Vah ab bhi vahi hai - 50 books and stories free download online pdf in Hindi

वह अब भी वहीं है - 50

भाग -50

उस दिन जब लौटा तो तुम बहुत उदास थी। खाना मेरी वजह से बनाया था, नहीं तो शायद बनाती ही नहीं। साथ में बहुत कहने पर नाम-मात्र को खाया। खाते समय ही मैंने तय किया कि आज ही तुमसे एक फैसला हर हाल में लेने को कहूंगा। लेकिन खाना खत्म होते ही तुमने कहा, 'शाम को फ़ोन पर तुमने कहा था कि, पैर में बहुत दर्द हो रहा है। ठीक ना हुआ हो तो आओ तेल मालिश कर दूं।'

तुम्हारी इस बात पर मैं तुम्हें बड़ी देर तक देखता रहा, क्योंकि पहले भी कई बार तकलीफ हुई, लेकिन तब कहने पर तुम लापरवाही से यही कहती कि, 'दवा ले लेना। काहे को मुंह लटकाए बैठा है। बनता है बड़ा विलेन-किंग।'

जब कई सारे नौकर थे, तब तुम दिन-भर में कम से कम दस बार तो विलेन-किंग का ताना मारती ही थी। लेकिन जैसे-जैसे करीब आती गई, वैसे-वैसे यह ताना मारना बंद कर दिया था । मेरा ख़याल ज़्यादा से ज़्यादा रखने लगी थी। उस समय तुमने मालिश के लिए इतने अपनत्व से कहा था कि, मैं कुछ बोल ही नहीं पाया। मुझे शांत देख कर तुमने कहा, 'चल लेट जा, मालिश कर देती हूं। दिन-भर काम में जुटा रहता है। बार-बार कहती हूं कि, थोड़ा आराम भी कर लिया कर।'

तुम मालिश भी किए जा रही थी और बड़बड़ाए भी जा रही थी। थोड़ी देर में ही मैंने तुम्हें मना करते हुए कहा, 'रहने दे, तू भी तो थकी है। चल आराम कर।'

मगर तुम मालिश करती रही और रमानी बहनों को गाली देती रही। उन्हें धोखेबाज, आवारा, एहसान-फरामोश बताती रही। जबकि मुझे उनका नाम लेने को भी मना करती थी। उस समय मैंने तुम्हें समझाते हुए कहा कि, 'दूसरों को देखकर उनके जैसा बनने के चक्कर में हम-दोनों ने अपनी ही शांति खत्म कर के बड़ी गलती की। भगवान ने अगर हमारी किस्मत में बड़ा होना लिखा ही होता तो हम बन जाते। जैसे ये रमानी परिवार बन गया। हमारी किस्मत में नहीं है, तो हम बार-बार कोशिश कर के भी जहां के तहां बने हुए हैं।

बड़वापुर से क्या बनने आया था। उसके लिये क्या-क्या नहीं किया। कितने पापड़ बेले, भूखा-प्यासा रहा। मजदूरों के दिए खाने पर जिन्दा रहा। सुन्दर हिडिम्बा जैसी मालकिन की ना जाने कितनी बार उल्टियां तक साफ कीं। छब्बी, तोंदियाल जैसे अपने प्रिय लोगों को खो दिया। पुलिस की लाठियां खाईं। यह भी कहूँ कि फ़र्ज़ी एनकाऊंटर का शिकार होने से बचा।

एक ने मुफ्त में मॉडलिंग करवा ली, तो एक ने घटिया फ़िल्म में काम भी करा लिया। लेकिन आज तक फ़िल्म का नाम भी नहीं मालूम हो पाया।

यहाँ इन बहनों ने क्या-क्या नहीं कराया। लोग कहते हैं कि मेहनत करो फल मिलेगा। मैंने जी-तोड़ मेहनत की, मगर वह फल नहीं मिला जिसके लिए मेहनत की। कारण शायद यही हो सकता है कि, मैंने जानकारी के अभाव में मेहनत गलत की या फिर मेरी किस्मत में जो बनना लिखा है, वही बनता जा रहा हूं। यही तेरे साथ भी है। तुम्हारे शौहर ने दूसरी औरत के चक्कर में तुम पर अत्याचार ना किया होता, तलाक न दिया होता, तो आज तुम मेरे साथ यहां न होती। जरा ठंडे दिमाग से सोचो कि, जब शौहर के साथ थी शुरू में, तो क्या सपने में भी सोचा था, कि ज़िंदगी में यह सब करोगी। जो कुछ अब-तक किया।'

मेरी बातें बड़ी देर तक सुनते रहने के बाद भी तुम कुछ बोली नहीं, बस मालिश करती रही। तुम्हारी चुप्पी से मुझे बड़ी खीझ हुई। मैंने अपने पैरों को मोड़कर तुम्हें मालिश करने से मना कर दिया, कहा, 'बस कर, थक गई होगी। मैं इतनी देर से बोले जा रहा हूं और तू है कि कुछ जवाब ही नहीं दे रही। मैं पागल-वागल हूं क्या?'

