टेढी पगडंडियाँ - 31 Sneh Goswami द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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टेढी पगडंडियाँ - 31

टेढी पगडंडियाँ

31

रात के आठ बज चुके थे । आसमान की चादर में ढेर सारे तारे आ टंके थे । उनकी टिमटिमाहट से भर पूरा वातावरण भर गया था । चाँद अभी अपने घर से सैर पर निकला नहीं था । सङक पर गहरा अंधेरा छाया था । उससे गहरा अंधेरा इस समय गुरनैब के मन पर तारी था । एक अजीब सी उदासी उस पर हावी हो रही थी । पिछले पंद्रह दिनों में घटी घटनाएँ बार बार उसकी आँखों के सामने से गुजर जाती । जंगीर भाइयों का अचानक घर पर आना , चाचा की दुर्घटना में मर जाना , चाची की चुप्पी , किरण का बैरागी रोया रोया रूप , बसंत और देसराज की आँखों में गहरा समाया दुख , बीबीजी और पापाजी का बात बात पर आँखें भर आना एक एक बात उसे विचलित कर देती । अपनी ही सोच में खोया वह अभ्यस्त हाथों से स्टेयरिंग घुमा रहा था । मन की लहरें जब उछल रही होती हैं तो आदमी बेबस होकर उन लहरों के साथ ही बहता चला जाता है । हाथ पैर मारने का न मन होता है न हिम्मत । मार भी ले तो थक कर चूर होने के अलावा चारा ही क्या है । तब वह अपनेआप को भाग्य के सहारे छोङकर आँखें बंद कर लेता है । गुरनैब ने भी खुद को किस्मत के भरोसे छोङ दिया और जीप गाँव की ओर मोङने का फैसला किया । रोटी पैक करवा कर वह गाँव की ओर मुङा । सीधा जीप किरण की कोठी के सामने रोकी और भीतर चला गया । किरण ने आगे बढकर पैकेट पकङा और चौंके की ओर बढ गयी । गुरनैब वहीं आँगन में बिछे मूढे पर बैठ गया । थोङी ही देर में किरण अंडे की भुर्जी और रम की बोतल लिए वापिस लौटी तो उसने देखा कि गुरनैब दोनों हथेलियों में सिर थामे नीचा मुँह किये बैठा था –
“ ले प्लेट पकङ “
गुरनैब उसी तरह बैठा रहा । उसने हाथ आगे नहीं बढाया ।
किरण घबरा गयी । “ क्या हुआ ? ऐसे क्यों बैठे हो “ ? – उसने आगे होकर हाथ में पकङा हुआ सामान चारपायी पर रखा और उसका चेहरा दोनों हाथों में थाम लिया – “ ये क्या ? तुम रो रहे हो ? ”
“ नहीं तो , वो जीप चलाते हुए एक मच्छर आँख में चला गया था इसलिए “ ।
“ ये मच्छर आजकल मेरी आँखों में भी घुस जाता है । तू अपने आप को सम्हाल । इस तरह बिखरेगा तो बाकी घरवालों का क्या बनेगा । उठ कर हाथ मुँह धोले ।
गुरनैब उठा तो हाथ मुँह धोने के लिए था पर किरण को दुपट्टे से आँखें पोंछते देखा तो किरण को गले से लगा लिया । दोनों कितनी देर रोये और कितना एक दूसरे को चुप कराया , कौन जाने । होश तब आया जब दोनों की रूहें तृप्त हो गयी थी । शरीर का रोम रोम शांत हो गया था ।
किरण ने अपनी हथेलियों में अपना चेहरा छिपा लिया ।
“ ये हमने क्या किया यार “ – गुरनैब भी कुछ लज्जित सा था ।
“ चल अब उठ और कपङे पहन ले । “ उसने कपङे किरण को पकङाए ।
और तू कहाँ चला । हवेली तो तू जाएगा नहीं अभी । जो होना था या नहीं होना था , वह तो हो चुका । अब भागेगा क्या । तू बैठ , मैं रोटी डाल लाऊँ । पता नहीं , कब से नहीं खाई होगी ।
गुरनैब यंत्रचालित सा बैठ गया । किरण ने रोटी परोसी और दोनों थालियाँ ले आई । दोनों ने चुपचाप रोटी खायी । गुरनैब पर नींद हावी हो गयी थी । पिछली दो रातों से वह एक मिनट भी सोया न था । चंद मिनटों में ही वह टेढा हो गया और गहरी नींद में सो गया । किरण ने रजाई ओढाई और उसके सिरहाने खङी उसे काफी देर सोते हुए देखती रही । इसे उसने जब पहली बार देखा था तब से ही यह उसके मन में बस गया था । एकदम सीधा सादा , भोलाभाला आदमी जो आदमी कम , बच्चा ज्यादा लगता । शरीर से बेशक मजबूत था । लंबा ऊँचा , गबरू जवान , खिलता हुआ रंग और खुले हाथ पैर । बात बेबात बच्चों की तरह खिलखिल कर हँसना उसका मनपसंद शगल था । एक ऐसी शख्सियत जिसे मिलते ही उससे प्यार हो जाए ।
अचानक वह डर गयी । जिस तरह से वह उसे देख रही थी , कहीं उसे नजर लग गयी तो । कहीं उसे कुछ हो तो नहीं जाएगा । उसने आगे बढकर बत्ती बुझा दी और धीरे से पलंग पर आ गयी । थोङी देर बाद वह भी नींद की गोद में पहुँच गयी ।
गुरनैब की नींद सुबह पाँच बजे खुली । किरण तब तक नहाने जा चुकी थी । वह उठकर घेर में जा पहुँचा । दातुन लेने के लिए उसने बसंत की ओर हाथ बढाया ।
“ भापाजी ! रात सरदारसाब आपको ढूँढते हुए कोठी आए थे । आप सो रहे थे तो वापिस चले गये “ ।
गुरनैब के चेहरे पर कई रंग आये , कई लौट गये । वह दातुन लेकर कोठी में लौट आया । किरण तबतक नहाकर लौट आई थी और चूल्हा जलाकर चाय चढा दी थी ।
“ सुन रात पापाजी मुझे देखने यहाँ आये थे । हम गहरी नींद सो रहे थे । “
“ हाय मैं मर जाऊँ । हमें तो पता ही नहीं चला । ऐसे ही सोते रह गये । क्या सोचेंगे वे हमारे बारे में । “ - किरण ने गिलास में चाय छानते हुए कहा ।
गुरनैब ने चाय पकङ ली और सोच में डूबा हुआ चाय घूँट घूँट कर पीता रहा । किरण ने अचानक उसका हाथ पकङा – “ मुझे दाई को दिखाना है “
गुरनैब ने सवालिया निगाह उठाई ।
“ दो महीने हो गये । मैं निरंजन को इस बारे में बताना चाहती थी पर तकदीर ने मौका ही नहीं दिया । “
“ ठीक है । करता हूँ कुछ । “ – गुरनैब ने जीप हवेली की ओर मोङ ली । किरण उसे जाते हुए देखती रही फिर दरवाजा बंदकर भीतर आ गयी ।


बाकी कहानी अगली कङी में ...