगी |कब !क्या कभी नहीं | पुराना बॉस रंजना के साथ देश के बड़े मीडिया हाउस चला जाता है | असावरी नए बॉस के आने पर आश्वस्त होती है कि अब सब बेहतर होगा ,पर रंजना की जगह संजना शर्मा आ जाती है और वह फिर निराशा से भर जाती है |
‘फ्री वर्ड’ कहानी की कला भी आजाद होना चाहती है|वह रिया से कहती है –‘मैं अब किसी से नहीं बंध सकती यार |मैं किसी एक के साथ बंधकर अपने जीवन और कैरियर के सारे अवसर गंवाना नहीं चाहती | मैं मुक्त हूँ....|..जब मर्दों का कोई दीन- न्याय नहीं ,तो औरत से क्यों एकनिष्ठ प्यार ,समर्पण चाहते हैं ?...ये साले ठरकी मरद जाएँ भाड़ में ...|’
कला उन स्त्रियों में नहीं जो रिश्ते टूटने से बिखरने लगे |अनचाहे रिश्ते से वह आसानी से मुक्त हो जाना जानती है |वह कुछ-कुछ प्रार्थना-सी दिखती है और उसके संबंध में रिया रचना की तरह ही सोचती है –‘उसके कितने रिश्ते टूटे ,मैंने उसकी गिनती बंद कर दी है ....इस स्त्री का ये सफर,ये प्रयोग कब तक जारी रहेगा |कहाँ थमेगी जाकर ?..खुद रूकेगी या एक दिन उम्र इसकी वल्गा थाम लेगी ?’
कला जीने और उड़ने की चाहत से भरपूर एक स्त्री थी |वह अतीत में डूबने वाली स्त्री नहीं थी |रिया के अनुसार ‘वर्तमान का ऐसा दोहन करते मैंने किसी और को नहीं देखा |जो भी है बस यही एक पल है ..की तर्ज पर उसकी दिनचर्या सेट होती थी ....वह गाना चाहती थी ,या गाने के बहाने उड़ना,यह फर्क पता नहीं चल पा रहा था |वह विवाहिता थी पर उसे पुरूषों की दोस्ती से परहेज ना था,पर उसकी भी एक सीमा थी |वह मुक्त यौन की समर्थक नहीं थी |अक्सर वह अपना काम निकालने के लिए पुरूषों को करीब आने देती ,पर जब देखती कि पुरूष तो उसी से काम निकालने के चक्कर में है ,तो वह दूर हट जाती|इस तरह उसके पुरूष –मित्रों की लिस्ट बढ़ती गयी थी |इस बार भी वह अपनी कोठी के लान में एक ‘पोटा केविन’बनवाना चाहती है |वह रिया से कहती है – वहाँ मैं संगीत का साजो- सामान रखूंगी और रियाज करूँगी |हम वहाँ दारू पार्टी भी करेंगे |हमें कोई डिस्टर्ब नहीं करेगा ...|वह नगर निगम से परमिशन दिलाने के चक्कर में एमसीडी में इंजीनियर सरदार मि. कोहली से मिलती है ,जो उसे परमिशन दिलाने के अलावा और भी बहुत कुछ दिलाने के बहाने रोज उसके घर में बैठक करने लगते हैं |पर आखिर में उनकी नीयत सामने आती है ,जब वह कहते हैं कि –‘तुम मुझे संगीत सिखाओगी....कल से शुरू कर दो |रोज गाड़ी भेजूंगा |मेरे घर आ जाना |मेरी बीबी मायके गयी है |एक महीने के बाद आएगी..|’कला चीख पड़ती है –क्या मतलब है आपका ?मैं आपके घर क्यों जाऊं ?आपकी बीबी घर पर नहीं है और आप मुझे बुला रहे हैं –क्या मतलब ..?’तब कोहली इत्मीनान से कहता है –इरादा हो तो कल फोन कर देना |सोच-समझकर जबाव देना |
मतलब साफ़ था ‘फ्री वर्ड’ को हर मरद सहज उपलब्ध समझता है |स्त्री कितनी भी आजाद हो जाए ,पुरूष उसे देह से ऊपर समझ ही नहीं सकता |पुरूष जब तक अपनी सामंती सोच से मुक्त नहीं होगा ,स्त्री की सच्ची स्वतंत्रता में संदेह है |कोहली जैसे पुरूषों को यदि कला छोड़ देती है ,तो गलत नहीं करती |पर कला जैसी स्त्रियों का भी दोष है और वह यह कि वे अपनी महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए पुरूष का इस्तेमाल करना चाहती हैं ,पर वे भूल जाती हैं कि पुरूष इस क्षेत्र का शातिर खिलाड़ी होता है |स्त्री को इस्तेमाल करने की कला तो उसमें जन्मजात होती है|
संग्रह की जागरूक स्त्रियों को दारू व पुरूषों की मित्रता से परहेज नहीं |कुछ तो ‘मुक्त यौन ’ को भी बुरा नहीं मानतीं | वे कुंठा से मुक्त हैं और अपने निजत्व को अधिक महत्व देती हैं |कहीं-कहीं एक स्त्री दूसरी स्त्री पर दोषारोपण करती दिखती है |अपने को सही साबित करने की कोशिश में दूसरे पक्ष को गलत साबित करने की होड़ भी उनमें है |पर यह कहानियों की कमजोरी नहीं उनकी ताकत है |आखिर ये स्त्रियाँ मनुष्य हैं देवियाँ नहीं ,इसलिए उनकी भावनाएं खुलकर और स्वाभाविक रूप में सामने आती हैं |वैसे भी आज स्त्री को आदर्श की प्रतिमूर्ति बनाने का समय नहीं है |यह समय से मुठभेड़ का समय है जिसमें स्त्रियाँ अपने-अपने ढंग से लड़ रही हैं | संग्रह की शीर्षक कहानी ‘प्रार्थना के बाहर’‘यौन मुक्ति ’ पर केंद्रित हैं और इस बात पर जोर देती हैं यौन मुक्ति ही स्त्री मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करेगा | स्त्री मुक्ति के विमर्श में यौन मुक्ति का विमर्श आ जाना एक स्वभाविक बात है क्योंकि स्त्री की अन्य गुलामियों में उसकी यौनिक गुलामी भी शामिल है |यूँ कहें कि नग्न पुरूषवादीसोच में स्त्री योनि का ही पर्याय है ...पर इस बात पर भी विचार करना होगा कि क्या यौन मुक्ति का अर्थ मुक्त यौन है ?या खुद अपनी यौनिकता को सीढ़ी बनाना यौन मुक्ति है ?और नारी मुक्ति भी ?क्योंकि फिर तो वही स्त्री मुक्त हो पाएगी ,जो पुरूष को काम्य होगी |
पुस्तक-प्रार्थना से बाहर और अन्य कहानियाँ
लेखक--गीता श्री
समीक्षक----रंजना जायसवाल