मेरे इतना कहने पर तुमको लगा कि मैं गुस्सा हो गया हूं। तो तुमने कहा, 'गुस्सा काहे को हो रहे हो। मैं क्या जवाब दूं तुम्हारी बातों का। जो तुम कह रहे हो, सही कह रहे हो। मुझे भी लगता है कि किस्मत में जो था वह हुआ। आगे जो लिखा है वही होगा, लेकिन मुझे जो और बहुत सी तकलीफें मिल रही हैं, उसके लिए मेरे गुनाह भी जिम्मेदार हैं।'

बात पूरी करते-करते तुम्हारा गला भर गया। आंखों में आंसू आ गए। गुनाह शब्द पर मेरा ध्यान ज़्यादा गया। मैंने सोचा कि यहां जो कुछ हुआ उसमें तो रमानी परिवार, मैं, सब-के-सब बराबर के भागीदार हैं, फिर ये अकेले खुद को क्यों दोषी मान रही है। इसने कौन सा ऐसा गुनाह किया है ? कब किया है ? जिसके कारण यह इतना पछता रही है। उसका इतना दुख है कि रो रही है। पहले कभी तो किसी गुनाह के बारे में संकेत तक नहीं दिया।

आखिर मैंने पूछा, 'तुमने कौन सा गुनाह किया है? कब किया? पहले तो कभी कुछ बताया नहीं।'

मेरे प्रश्नों का तुमने कोई उत्तर नहीं दिया। उठ कर तेल की शीशी अलमारी में रखी, फिर आकर शांत बैठ गई। मैं भी उठ कर बैठ गया था। तुम चुप रही तो मैंने फिर पूछा, ज़्यादा जोर देने पर तुम बोली, 'क्या कहूँ ? कहने का मतलब पुरानी बातें दोहराना ही होगा। सब तो तुम्हारे साथ हुआ। तुम्हारी आंखों के सामने हुआ। फिर भी पूछ रहे हो।'

'काहे को पहेली बुझाती हो। मेरे सामने कौन सा गुनाह किया। मेरे सामने करती तो तुझे मना ना किया होता।'

'तुझे भी जब-तक बच्चों की तरह ना समझाओ, तब-तक कुछ समझ में नहीं आता। अरे यहां जो कुछ किया वो गुनाह नहीं है क्या? पैसा कमाने, अमीर बनने के लिए इन बहनों की नकल की, झूठ बोला, धोखा दिया। रुपये-पैसे पर हाथ साफ़ किया, इन सबसे ज़्यादा बड़ा गुनाह तो यह कि, बिना सोचे-समझे यहां ना जाने कैसे-कैसे लोगों के साथ सोई।

इन बहनों की नकल करने में एकदम संकोच नहीं किया। यहां तक कि इन बहनों के साथ भी...और तो और तुझे भी साजिशन इसी में धकेला। तू भी इन बहनों से लेकर और ना जाने किन-किन औरतों के साथ सोया। क्या-क्या नहीं किया। मैंने शराब से लेकर पता नहीं कौन-कौन सा नशा कर डाला। खुद तो किया ही तुझसे भी कराया। अब तू ही बता गुनाह किया की नहीं।'

मैं समझ ही नहीं पा रहा था कि तुम्हारी इन बातों का जवाब क्या दूं। तुम कह तो एकदम सही रही थी। मैं बिलकुल शांत तुम्हें देखता रहा तो तुम फिर बोली, 'तुम्हारे साथ यही तो सबसे बड़ी मुश्किल है, या तो लड़ पड़ोगे, या फिर चुप रहोगे? मैं जब वह सब कर रही थी, तो कम से कम मुझे टोकता तो। ऐसा तो नहीं था कि मैं तुम्हारी बात सुनती ही नहीं। ना पूरी मानती कम से कम आधी ही मानती। गुनाह कुछ तो कम हुआ होता। मगर नहीं, मर्द होकर भी तू वही करता गया, जो मैं करती गई, कहती गई।'

'क्या कहता मैं, उस समय मेरी कोई बात सुनती भी थी। हमेशा सिर पर सवार रहती थी। वो दोनों तेरी बात टालती नहीं थी, तो मैं सोचता कि, मेरी कोई बात तुझे बुरी लगी तो शिकायत कर देगी। दूसरे जब मैंने देखा कि औरत होकर तू अमीर बनने के लिए कितना कुछ किए जा रही, आगे-पीछे कुछ सोच ही नहीं रही, मुझे भी साथ खींचे हुए है, तो मैंने सोचा चलो जो होगा देखा जाएगा। जो ये कह रही है, हम भी करते हैं वही सब, तो मैं लगा रहा साथ में।

अब क्या मालूम था कि, ये बहनें इतनी शातिर हैं कि, हमें कुछ समझेंगी ही नहीं। हमें अपने काम, अपनी अय्याशी के लिए एक मशीन की तरह इस्तेमाल करेंगी और काम निकल जाने पर लात मार के चल देंगी।

इसीलिए मैं कह रहा हूं कि इस रमानी हाऊस से पूरी तरह मुक्ति पा ली जाए। हालांकि यह सोचने में देर बड़ी कर दी गई है, लेकिन अब भी कुछ कर लेने भर का तो समय है ही। जो भी गलत, सही हुआ, वो हुआ। लेकिन अब यहां जब-तक रहेंगे, तब-तक ये सारी बातें दिमाग खराब किये रहेंगी, जीना मुश्किल कर देंगी। मगर तू है कि तैयार ही नहीं हो रही है।'

'मैं तैयार हूं, मैं खुद निकलना चाह रही हूं यहां से। बस तुम कर्जा जल्दी से उतार दो, तो यहां से निकलते हैं। नहीं तो यहां से मिल रही पगार बंद हो जाएगी तो और मुश्किल होगी'

'वो तो उतार ही रहा हूं। थोड़ा बहुत तो है नहीं। जितना दे रहा हूं हर महीने, उस हिसाब से दो साल तो लग ही जाएंगे। तब-तक यहां रहना मुझे ठीक नहीं लग रहा। सच बताऊँ, तुम्हारी बात सुनने के बाद तो मेरा मन और ज़्यादा उखड़ गया है।'

'जैसे इतना झेला, वैसे ही थोड़ा और झेल लो। अभी किराए पर कहीं और मकान लेने से कर्ज़ा उतारना मुश्किल हो जाएगा। और सुनो जितना पैसा हमें मिलता है, अब उतने से ही हम-दोनों अपना खर्चा चलाएंगे। तुम जितना कमाओ, सब कर्जा उतारने में लगा दो, इससे जल्दी खत्म हो जाएगा।'

'चलो यही करते हैं।'

मैंने तुम्हारा मन रखने के लिए यह कह तो जरूर दिया था, लेकिन जानता था कि इससे कोई ज्यादा अंतर पड़ने वाला नहीं, क्योंकि तब-तक रमानी हाऊस से होने वाली आय चौथाई ही रह गई थी। इस लिए खर्चों में तमाम कटौती के बावजूद सच में ऐसा हो नहीं पा रहा था। होटल की कमाई से अच्छी-खासी रकम निकालनी ही पड़ती थी, क्योंकि रमानी बहनें हमेशा फंसाये रखने के उद्देश्य से एक महीने की पगार रोके ही रहती थीं।

इन सबसे बड़ी नई समस्या तो यह शुरू हो गई थी कि, ना जाने क्या हो गया कि आए दिन तुम्हारी तबियत खराब रहने लगी। कभी बुखार, कभी कमर दर्द तो कभी सिर दर्द, कभी पेट खराब। हर हफ्ते कम से कम एक-दो दिन डॉक्टर के यहां ले जाना पड़ता। डॉक्टर आए दिन ना जाने कौन-कौन सी जांच कराते। एक से एक महंगी दवाएं देतें।

ढेर सारी दवाएं देखकर तुम परेशान होकर कहती, 'खाना खाने से अच्छा है कि दवाएं ही खाया करूं।' अब तुम दिन-भर में कम से कम एक बार यह जरूर कहती कि, 'कहाँ तो सोचा था कि पगार से घर का खर्चा चलेगा, लेकिन हालत यह हो गई है कि दवाई का ही पूरा नहीं पड़ता, होटल की कमाई न होती तो खाने-पीने के भी लाले पड़ जाते।'

तुम्हारी बात सही थी। होटल सही समय पर चल निकला था। और साथ ही दवा का सिलसिला भी चलता ही चला जा रहा था। कई डॉक्टर बदले, लेकिन तुम्हारी हालत सुधरने के बजाए दिन पर दिन गिरती ही जा रही थी। अब मैं बड़ी चिंता में पड़ गया। जल्दी ही हालत यह हो गई कि, मुझे दुकान के साथ ही घर का भी काम-काज संभालना शुरू करना पड़ा।

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